कालखंडों में भ्रमण करें, भूत को जानें

April 2001

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हवा जब तक गेंद में भरी रहती है, तब तक उसे विस्तृत और विशाल वायुमंडल से एकाकार होने का मौका नहीं मिलता, किंतु उसके ऊपर के मोटे आवरण को ढीला करते ही वह बाह्य वायु से मिलकर अधिक व्यापक और विराट् हो जाती है। मनुष्य के साथ भी यही बात है। वह जब तक स्थूलता में जीता है, हाड़ माँस का पुतला भर बना रहता है, पर जैसे -जैसे यह बंधन ढीला होता जाता है, वैसे ही वैसे उसकी सूक्ष्मता बढ़ती है और अंततः वह स्थिति पैदा होती है, जहाँ उसकी सूक्ष्म सत्ता सूक्ष्म जगत् में प्रवेश कर नवीन जानकारियाँ अर्जित करने लगे। यही वह अवस्था है, जिसमें समय से पीछे चलकर विगत का ज्ञान प्राप्त कर सकना संभव होता है।

यों तो समय के तीन कालखंडों में से मनुष्य सामान्य स्थिति में केवल वर्तमान में जीता है, भूत और भविष्य उसके लिए अविज्ञात स्तर के रहस्य जैसे बने रहते हैं। इतने पर भी सच यह है कि वह एक साथ इन तीनों में जीता है या दूसरे शब्दों में कहे, तो वर्तमान शेष दोनों को अपने में सँजोए रहता है। अंतर मात्र इतना है कि विगत और अनागत के सूक्ष्म भूमिकाओं में होने के कारण मनुष्य उन्हें वर्तमान की तरह ग्रहण नहीं कर पाता; किंतु इतने से ही सत्य बदल नहीं सकता। शब्द और ध्वनि उच्चारण के बाद विलुप्त होते प्रतीत होते हैं। ऐसा लगता है कि उनका अस्तित्व समाप्त हो गया; पर विज्ञान के विद्यार्थियों को यह भलीभाँति मालूम है कि उनका नाश नहीं होता। सिर्फ अपनी स्थूलता और अभिव्यक्ति खोकर अव्यक्त स्थिति में चले जाते हैं। काया मरती है; पर आत्मवेत्ता जानते हैं कि जीवन एक सतत प्रवाह है। वह मरता कहाँ है! अग्नि जलती है, फिर भी उसकी ऊर्जा अक्षुण्ण बनी रहती हैं। घटनाओं के संदर्भ में भी यही बात है। वह एक बार अस्तित्व में आने के बाद समाप्त हो जाती है, सो बात नहीं, मात्र व्यक्त से अव्यक्त बनती है।

भौतिक जगत् में समय को घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में देखने का आम प्रचलन हैं। इस आधार पर जो कुछ सामने दृष्टिगोचर होता है, समय के उस भाग को वर्तमान कह दिया जाता है और जो बीत गया उसे ‘भूत’ एवं अनागत वाले हिस्से को ‘भविष्यत’ कहा जाता है। इतने पर भी ‘समय’ न तो केवल भूत है, न भविष्य, न वर्तमान। वह एक संघर्ष इकाई है, जिसमें एक साथ तीनों उपस्थित होते हैं। विज्ञानवेत्ताओं का कहना है कि जब रैखिक समय के मध्य भाग (वर्तमान) को मनुष्य जान सकता है, तो कोई कारण नहीं कि उसके आगे (भविष्य) और पीछे (भूत) वाले हिस्से को वह न ग्रहण कर सके। सिद्धाँत रूप में वैज्ञानिकों ने इसे संभव बताया है और इसके लिए कई उपाय सुझाए हैं।

