स्मृति का रसायनशास्त्र

April 2001

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स्मरण शक्ति की कमी की शिकायत वृद्ध ही नहीं, युवा व्यक्ति भी करते पाए जाते हैं। इस कमी से वे परीक्षा में उत्तीर्ण होने से लेकर व्यावसायिक तथा दैनिक कामकाजों में बड़ी अड़चन अनुभव करते हैं। बहुधा इसे कोई रोग मान लिया जाता है और उसके निवारण के लिए तरह-तरह के औषधि उपचारों तथा पुष्टाई सेवन का सिलसिला चलता है।

उपचार करने से पूर्व विस्मृति का कारण जानने की आवश्यकता है, साथ ही यह समझना भी उपयोगी है कि मस्तिष्क में स्मृति को संग्रह करने वाली, सुरक्षित रखने वाली संरचना कैसी है? मोटर की मशीन और उसके चलाने की विधि ठीक तरह समझ ली जाए, तो उसके संचालन में जो व्यवधान आते हैं, उनमें से अधिकांश का निवारण सहज ही हो जाता है।

स्मरण शक्ति प्रायः अपने स्थान पर यथावत् रहती है। बचपन के प्रारंभिक और वृद्धावस्था के अंतिम दिनों को छोड़कर शेष प्रौढ़-परिपक्वावस्था में स्मृति का स्तर प्रायः समान ही रहता है। स्मरण रखने की प्रक्रिया में अंतर पड़ जाने से हमें उसकी मात्रा घट-बढ़ जाने का भ्रम होने लगता है। यदि स्मरण रखने की पद्धति का ज्ञान हो और स्मरण तंत्र की संरचना ध्यान में रखते हुए तदनुरूप घटनाओं को स्मरण रखने की विधि-व्यवस्था बना ली जाए, तो फिर स्मृति संबंधी उतनी शिकायत न रहे जैसी आमतौर से रहती हैं। यों हर मनुष्य में दूसरों की अपेक्षा कुछ-न-कुछ तो न्यूनाधिकता हर बात में रहती ही है।

समझा जाता है कि बचपन में स्मरण शक्ति तीव्र होती है और पीछे आयु बढ़ने के साथ-साथ मंद होती जाती हैं, पर वस्तुतः बात ऐसी है नहीं। छोटी आयु में मस्तिष्क के ऊपर बोझ कम रहता है और जो सोचना, याद रखना हैं, वह आसानी से निपट जाता है, किंतु बड़े होने के साथ-साथ कार्यक्षेत्र बढ़ता जाता है, साथ ही स्मरण रखने, निष्कर्ष निकालने, निर्णय करने का भार भी। ऐसी दशा में बहुत काम करते रहने पर भी कुछ में अधूरापन रह जाना अप्रत्याशित नहीं। जो कुछ सही रीति से पूरा हो गया, उसकी ओर तो ध्यान दिया नहीं गया, पर जो कमी रह गई, उसी को मस्तिष्क की कमजोरी या स्मरण शक्ति की कमी मान लिया गया। ऐसे ही प्रसंगों को लेकर दिमागी शक्ति घट जाने की बात सोच ली जाती है और चिंता होने लगती हैं, जबकि वस्तुतः वैसा कुछ होता नहीं।

विस्मृति का बहुत बड़ा कारण हैं, उपेक्षा। जिस वस्तु, बात या संदर्भ में अन्यमनस्कता होती हैं, वहाँ उथला ध्यान दिया जाता है और स्मृति की परतों पर अंकन बहुत ही हलका-धुँधला हो पाता है। उसके मिटने में देर नहीं लगती। इसके विपरीत जिन प्रसंगों में अपनी दिलचस्पी होती हैं, उन्हें ध्यानपूर्वक सुना, देखा और समझा जाता है, फलतः उनके मानस चित्र अधिक स्पष्ट बनते हैं और स्मृतिपटल पर उसका अंकन इतना गहरा हो जाता है कि आवश्यकतानुसार उसे फिर पूर्ववत् देखा जा सकें। यों समय बीतने के साथ-साथ सभी स्मृतियाँ धुँधली पड़ती जाती हैं, फिर भी जिन्हें मनोयोगपूर्वक अपनाया गया हैं, उसकी रेखाएं अमिट न सही, चिरस्थायी तो बनी ही रहती हैं।

