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April 1963

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माँगन मरन समान है, मत कोई माँगों भीख।

माँगन ते मरना भला, यह सत गुरु की सीख॥

जल ज्यों प्यारा माछरी, लोभी प्यारा दाम।

माता प्यारा बालका, भक्त पियारा राम॥

जो तोकूँ काँटा दुवै, ताहि बोय तू फूल।

तोकों फूल का फूल है, बाको है तिरसूल॥

खट्टा मीठा चरपरा, जिह्वा सब रस लेय।

चारों कुतिया मिल गई, पहरा किसका देय॥

—कबीर

और शुष्क समझे जाने वाले विषय को पढ़ना और सुनना पसंद नहीं करते। मनोरंजन और स्वार्थ की बातों में सहज ही मन लगता है पर उत्कृष्ट आदर्शवाद को सुनने समझने तक की अभिरुचि नहीं जगती इस ओर अभिरुचि नहीं जगती इस ओर अभिरुचि को जगाना, आधी बाजी जीत लेने के समान है। किसी जमाने में चाय का प्रचार बिल्कुल भी न था, लोग उसके नाम, स्वाद और गुण से बिल्कुल भी परिचित न थे, पर चाय कम्पनी के प्रचारकों ने बड़े ही सुव्यवस्थित रूप से उसका प्रचार जम कर किया और कुछ ही दिनों में उसका चस्का जन-साधारण को लगा दिया। आज घर-घर में चाय का प्रचार है। रात दिनों होठों पर प्याले लगे रहते हैं। बीड़ी और सिगरेट का प्रचार भी इसी तरह व्यापक बनता जाता है। यही गतिविधि यदि सद्विचारों, सद्भावनाओं और सत्प्रवृत्तियों को बढ़ाने में अपनाई जावे तो उसका भी वैसा ही परिणाम निकलेगा। यदि सद्विचारों को सुनने समझने में चाय, बीड़ी जैसा रस आने लगे तो समझना चाहिए तीन चौथाई मोर्चा फतह हो गया। विचारों को यदि अन्तःकरण में समुचित स्थान मिल जावे तो उसका प्रभाव प्रत्यक्ष जीवन पर पड़ेगा ही, लोग वैसे ही काम भी अवश्य करने लगेंगे।

निकिल के बने सिक्कों का खोटा-खरा परखने के लिए दुकानदार लोग एक चुम्बक अपने पास रखते हैं और उससे छूकर यह जान लेते हैं कि वह असली है या नकली। जो सिक्के चुम्बक से चिपक जाते हैं वे असली, जो नहीं चिपकते वे नकली माने जाते हैं। सद्विचारों की ओर अभिरुचि जिनकी लग सके उनसे यह सहज ही आशा की जा सकती है कि वे आगे चल कर श्रेष्ठ कर्मों में भी प्रवृत्त होंगे और युग-निर्माण कार्यक्रम के लिए कुछ उपयुक्त सिद्ध हो सकेंगे। मनोभूमि की श्रेष्ठता को ठीक तरह परिपक्व बनाने के लिए बहुत दिनों तक लगातार उसे सद्विचारों को हृदयंगम करते रहने की आवश्यकता होती है। अभ्रक भस्म, मकरध्वज आदि रसायन बनाने के लिए उनके अग्नि-संस्कार करने पड़ते हैं, अनेकों पुट देने होते हैं और घुटाई पिसाई की व्यवस्था बनाई जाती है। इसी प्रकार किसी व्यक्ति के ‘दृढ़ पुरुष’ बनाने के लिए उसे देर तक प्रौढ़ सद्विचारों के साथ अपने आपको घोटना पीसना पड़ता है। रसायन बनाने वाले वैद्यों की तरह युग-पुरुष बनाने के लिए हमें भी उसी प्रक्रिया को अपनाना होगा।

बड़े काम के लिए बड़े व्यक्तित्वों की आवश्यकता पड़ती है। हाथ लोहे की मोटी जंजीरों से बाँधे जाते हैं। पतली कमजोर रस्सी में बाँध कर उन्हें रोक रख सकना कठिन है। युग-निर्माण जैसे महान कार्य के लिए ऐसे लोगों की आवश्यकता है जिन्होंने उत्कृष्ट विचारों का चिन्तन और मनन करते-करते अपनी मनोभूमि को प्रलोभन और कठिनाइयों से टक्कर लेने की क्षमता से सुसम्पन्न बना लिया हो। बाह्य आवेश से नहीं वरन् अन्तरात्मा की सुस्थिर प्रेरणा के आधार पर जो लोग श्रेष्ठता के सन्मार्ग पर आरुढ़ होते हैं उन्हीं के लिए अन्त तक उस पर चलते रहना संभव होता है।

