प्रकाँड विद्वता और अनुपम शास्त्रीय ज्ञान के कारण अनमीषि को ‘अक्षर महर्षि’ कहा जाता था। वे आश्रम में ब्रह्मचारियों का शिक्षण करते और अपने ज्ञान का निरंतर दान करते रहते। उनके आश्रम के लिए नागरिक अन्नादि की व्यवस्था जुटा देते थे।
एक दिन अनमीषि के आश्रम में एक संत का आगमन हुआ। संत ने प्रार्थना की, हमें कुछ अन्नदान दें, जिससे निर्धनों- भूखों के लिए सदावर्त चलाए जा सकें। ब्रह्मर्षि ने कहा, श्रीमान! मेरे पास ज्ञानधन है, उसका ही दान करता हूँ। अनाज तो सीमित ही है, उसका दान मैं कैसे करूं?
संत ने कहा, ऋषिवर! ज्ञान का दान तो श्रेष्ठ कर्म है ही, पर व्यक्ति के पास इसके अलावा भी अन्न एवं श्रम आदि के रूप में कुछ धन रहता है, परंतु अन्न भी तो आपके द्वारा उपार्जित धन ही है। उसका भी एक अंश लोकमंगल के लिए समर्पित होना ही चाहिए। मात्र अपने निहितार्थ उपयोग करने वाले को स्वार्थी की संज्ञा दी गई है। विद्वान ऋषि को यह शास्त्रोक्त कथन उचित और उपयुक्त लगा। विनयपूर्वक उन्होंने संत से क्षमा माँगी और कहा, मैं आपके इस उपदेश को जीवन में उतारुँगा।
जीवन सहचरी से महर्षि ने मंत्रणा की। उस धर्म परायण ने सहर्ष स्वीकृति दे दी। महर्षि दंपत्ति नित्य किसी क्षुधा पीड़ित का भोजन कराकर ही अन्न जल ग्रहण करते। यह उनका नित्य नियम बन गया और उन्हें यह करते हुए असीम आनंद मिलता था।
लंबे समय बाद एक दिन ऐसा हुआ कि कोई भी आश्रम के द्वार पर नहीं आया। प्रतीक्षा में दिन ढल चला। ऋषि दंपत्ति को लगा कि आज यह क्रम भंग हो जाएगा। निरंतर एवं अनवरत चल रहे इस क्रम के भंग होने की आशंका से वे अत्यंत व्यग्र हो उठें। किसी सत्पात्र की खोज में ऋषि दंपत्ति आश्रम के बाहर निकल पड़े। कुछ दूर जाने पर उन्होंने एक वृक्ष के नीचे एक वृद्ध कुष्ठ रोगी को पीड़ा से कराहते हुए लेटे देख। उसके शरीर में जगह-जगह घाव थे। घाव से खून रिस रहा था और उस पर मक्खियाँ भिनभिना रही थी। बड़ा ही वीभत्स दृश्य था। इसे देख ऋषि करुणा से भर उठे। वे तत्क्षण वृद्ध के पास पहुँचे और उसे अपने आश्रम में भोजन कराने एवं सेवा सुश्रूषा हेतु ले चलने का अनुरोध किया।
पीड़ा भरे स्वर में वृद्ध ने कहा, आर्यश्रेष्ठ! मैं चाँडाल हूँ। आश्रम में कैसे जाऊँ? आप करुणामूर्ति है। प्रभु आपका मंगल करें। आप कुछ बची-खुची सामग्री यही भेज दें, तो मैं उसे खाकर तृप्त हो जाऊँ।
ऋषि दयार्द्र हो उठे। उनकी कोमल भावना नेत्र से अश्रुधार बन बहने लगी। उन्होंने विनम्र एवं दृढ़ शब्दों में कहा, तात! हम ऐसी मिथ्या मर्यादाएँ नहीं मानते, जो मानवी स्नेह सौजन्य में बाधा पहुँचाती हैं। हम सभी एक ही परमात्मा के अंश हैं। हममें और आपमें कोई भेद नहीं। आप कृपा कर आश्रम चलें व हमें सेवा का अवसर दें।
महर्षि दंपत्ति के आग्रह को टाल पाना वृद्ध के वश में नहीं था। वे दोनों उसे आश्रम ले गए। उसके हाथ-पैर धुलाए और प्राथमिक उपचार किया तथा भोजन कराकर अपना व्रत पूर्ण किया।
रात की गहरी निद्रा में निमग्न महर्षि को लगा कि प्रभु उनसे स्नेह कर रहे हैं, “अनमीषि! यही है सच्चा सेवा धर्म। इसी को अपनाने से आत्मा की प्राप्ति तथा ब्रह्म का साक्षात्कार होता है।” प्रातः जगने पर ऋषि को अनुभव हुआ कि उनके और उनकी धर्मपत्नी के मुखमंडल पर ब्रह्मतेज झलक रहा है, गहरी तृप्ति, आँतरिक आह्लाद एवं प्रसन्नता के भाव छाए हैं।