विद्यार्थियों को पाठ याद न होने की अक्सर शिकायत रहती हैं, पर वे ही किसी देखी फिल्म का पूरा कथानक भलीप्रकार सुना देते हैं और साथ ही उसके गीत भी याद रखते हैं। दादी अपनी पोती का नाम बार-बार भूल जाती हैं, पर अपने पति या ससुर की श्राद्ध तिथि नहीं भूलती। व्रत-उपवास की तिथियाँ भी विस्मरण नहीं होती। सामान्य प्रसंगों में तारीखें याद नहीं रहतीं, पर वेतन पाने की तारीखें भूलने में कदाचित् ही किसी से कभी भूल होती होगी। भुलक्कड़पन वस्तुतः कोई रोग नहीं, वरन् आदत हैं, जो दिलचस्पी की कमी वाले क्षेत्रों को ही प्रभावित करती हैं।

भगवान् ने स्मृति की ही तरह विस्मृति को भी एक वरदान की तरह सृजा है। उपयोगी बाते याद रखें और आवश्यकता के समय सहायक बनें, यह उत्तम है। इसी प्रकार यह भी ठीक है कि द्वेष-दुर्भाव और शोक-संताप की कटु स्मृतियाँ धुंधली होते-होते विस्मरण स्तर तक जा पहुँचें। क्रोध, हानि, वियोग आदि की स्थिति में मन जितना उद्विग्न होता है, यदि उतना ही संताप बना रहे, तो जीवन कठिन हो जाए। मस्तिष्क में करोड़ ग्रंथों के समा सकने जितना स्मृति क्षेत्र हैं, पर क्षण-क्षण में जो विविध जानकारियाँ मस्तिष्क को मिलती रहती हैं, उनका विस्तार तो स्मृति क्षेत्र की तुलना में बहुत अधिक है। ऐसी दशा में पुरानों को हटाकर ही नयों को जगह मिल सकती है। रेलगाड़ी के मुसाफिरखानों में बैठे यात्री यदि वहाँ जम बैठें, तो नए आगंतुकों को जगह कहाँ मिलेगी?

स्मृति और मस्तिष्क का तारतम्य समझने के लिए हमें यह भी जानना चाहिए कि ज्ञानेंद्रिय की सहायता से मस्तिष्क को अनेकों प्रकार की जानकारियाँ हर घड़ी प्राप्त होती रहती हैं। इसमें अधिकांश वे होती हैं, जो स्थिति का परिचय देकर अपना काम समाप्त कर देती हैं। उस जानकारी का यदि कुछ सीधा प्रभाव अपने ऊपर नहीं पड़ता है और उसकी कुछ प्रतिक्रिया नहीं होती हैं, तो वे विस्मृति की, रद्दी की टोकरी में जा पड़ती हैं और सदा के लिए समाप्त हो जाती हैं। कुछ जानकारियाँ ऐसी हैं, जिनसे निपटना हैं, तो शरीर के अन्य कल-पुर्जों को वैसा आदेश मिलता है और तदानुसार हलचल होती हैं, जैसे पैर में मच्छर काटे, तो मस्तिष्क उसके निवारण के लिए हाथ को आज्ञा देता है और वह तत्काल उस स्थान पर पहुँचकर मच्छर पर आक्रमण करता है। ऐसी जानकारियाँ जली हुई दियासलाई की तरह अपना सामयिक प्रयोजन पूरा करके विस्मृति के गर्त में चली जाती हैं। संग्रह तो थोड़ी-सी ही की जा सकती हैं। मस्तिष्क में इतनी जगह नहीं है कि हर घड़ी इंद्रियों की सहायता से जो ज्ञान प्राप्त होता है, उनमें से सभी को अर्जित किया जा सके, तो भी जो महत्वपूर्ण हैं, उसे सुरक्षित रखे जाने की इस छोटे किंतु सुविस्तृत भंडार में पर्याप्त जगह हैं।

