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April 1963

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एतावज्जन्मसाफल्य यदनायत्तवृत्तिता।

ये पराधीनताँ यातास्ते वै जीवन्ति के मृतः॥

—हितोपदेश

“स्वाधीन होना ही जन्म की सफलता है। यदि पराधीन रहने वाले को भी जीवित माना जाय तो फिर मरा हुआ किसे कहा जायगा? अर्थात् वे ही मरे हुये के समान है जो पराधीन बने हैं।”

भिक्षुओं को देखकर सहृदय व्यक्ति को दया आना स्वाभाविक है। सोचते हैं—इन बेचारों को सुखी बनाने के लिए शक्ति भर मदद करनी चाहिए। भावना से प्रेरित होकर—अपने बच्चों का पेट काटते हैं, भविष्य के लिए कुछ बचा कर रखा था उसे समाप्त करते हैं और उसे भिखारियों में बाँट देते हैं। सोचते हैं यह बेचारे सुखी होंगे, जरूरत पूरी हो जाने पर आशीर्वाद देंगे। पर जब परिणाम देखते हैं तो दूसरा ही निकलता है। प्राप्त हुए पैसों को लेकर वह भिखारी बीड़ी खरीदता है या जोड़ने के लिए जमा कर लेता है। आज का काम चल गया, कल फिर वही व्यवसाय चलाता है। इस प्रकार हमारे जैसे ढेरों दानी रोज ही उसकी सहायता करते हैं पर एक सामयिक-सी ओछी आवश्यकता मात्र वे पूरी कर पाते हैं। भिखारी आजीवन भिक्षा वृत्ति ही करता रहता है, उसके दुःख का कोई अन्त नहीं होता।

क्या यह अच्छा न होता कि उसे कुछ काम करने के लिए समझाया या दबाया जाता। उस दिशा में उसका सहयोग किया जाता। यदि यह प्रयोग सफल हो सकता तो वह भिखारी दूसरे अन्य लोगों की तरह ही अपने भुजबल से कमाता खाता, स्वावलम्बी और स्वाभिमानी जीवन-यापन करता। स्वयं माँगने की अपेक्षा दूसरों को देने की स्थिति में होता। दान देकर नहीं उसकी वृत्ति को बदल कर ही समस्या का हल हो सकना सम्भव है।

बीमारों को देखकर, उन्हें कष्ट से कराहते हुए आर्थिक संकट में फँसते हुए देखकर सहृदय की भावना जगती है, वह सोचता है, ऐसे लोगों के लिए चिकित्सालय स्थापित कराना चाहिए। इस उदार भावना से प्रेरित होकर वह अपनी सारी सामर्थ्य खर्च करके औषधालय खुलवाता है। सोचता है इससे संसार की एक बड़ी कठिनाई दूर होगी। हर साल हजारों रोगी अच्छे हुआ करेंगे। औषधालय खुलता है, दवाएँ बँटती हैं, रोगी आते हैं और अच्छे भी होते हैं। पर आरोग्य रक्षा का उद्देश्य पूरा नहीं होता। आहार-विहार का असंयम करने वाले व्यक्ति रोगमुक्त होते-होते अपने पुराने ढर्रे पर फिर आ जाते हैं। फिर बीमार पड़ते हैं। फिर दवा लेने आते हैं। एक रोग से पीछा छूटा नहीं कि दूसरा आ घेरता है। ढेरों औषधियाँ खर्च होती हैं, बेचारी चिकित्सक का समय लगता है पर बीमारी की समस्या ज्यों की त्यों उलझी रहती है।

विचारशीलता कहती है कि लोगों को आदतें बदलने की प्रेरणा दिये बिना काम न चलेगा। नशेबाजी घटेगी नहीं, असंयम घटेगा नहीं, अनियमितता घटेगी नहीं तो रोग भी कब छूटने वाला है। जलते तवे पर पानी के थोड़े से छींटे क्या प्रयोजन पूरा करेंगे। दवाओं से नहीं प्रवृत्ति बदलने से रोग छटेंगे, लोगों को इसी का शिक्षण देना चाहिए।

कोई मित्र या संबंधी कर्ज या गरीबी में फँस कर अपने पास आर्थिक सहायता को आता है। अपने को कठिनाई में डालकर उसकी वह आवश्यकता पूरी कर दी गई। सोचा था बेचारा एक बड़ी मुसीबत से निकल जायगा। पर ऐसा हो नहीं सका। पिछला कर्ज तो उसने चुका दिया, रुका हुआ कारोबार भी चालू कर लिया, पर फिजूलखर्ची की आदत नहीं छोड़ी। अपनी हैसियत से अधिक, उचित-अनुचित कामों में फिर खर्च किया, लापरवाही बरती। थोड़े ही दिन बाद वही अर्थसंकट फिर सामने आ गया। अब फिर वही संबंधी पहले की तरह दुबारा सहायता की याचना करता है। अब कहाँ से दिया जाय? यदि देने की स्थिति में भी हो तो बार-बार कब तक देते रहा जायगा। ऐसे ही दस-बीस मित्रों को माँगें उठने लगीं तो अपनी रोटी भी कठिन हो जायगी।

विवेक कहता है—आर्थिक तंगी की समस्या कठोर परिश्रम करने, मितव्ययिता बरतने और लापरवाही जरा भी न करने की आदत डालने से ही सुलझेगी। आर्थिक तंगी जिन कारणों से उत्पन्न हुई है वे कारण यदि बने रहे तो कुबेर भी उनकी जरूरत पूरी न कर सकेगा। घाटा और तंगी बनी ही रहेगी। सामयिक सहायता का थोड़ा महत्व हो सकता है पर ठोस हल तो आदतें सुधारना ही है। इसी के लिए इन मित्र स्वजनों को क्यों न समझाया, दबाया जाए?


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