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April 1963

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दानेन तुल्यो निबिरस्ति नान्यो।

लोभाच्य नान्योस्ति परः पृथिव्याम्॥

विभूषणं शीलसमं न चान्यत्संतोष।

तुल्यं वनमस्ति नान्यतृ ॥

—पंच तंत्र

“दान के समान दूसरी कोई निधि नहीं है, लोभ के समान दूसरा कोई शत्रु नहीं है, शील के समान दूसरा भूषण नहीं है, और संतोष के समान अन्य कोई धन नहीं है।”

रहना (14) एक दूसरे की सुविधा तथा सम्मान का ध्यान रखना, (15) आगन्तुकों के साथ शिष्टाचार बरतना (16) सद्विचारों का पढ़ना सुनना आदि कितनी ही अच्छाइयाँ ऐसी हैं जिनका प्रवेश प्रत्येक परिवार में होना ही चाहिए। घर के वातावरण में जितना प्रेम, सौजन्य रहेगा, श्रम, सादगी और भावनात्मक उत्साह को स्थान मिलेगा उतना ही वहाँ उत्कर्ष एवं उल्लास दृष्टि-गोचर होने लगेगा।

इस रचनात्मक सुधार कार्यों के लिए मौखिक प्रदेश ही पर्याप्त न होगा वरन् यह प्रयत्न भी करते रहना पड़ेगा कि घर के अन्य सदस्यों का सहयोग प्राप्त कर इन कार्यक्रमों को व्यवहारिक रूप मिले। सब लोग न सही-आरंभ में थोड़े सदस्य भी इस प्रकार आचरण करने लगें, तो शेष पर भी देर-सवेर में प्रभाव पड़ेगा और वे भी इन अच्छाइयों को अपनाने के लिए विवश होंगे।

परिवार को सभ्य, सुशिक्षित, सच्चरित्र एवं विवेकशील बनाने के लिए प्रयत्न करना प्रत्येक विचारवान् मनुष्य का आवश्यक धर्म कर्तव्य है। उसे पूरा करने से हम अपना उत्तरदायित्व पूरा करते हैं, समाज को सुसंस्कृत बनाने में भारी योगदान देते हैं और अपने बगीचे के सुविकसित होने से स्वयं भी लाभान्वित होते हैं। युग-निर्माण के लिए परिवार-निर्माण आवश्यक है। इसके लिए हमें ध्यान भी देना चाहिए और समय भी।


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