मस्तिष्क विज्ञानी स्मरण शक्ति का आधार उस विद्युत् धारा को मानते हैं, जो संवादवाहिनी तंत्रिकाओं में गतिशील रहती हैं। न केवल स्मृतियों का अंकन और पुनर्जागरण, वरन् मस्तिष्कीय संरचना को अपना काम ठीक तरह करने योग्य बनाए रहने में भी इसी विद्युत् धारा की प्रधान भूमिका रहती है। विज्ञान के छात्र आवर्तनशील विद्युत् रिवर्वरेटिंग सर्किट की क्रिया-प्रक्रिया से परिचित होते हैं। नाड़ियों में रक्त परिभ्रमण की तरह कुछ विद्युत् धारा भी अपने कार्यक्षेत्र में गतिशील रहती हैं। इस गतिचक्र में कितना विद्युत् आवेश और परिभ्रमण की तरह कुछ विद्युत् धारा भी अपने कार्यक्षेत्र में गतिशील रहती हैं। इस गतिचक्र में कितना विद्युत् आवेश और परिभ्रमण में कितनी गतिशीलता है, इन दोनों बातों पर यह निर्भर हैं कि स्मृतियों का स्थापन कितने समय तक और किस सीमा तक बना रहेगा। यह विद्युत् स्वसंचालित और स्वनिर्मित होती है। मस्तिष्कीय तंत्रिकाओं की संरचना में सोडियम और पोटेशियम के आयन काम करते हैं। उनमें उथल-पुथल शरीर के अन्य अवयवों की भाँति होती रहती हैं। उसी सहज हलचल से मस्तिष्कीय विद्युत् धारा उत्पन्न होती और अपना काम करती है। यह झीनी तो होती जाती हैं, पर पूर्णतया अंत उसका तब तक नहीं होता, जब तक कि जीवसत्ता का ही पूरी तरह अंत न हो जाए।

मस्तिष्क या शारीरिक अवयव माना जाता रहा हैं, पर जीव चेतना का केंद्र संस्थान यही है। जड़ और चेतन का संगम इसी को माना जाता है। शरीर न रहने पर भी मस्तिष्क का सार तत्व जीव चेतना के साथ लिपटा रहता है। मरणोत्तर काल में भी उसकी सत्ता बनी रहती है। ऐसा कहा जाता है कि भूत-प्रेतों को परित्यक्त शरीर के साथ संबंधित घटनाएँ स्मरण बनी रहती है और वे उस भूत चिंतन के आधार पर ही अपना समय गुजारते हैं। वर्तमान और भविष्य के लिए उपर्युक्त साधन उनके पास उस स्थिति में नहीं होते, अस्तु भूतकालीन स्मृतियों का दबाव ही उन पर छाया रहता है। संभवतः मृतात्माओं का नामकरण ‘भूत’ इसी आधार पर किया गया हो। पुनर्जन्म में कइयों को कितनी ही घटनाएँ पिछले जीवन की याद रहती हैं और ऐसे कथन बहुत बार आश्चर्यजनक रीति से सत्य पाए जाते हैं। इतना तो हर किसी के साथ होता है कि भूतकाल के अनुभव एवं संस्कार जन्म-जन्माँतरों तक चले जाते हैं। जन्मजात विशेषताओं को ऐसा परिचय भी बहुत परिस्थितियों के साथ कुछ भी तालमेल नहीं बैठता। पूर्व जन्मों की संग्रहीत पूँजी मस्तिष्क के बही-खाते में जमा रहती हैं और अपने अस्तित्व के प्रभाव का परिचय नए जन्म में भी देती रहती हैं।

ईंधन न मिलने पर चूल्हा ठंडा पड़ जाता है। मस्तिष्कीय कोशिकाओं को भी अपना काम सही रीति से करते रहने के लिए ऑक्सीजन का ईंधन चाहिए। बचपन में नई मशीन इस ईंधन को पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध और वितरित करती है। तब मस्तिष्क को भी यह खुराक पर्याप्त मात्रा में मिलती है और बच्चों की स्मरण शक्ति तीव्र रहती है। वे अपने पाठ आसानी से याद कर लेते हैं। जैसे-जैसे आयु बढ़ती हैं, वैसे-वैसे कोमलता घटती है और कठोरता बढ़ती हैं, फलतः ऑक्सीजन का उत्पादन-वितरण घटता जाता है। अवयवों में जो कोमलता बचपन अथवा किशोरावस्था में होती हैं, वह आयु बढ़ने के साथ घटती जाती हैं। ऑक्सीजन प्रवाह के मस्तिष्कीय कोषाओं तक पूरी तरह पहुँचने में भी व्यवधान उत्पन्न होता है, फलतः उम्र के साथ-साथ स्मरण शक्ति घटती चली जाती है। बुद्धिमत्ता समस्त स्मृतियों के मंथन को निष्कर्ष हैं। उसकी मात्रा तो बढ़ती हैं, पर स्मरण शक्ति के संदर्भ में बच्चों की स्थिति की अपेक्षा बड़ी आयुष्य वाले कमजोर ही पड़ते हैं। वृद्धावस्था में रक्त-वाहिनियाँ कठोर पड़ जाती हैं और रक्त-संचार उतनी अच्छी तरह नहीं हो पाता, फलतः मस्तिष्कीय कोशाएं पर्याप्त मात्रा में ऑक्सीजन न मिलने के कारण दुर्बल होती जाती हैं। अतः बूढ़े लोगों की स्मृति दिन-दिन क्षीण होती जाती है। प्रायः वे अपने दैनिक उपयोग की वस्तुएँ तक जहाँ-तहाँ भूलने लगते हैं। परिचितों के नाम तक याद नहीं रहते।