फ्राँसीसी विज्ञानवेत्ता अपनी पुस्तक ‘इन दि डेड पास्ट’ में आशा व्यक्ति करते हुए लिखते हैं कि आने वाले समय में काल के विगत और अनागत वाले हिस्से में पहुँच पाना न केवल यथार्थ सिद्ध होगा, वरन् वैज्ञानिक विधियों द्वारा लोग उसमें आ जा सकेंगे। विगत में पहुँचने संबंधी एक परिकल्पना का उल्लेख करते हुए लिखते हैं कि चूँकि समय स्थिर है और गति हम सब कर रहे हैं, इसलिए भूत में पहुँचने के लिए यह जानना जरूरी होगा कि विगत की उक्त तिथि में पृथ्वी अंतरिक्ष के किस बिंदु पर स्थित थी। चूँकि वह सूर्य के चारों ओर एक कुँडलाकार पथ में परिभ्रमण कर रही है और संपूर्ण सौर तंत्र स्वयं भी कृतिका नक्षत्र की परिक्रमा कर रहा है, अतः बीते समय के एक निश्चित दिन अपने ग्रह की वास्तविक स्थिति का पता लगा पाना बहुत ही मुश्किल काम होगा। अतएव यह यात्रा भी असंभव स्तर की है या यों कहना चाहिए कि मात्र सैद्धाँतिक है।

इसी प्रकार परिभ्रमणशील ब्रह्मांड में आइंस्टीन के सापेक्षवाद का सिद्धाँत भी भूत भ्रमण की संभाव्यता प्रकट करता है। इसको आधार मानते हुए कुर्ट गोडेल नामक एक आस्ट्रियन विज्ञानविद् एवं तर्कशास्त्री ने तो यहाँ तक कह डाला है कि यदि यह संभव हुआ, तो यात्रा के दौरान हर व्यक्ति अपनी ही युवा अनुकृति से मिल सकेगा।

मूर्द्धन्य भौतिकीविद् जॉन ह्वीलर का ‘वर्महोल सिद्धाँत’ भी इस बात की संभावना दर्शाता है कि यदि दो ब्रह्मांडों को जोड़ने वाली इस सुरंग में से किसी उपयुक्त में प्रवेश कर पाना शक्य हुआ, तो संभव है कि हम कही सुदूर भूत में बाहर निकलें।

किंतु यह सब संभावना मात्र है। संभावना भी ऐसी, जो शायद ही साकार हो सके। ऐसे में विज्ञान लगभग निराश हो चुका था और मानने लगा था कि इस प्रकार की सफलता शायद इस विधा द्वारा संभव नहीं। इसी बीच एक घटना घट गई। 17 अगस्त 1958 को ‘मियार्म’ हेराल्ड’ नामक समाचार पत्र ने एसोसिएटेड प्रेस के हवाले से एक ऐसे प्रयोग का समाचार छापा, जो उन दिनों यूनाइटेड स्टेट्स एयरफोर्स में चल रहा था। विवरण का उल्लेख करते हुए अखबार लिखता है कि एक विशिष्ट प्रकार के अवरक्त (इन्फ्रारेड) कैमरे से एक बार सर्वेक्षण विमान के माध्यम से एक ऐसे भूखंड का चित्र खींचा गया, जो गाड़ियाँ खड़ी करने के काम आता था; पर तस्वीर लेते समय भूमि बिल्कुल खाली थी; वहाँ कोई भी वाहन नहीं था। कुछ घंटे पूर्व जो कारें खड़ी थी। वह सब जा चुकी थी। फोटो जब बन कर आया, तो सब यह देखकर हैरान रह गए कि उसमें असंख्यों मोटरें खड़ी दिखाई पड़ रही थी। इसका अर्थ यह हुआ कि कैमरे ने कुछ घंटे पूर्व के दृश्य को भी अपने अंदर कैद कर लिया था। यही महत्वपूर्ण सूत्र साबित हुआ, जिसका कि बाद में सहारा लिया गया।