भड़काने वाले, आवेश उत्पन्न करने वाले भाषण सुनकर, लेख पढ़कर या अन्य प्रकार की उत्तेजना से प्रभावित होकर कोई व्यक्ति तत्काल सत्कर्म करने की प्रतिज्ञा कर लेते हैं, पर आन्तरिक दुर्बलता के कारण वह प्रतिज्ञा देर तक निभती नहीं। नामवरी और प्रशंसा के लोभ से कई व्यक्ति कुछ सत्कर्म करते हैं उसमें दिखावा अधिक होता है। जब तक दिखावा रहा तब तक उत्साह भी रहा, जब पद छिना, प्रतिष्ठा घटी तभी वे उससे विरत होने लगे। हमने अनेक आन्दोलनों के भीतर घुसकर देखा है, अनेकों से हमारा अत्यन्त घनिष्ठ संबन्ध रहा है, और अनेक आन्दोलनों को हमने जन्म दिया है। इसलिए हमारे जीवनभर के अनुभवों का निष्कर्ष इस रूप में है कि मनोभूमि की परिपक्वता के बिना जो लोग क्षणिक प्रेरणा या आवेश में कुछ काम कर बैठते हैं वे देर तक परमार्थ के कठिन मार्ग पर चलते नहीं रह सकते। व्रत को अन्त तक निबाहने की आशा केवल उन्हीं से की जा सकती है जिन्होंने उस आदर्शवाद की भावनाओं को चिरकाल तक अपने अन्तःकरण में पर्याप्त स्थान दिया है और भली प्रकार सोच समझ कर उस मार्ग पर चलने का कदम उठाया है। युग-निर्माण के लिए ऐसे ही परिपक्व मनोभूमि के व्यक्तियों की आवश्यकता है।

समाज में अनेकों प्रकार की सत्प्रवृत्तियों का बढ़ाया जाना और अनेकों दुष्प्रवृत्तियों का हटाया जाना आवश्यक है। जिस सभ्य समाज की रचना का स्वप्न साकार करने के लिए हम अग्रसर हो रहे हैं उसका आधार ऐसे सुदृढ़ व्यक्तित्व ही हो सकते हैं जो अपना आदर्श उपस्थित करके दूसरों को अनुकरण की प्रेरणा दे सकें। बुराइयों को मिटाने के लिए उनसे टक्कर लेना आवश्यक है। टकराने में चोट लगने का खतरा रहता ही है, उसे सहने में शूरवीर ही समर्थ होते हैं। कमजोर तबियत के आदमी ऐसे अवसरों पर भाग खड़े होते हैं और विरोधियों के हौसले बढ़ाने में सहायक होते हैं। युग-निर्माण कार्यों में अनुकरण के उपयुक्त आदर्श उपस्थित करना और दुराचार से संघर्ष करना अनिवार्य है। इसलिए यह भी आवश्यक है कि इन प्रवृत्तियों को अग्रसर करने वाले लोग काफी मजबूत हों। यह आन्तरिक मजबूती, सद्विचारों को निरन्तर हृदयंगम करते रहने से ही प्राप्त हो सकती है।

सज्जन प्रकृति के नर-नारियों को तलाश करना और उन्हें स्वाध्याय-सत्संग के बाद पानी से सींचना विशाल वट वृक्षों को रोपने के समान इस युग का सबसे बड़ा पुण्य परमार्थ समझा जाना चाहिए। पतित मनोभूमि का मनुष्य दीन, हीन और तुच्छ घृणित ही समझा जा सकता है, पर यदि वह आत्मबल सम्पन्न हो तो नर-रत्न, महापुरुष, ऋषि और अवतार भी बन सकता है। तुच्छ को महान बना देने की शक्ति केवल उत्कृष्ट विचारों में ही रहती है। स्वाति का जल सीप में पड़ने से मोती बनता है, बाँस में पड़ने से बंसलोचन और केला में जाने से कपूर बनता है। सद्विचारों की स्वाति बूँद जिस मन मस्तिष्क में प्रवेश करती है उसे अजर-अमर ही बना देती है, वह उज्ज्वल नक्षत्र की तरह स्वयं चमकता है और अन्य अनेकों को प्रकाश देने का निमित्त बन जाता है। इसलिए सद्विचारों की उपयुक्त मनोभूमि में प्रतिष्ठा करने का प्रयत्न ‘ब्रह्मकर्म’ माना जाता है। उससे बड़ा पुण्य-परमार्थ और कुछ भी इस धरती पर नहीं है।


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