इतने पर भी देखा गया हैं कि बूढ़ों को भी अपने बचपन या युवावस्था की वे स्मृतियाँ बिल्कुल तरोताजा रहती हैं, जिन्हें वे महत्वपूर्ण समझते रहते हैं। देखा गया है कि वे अपनी इन स्मृतियों को आए दिन किसी-न-किसी को सुनाते रहते हैं। उन्हें वह सब कुछ इस प्रकार याद रहता है, मानो अभी कल-परसों की बात हो। ऐसा इसलिए भी होता है कि नई स्मृतियाँ समुचित ऑक्सीजन के अभाव में न तो मस्तिष्कीय कोषाओं पर पूरी तरह अंकित हो पाती हैं और न उनमें स्थायित्व होता है। ऐसी दशा में नई स्मृतियों की भीड़-भाड़ रहती नहीं और वे पुरानी अनुभूतियाँ निर्द्वंद्व होकर पूरे मस्तिष्क पर छाई रहती हैं।

मस्तिष्कीय गतिविधियों की प्रत्यक्ष जानकारी को देखते हुए उसे किसी अलौकिक कलाकार की अद्भुत संरचना कहा जा सकता है। वैसा कुछ बना सकने की बात सोचने का साहस ही कौन करेगा। अभी तो उसकी गतिविधियों को समझ सकने में ही बुद्धि हतप्रभ रह जाती है। अनुमान है कि विदित मस्तिष्कीय गतिविधियाँ बहुत स्वल्प हैं। समूची मानसिक क्षमताओं का प्रायः सात प्रतिशत ही क्रियाशील पाया जाता है। शेष तो अभी अविदित-अर्द्धमूर्च्छित स्थिति में ही सीलबंद स्टोर की तरह सुरक्षित पड़ी हैं। जो क्रियाशील हैं, वे उस प्रयोजन में काम आती हैं, जिसमें सामान्य जीवन की निर्वाह व्यवस्था का संचालन होता है। निर्वाह प्रयोजन तो समग्र जीव सत्ता का एक छोटा-सा अंश हैं। इसके अतिरिक्त भी बहुत कुछ सोचने और करने को बच जाता है। कभी किसी को उस अविज्ञात को जानने की, निष्क्रिय को क्रियाशील बनाने की और प्रसुप्त को जाग्रत् करने की आवश्यकता पड़ें, तो उसे इन सीलबंद स्टोरों को खोलना पड़ेगा, जो अपने भीतर बढ़ी-चढ़ी दिव्य क्षमताएँ छिपाए हुए हैं। उच्च अध्यात्म प्रयोजनों के लिए इन्हीं कोष्ठकों को खोलने और उनसे उपलब्ध क्षमता को असाधारण कार्यों में लगाने का प्रयत्न योगी तपस्वियों द्वारा किया जाता है।

स्मृति-विस्मृति की चर्चा करने की अपेक्षा जागृति और सुषुप्ति के आधार पर विवेचन करना अधिक युक्तियुक्त है। असावधानी, उपेक्षा और अनुत्साह की मनः स्थिति रहेगी, तो विस्मृति की शिकायत बनी ही रहेगी। जहाँ ऐसी कठिनाई अनुभव होती हो, वहाँ मानसिक पोषण देने वाले आहार का परामर्श देना कोई विसंगति नहीं हैं, पर अधिक उपयुक्त यह है कि चिंतन तंत्र पर छाई हुई शिथिलता को दूर किया जाए। इसके लिए ध्यान-धारणा के सभी उपचार न्यूनाधिक मात्रा में लाभदायक ही सिद्ध होते हैं। उपासना में ध्यान-धारणा पर जोर देने के अनेक शारीरिक-अध्यात्मिक लाभों के अतिरिक्त एक अतिरिक्त लाभ यह भी हैं कि उसे करते रहने पर विस्मृति की शिकायत पनपने नहीं पाती।


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