इस संपूर्ण प्रसंग का वर्णन एण्ड्र थामस ने अपने चर्चित ग्रंथ ‘बियाँण्ड दि टाइम बेरियरत्त् में विस्तारपूर्वक किया है। उक्त घटना के उपरांत विज्ञानी यह मानने के लिए विवश हो गए कि समय के बीते भाग में इस प्रकार का प्रवेश संभव तो है, पर ऐसा मानसिक धरातल पर ही हो सकता है, शारीरिक स्तर पर नहीं। उनका विचार था कि सामान्य कैमरे से इस प्रकार के चित्र नहीं आने का एक ही मतलब हो सकता है। कि साधारण प्रकाश भूत और वर्तमान के मध्यवर्ती अवरोध को चीरकर भूतकाल के गर्व में प्रवेश पाने की क्षमता नहीं रखता, जो अपेक्षाकृत सूक्ष्म इन्फ्रारेड में विद्यमान है। अतः वह कुछ घंटे पूर्व की घटना का फिल्माँकन करने में सफल होता है। इस सफलता के उपराँत वैज्ञानिक यह जानने का प्रयास करने लगे कि क्या ऐसा सुदूर भूत के दृश्यों और घटनाओं के साथ भी संभव हो सकता है? इस निमित्त उनने भिन्न-भिन्न स्थानों के कई ऐसे चित्र खींचे, जहाँ सदियों पूर्व सुविकसित सभ्यताएँ थीं, पर आज वे बीहड़ों जंगलों और रेगिस्तानों में परिवर्तित हो चुके हैं। तस्वीर जब बनकर सामने आई, तो उसमें वही सारे दृश्य देखे गए, जो तब साकार रूप में वहाँ मौजूद थे अर्थात् चित्रों में झाड़ झंखाड़ के अतिरिक्त कोई ऐसी विलक्षणता नहीं दिखलाई पड़ी, जो इन स्थानों में उस समय दृश्यमान न हो। इससे शोधकर्ताओं ने यह निष्कर्ष निकाला कि समय के साथ-साथ घटनाएँ और दृश्यावलियाँ अपेक्षाकृत अधिक सूक्ष्म स्तरों में प्रवेश करती जाती हैं, फलतः वे विशिष्ट प्रकार के इन्फ्रारेड कैमरों की पकड़ से ही बची रहती हैं। यदि कोई और वेधक सामर्थ्य वाली संभव है, पर विशेषज्ञ अभी ऐसी कोई रोशनी या कैमरा ढूंढ़, पाने में सफल नहीं हो सके हैं। ऐसी स्थिति में भूतकालीन जानकारियाँ उपलब्ध करने के लिए अनुसंधानकर्ता सूक्ष्म चेतना के महत्व से इनकार नहीं करते।

‘टाइम-दि अल्टीमेट एनर्जी’ पुस्तक की विद्वान लेखिका मेरीहोप अपने उक्त ग्रंथ में लिखती हैं कि चूँकि चेतना विश्व का सर्वाधिक सूक्ष्म तत्व है, अतएव वह समय के अवरोध को पार करते हुए किसी भी कालखंड में प्रवेश करने में समर्थ होती है। सुषुप्ति की अवस्था में हर एक के साथ ऐसा इसलिए संभव हो पाता है, क्योंकि इस दशा में चेतना और शरीर के बीच का बंधन ढीला पड़ जाता है, फलतः वह भूत-भविष्य के किसी भी भाग में जाकर स्वप्नों के माध्यम से स्वप्नद्रष्टा को अनागत -विगत की ऐसी सूचनाएं देने लगती है, जिससे वह सर्वथा अनभिज्ञ होता है। कई बार यह जानकारियाँ इतनी स्पष्ट होती है और बार-बार आती हैं कि द्रष्टा भयभीत हो उठता है और किसी अनिष्ट की आशंका से चिंताग्रस्त हो जाता है।

मेरीहोप ने उपर्युक्त पुस्तक में विगत का ज्ञान कराने वाले ऐसे अनेक स्वप्नों का उल्लेख किया है, जिसके बारे में सम्बन्धित व्यक्ति को कोई जानकारी नहीं थी। स्वप्न संकेतों के पश्चात जब सम्बद्ध स्थानों में पहुँचा गया, तभी उनके बार-बार आने का रहस्य समझा जा सका।

इतना स्पष्ट हो जाने के बाद अन्वेषणकर्ता यह तो मानने लगे कि सुषुप्तावस्था में बीते काल की उदरदरी में गति कर पाना संभव है, पर फिर भी वे इस संभावना से इनकार करते रहे कि जाग्रत अवस्था में भी ऐसा कुछ संभाव्य है। इसका कारण वे एक ही बताते रहे कि इस दशा में चेतना काया से इस बुरी तरह आबद्ध रहती है कि दोनों को परस्पर पृथक कर पाना सरल नहीं। जिन दिनों विज्ञान जगत् में इस विषय पर गंभीर चिंतन चल रहे थे, उन्हीं दिनों कुछ विलक्षण घटनाएं घट गई, जिससे वैज्ञानिक इस पर पुनर्विचार के लिए मजबूर हो गए।

