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April 1963

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घटावभासको भानुर्घटनाशे न नश्यति।

देहवभावसकः साक्षी देह नाशे न नश्यति॥

—आत्म प्रवीघ उप0

“घड़े के भीतर दिखलाई पड़ने वाला सूर्य घड़े का नाश हो जाने पर नष्ट नहीं होता, वैसे ही देह में प्रकाशित आत्मा देह का नाश होने पर नष्ट नहीं होती।

सद्विचारों की महत्ता का अनुभव तो हम करते है पर उनकी दृढ़ता नहीं रह पाती। जब कोई अच्छी पुस्तक पढ़ते या सत्संग, प्रवचन सुनते हैं तो इच्छा होती है कि इसी अच्छे मार्ग पर चलें। पर जैसे ही वह प्रसंग पलटा कि दूसरी प्रकार के, पूर्व अभ्यास, विचार पुनः मस्तिष्क पर अधिकार जमा लेते हैं और वही पुराना घिसा-पिटा कार्यक्रम पुनः चलने लगता है। इस प्रकार उत्कृष्ट जीवन बनाने की आकाँक्षा एक कल्पना मात्र बनी रहती है उसके चरितार्थ होने का अवसर प्रायः आने ही नहीं पाता।

कारण यह है कि अभ्यस्त विचार बहुत दिनों से मस्तिष्क में अपनी जड़ जमाये हुए हैं, मन उनका अभ्यस्त भी बना हुआ है। शरीर ने एक स्वभाव एवं ढर्रे के रूप में उन्हें अपनाया हुआ है। इस प्रकार उन पुराने विचारों का पूरा आधिपत्य अपने मन और शरीर पर जमा हुआ है। यह आधिपत्य हटे और नये उत्कृष्ट विचार वह स्थान ग्रहण करें तो ही यह संभव है कि मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार और अन्तःकरण चतुष्टय बदले। जब अन्तः भूमिका बदलेगी तब उसका प्रकाश बाह्य कार्यक्रमों में दृष्टिगोचर होगा। परिवर्तन का यही तरीका है।

उच्च विचारों को बहुत थोड़ी देर हमारी मनोभूमि में स्थान मिलता है। जितनी देर सत्संग, स्वाध्याय का अवसर मिलता है उतने थोड़े समय ही तो अच्छे विचार मस्तिष्क में ठहर पाते हैं। इसके बाद वही पुराने कुविचार आँधी तूफान की तरह आकर उन श्रेष्ठ विचारों की छोटी-सी बदली को उड़ाकर एक ओर भगा देते हैं। निकृष्ट विचारों में तात्कालिक लाभ और आकर्षण स्वभावतः अधिक होता है, चिरकाल से अभ्यास में आते रहने के कारण उनकी जड़ें भी बहुत गहरी हो जाती हैं। इन्हें उखाड़ कर नये श्रेष्ठ विचारों की स्थापना करना सचमुच बड़े अध्यवसाय का काम है।

किसी घने जंगल में कंटीली झाड़ियाँ सारी भूमि को घेरे रहती हैं, गहराई तक अपनी जड़ें जमाये रहती हैं। यदि उस जंगल को कृषि योग्य बनाना हो तो वह झाड़-झंखाड़ काटने की व्यवस्था करनी पड़ती है। फिर भूमि खोद कर जड़ें उखाड़नी पड़ती हैं। जोत कर खेत को एक समान करना पड़ता है। खाद और पानी की व्यवस्था जुटानी होती है। इतना प्रबंध करने पर ही वह घने जंगल की ऊबड़-खाबड़ भूमि परिपूर्ण अन्न उपजाने वाली कृषि भूमि के योग्य बन पाती है। मनोभूमियों को सत्कर्मों को, सद्भावनाओं की हरी-भरी फसल उगने योग्य बनाने के लिये ऐसा ही पुरुषार्थ किया जाना आवश्यक होता है।

दस-पाँच मिनट कुछ पढ़ने सुनने या सोचने, चाहने से ही परिष्कृत मनोभूमि का बन जाना और उसके द्वारा सत्कर्मों का प्रवाह बहने लगना कठिन है। इसलिये क्रम-बद्ध योजनाबद्ध, दीर्घकालीन और सुस्थिर प्रयत्न करना होता है। फैलाया हुआ पानी नीचे की ओर आसानी से बिना प्रयत्न के बहने लगता है। पर यदि उसे ऊपर पहुँचाना हो तो इसके लिए कई उपकरण जुटाने की व्यवस्था की जाती है। बिना विशेष प्रयत्नों के पानी ऊपर नहीं चढ़ सकता है। इसी प्रकार स्वल्प प्रयत्नों से मनोभूमि का परिवर्तन भी संभव नहीं और बिना आन्तरिक परिवर्तन के बाह्य जीवन में श्रेष्ठता की स्थापना हो ही कैसे सकती है?

जैसे विचारों को जितनी तीव्रता और निष्ठा के साथ जितनी अधिक देर मस्तिष्क में निवास करने का अवसर मिलता है वैसे ही प्रभाव की मनोभूमि में प्रबलता होती चलती है। देर तक स्वार्थपूर्ण विचार मन में रहें और थोड़ी देर सद्विचारों के लिये अवसर मिले तो वह अधिक देर रहने वाला प्रभाव कम समय वाले प्रभाव को परास्त कर देगा। इसलिये उत्कृष्ट जीवन की वास्तविक आकाँक्षा करने वाले के लिये एक ही मार्ग रह जाता है कि मन में अधिक समय तक अधिक प्रौढ़ अधिक प्रेरणाप्रद उत्कृष्ट कोटि के विचारों को स्थान मिले।

जिसका बहुमत होता है उसकी जीत होती है। बहती गंगा में यदि थोड़ा मैला पानी पड़ जाय तो उसकी गन्दगी प्रभावशाली न होगी, पर यदि गन्दे नाले में थोड़ा गंगाजल डाला जाय तो उसे पवित्र न बनाया जा सकेगा। इसी प्रकार यदि मन में अधिक समय तक बुरे विचार भरे रहेंगे तो थोड़ी देर, थोड़े से अच्छे विचारों को स्थान देने से भी कितना काम चलेगा? उचित यही है कि हमारा अधिकाँश समय इस प्रकार बीते जिससे उच्च भावनाएँ ही मनोभूमि में विचरण करती रहें।

संसार में बुराई इसलिए फैली है कि लोगों के मन में बुरे विचारों का बाहुल्य रहता है। चोर, डाकू, जुआरी, व्यभिचारी, व्यसनी अपने विचारों के पक्के होते हैं। जो उन्हें ठीक जाँच गया है उसी इच्छा की पूर्ति के लिए निरन्तर प्रयत्न करते हैं। निष्ठा के अनुरूप काम करने से भावान्तर में परिपक्वता आती है और उस परिपक्वता में दूसरों को प्रभावित करने की क्षमता भरी रहती है।


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