मनोयोगपूर्वक श्रम।

April 1963

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वोपदेव का मन पढ़ने में नहीं लगता था, उसकी स्मरण शक्ति अच्छी न था। पाठशाला में अध्यापकों और सहपाठियों का उन्हें उपहास सहना पड़ता था। घर पर भी इसी कारण प्रताड़ना होती थी। बच्चा निराश हो चला। उसने सोचा पढ़ने से क्या लाभ? कोई दूसरा काम करेंगे।

पाठशाला छोड़कर वोपदेव निकल पड़ा। इधर उधर भटकते-भटकते बहुत दिन हो गये। एक दिन वह ग्राम के निकट कुएं के किनारे बैठा अपनी दुरवस्था पर विचार करने लगा। अपनी समस्या का हल ढूँढ़ने लगा।

सोचते समय उसकी निगाह सामने वाले पत्थर पर गई। पानी सींचते समय रस्सी की जो घिसट पड़ती थी उससे पत्थर पर गहरी लकीरें बन गई थीं। वोपदेव सोचने लगा इतना कठोर पत्थर यदि कोमल रस्सी की बार-बार रगड़ पड़ने पर घिस सकता है तो मेरी मोटी बुद्धि निरन्तर प्रयत्न और अभ्यास करने से विद्याध्ययन के योग्य क्यों नहीं बन सकती?

बालक ने अपना साहस बटोरा और पुनः पाठशाला में जा पहुँचा। अबकी बार उसने पूरे मन और दूने परिश्रम से पढ़ना आरम्भ कर दिया। प्रयत्न से प्रकृति पर विजय प्राप्त कर ली। मन्दबुद्धि छात्र मेधावी स्नातक बनकर निकला।

महा वैयाकरण वोपदेव को कौन नहीं जानता। आरम्भ में वह महा मन्दबुद्धि था। इस मूढ़मति छात्र ने साहस से पुरुषार्थ से काम लिया तो प्रतिकूलताएँ अनुकूल बन गई। वोपदेव की गाथा हर छात्र के लिये विचारणीय है और अनुकरणीय भी।


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