घटना स्वीडेन की है। म्यूरेरा परिवार की वहाँ बड़ी जागीर थी। परिवार का मुखिया पेडिगो म्यूरेरा था। जागीर की देखभाल वही करता था। बच्चे उसमें सहायता करते थे पेडिगो को प्रातः भ्रमण का बहुत चाव था, अतः वह भाँति उस दिन भी वह भ्रमण के लिए निकला। आज मौसम अत्यंत सुहावना था। हल्की -फुलकी बूँदा-बाँदी के बाद बहने वाले शीतल पवन के झोंके मन को बरबस किसी अन्य तल में ले जाते थे। ऐसा प्रतीत होता था, मानो चेतना आज अपना सामान्य धरातल खो चुकी हो। उसके अंदर का उल्लास किसी ध्यानी के ब्रह्म साक्षात्कार से उपलब्ध होने वाले आनंद से संप्रति कम न था। वह अपनी धुन में चला जा रहा था, मन की यह उन्मनी अवस्था आज उसे काफी आगे तक ले आई थी, फिर भी वह उस दिव्य मादकता की स्थिति में रुकने का नाम न ले रहा था, बढ़ता ही जा रहा था। अगणित खेत-मैदानों को पार करते हुए वह एक स्वेडिश मुहल्ले के समीप पहुँचा, तो अचानक उसे होश आया, वह कहाँ पहुँच गया! कहीं अन्यत्र तो नहीं? पीछे दृष्टि दौड़ाई, तो पता चला कि वह अपनी जागीर वाले भूभाग में ही है, बस थोड़ा आगे निकल आया है, किंतु यह मुहल्ला तो पहले कभी नहीं देखा! उसका चिंतन तंत्र सक्रिय हो उठा, पर यह सोचकर कि शायद आज की विशिष्ट मनोदशा के कारण ही वह पूर्व में देखे गए दृश्यों को भूल रहा हो, उस पर विशेष ध्यान न दिया। वहाँ एक तालाब था, जिसमें अनेक बतखें और हंस जलक्रीडा कर रहे थे। थोड़ी देर रुककर वह उनकी अठखेलियों को निहारता रहा, फिर आगे बढ़ गया। झोंपड़ियों के बाहर अनेक लोग धूप सेंक रहे थे और परस्पर वार्तालाप में संलग्न थे। उसने उनमें से एक दो से बात करने की कोशिश की, पर सुलह न हो सका। ऐसा लगा, जैसे वे बहरे हों और उसके शब्द उन्हें सुनाई ही न पड़े हों। उनकी पोशाकें प्राचीन युगीन लग रही थीं। उस मुहल्ले का एक चक्कर लगाने के उपराँत पेडिगो वापस लौट आया। घर पहुँचकर उसने उस बस्ती के बारे में लोगों को बताया, पर सब यही कहते रहे कि जागीर के उस भाग में कही कोई बस्ती नहीं है। जब दुबारा पेडिगो उन्हें साथ लेकर वहाँ पहुँचा, तो हैरान रह गया। वहाँ सचमुच बस्ती तो क्या, कोई झोंपड़ी तक न थी, पर वह उसे आँखों का धोखा या भ्रम मानने के लिए कदापि तैयार नहीं था।

इस घटना के बाद अनुसंधानकर्ता यह अनुमान लगाने लगे कि क्या जाग्रतावस्था में भी देह का बंधन किसी प्रकार ढीला होने पर चेतना शरीर परिधि से बाहर समय के दूसरे कालखंडों में भी प्रवेश कर सकती है? इस संभावना से उनने सर्वथा इनकार नहीं किया है, पर इसकी कोई सुनिश्चित प्रक्रिया बता पाने में वे अब तक विफल रहे हैं। विज्ञान भले ही इसकी कोई विधा नन बता पाया हो, पर अध्यात्म में इसका सुनिश्चित उपाय है, जिसका यदि निष्ठापूर्वक परिपालन किया गया, तो इस पथ का कोई भी पथिक इस विभूति को करतलगत कर भूत-भविष्य के अविज्ञात हिस्सों में प्रवेश पर सकता है। उदात्त चरित्र, उत्कृष्ट चिंतन और शालीन व्यवहार के मूलभूत अनुबंध को जिसने पूरा कर लिया, उसके लिए समय के अवरोध को पार कर सकना कठिन नहीं, ऐसा तत्ववेत्ताओं का सुनिश्चित मत है।


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