मंदिर के जिस प्रकोष्ठ में भगवान सुब्रह्ण्यम की मूर्ति थी, उसी के सामने वाले भाग में एक सुँदर वीणा रखी हुई थी। मंदिर में कई लोग तो वीणा के दर्शन कर लेते और चले जाते। कुछ उसे बजाने की इच्छा करते, पर वहाँ बैठा हुआ मंदिर का रक्षक उनसे मना करता और वे वहाँ से चल देते। इस प्रकार सुँदर स्वरों वाली वह वीणा जहाँ थी, वही रखी रहती थी उसका कभी कोई उपयोग न होता था।
एक दिन एक व्यक्ति आया, उसने वीणा बजाने की इच्छा व्यक्त की, पर उस व्यक्ति ने उसे भी मनाकर दिया। वह व्यक्ति वहाँ चुपचाप खड़ा रहा। थोड़ी देर में सब लोग मंदिर से निकलकर बाहर चले गए, तो उस व्यक्ति ने वीणा उठा ली और उसका लयपूर्वक वादन करने लगा। वीणा का मधुर स्वर लोगों के कानों तक पहुँचा, तो लोग पीछे लौटने लगे और उस मधुर संगीत का रसास्वादन करने लगे। वाद्य घंटों चला और लोग मंत्रमुग्ध सुनते रहे। जब वह बंद हुआ तब भी लोग ईश्वरीय आनंद की अनुभूति करते रहे। लोगों ने कहा आज वीणा सार्थक हो गई।
भावार्थ यह है कि भगवान काया तो सबको देता है, पर कुछ लोग अज्ञानवश व कुछ अभिमानवश इस वीणा रूपी यंत्र का सदुपयोग नहीं कर पाते। यदि इन दो दोषों से दूर रहकर कोई शरीररूपी वीणा से मधुर लहरियाँ निकाले, तो उस आनंद से न केवल वह वरन् संपर्क के सैकड़ों लोग उसमें ईश्वरीय आनंद की झलक पाते हैं।