गुजरात के भूकंप की एक आँखों देखी रपट

April 2001

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इस सहस्राब्दी का प्रथम गणतंत्र दिवस। नई दिल्ली में राजपथ पर भारत के इक्कीसवीं सदी के सैन्यशक्ति संपन्न भारत के दर्शन को हजारों आँखें प्रत्यक्ष व लाखों-करोड़ों नजरें टेलीविजन पर लगी थीं। कुछ ही अवधि बाकी थीं, जब राष्ट्रपति को राजपथ की परेड का सैल्यूट लेना था। यह सब कुछ हुआ, पर तबाही के उस ताँडव के बाद, जो प्रातः आठ-पचास की वेला में अब तक के सबसे भयावह भूकंप के रूप में घट गया। राष्ट्र का सबसे संपन्न कहा जाने वाला व्यवसायिक दृष्टि से संपन्न राज्य गुजरात कुछ ही क्षणों में मौत व तबाही के नजारे में बदल गया।

तबाही का मंजर

गणतंत्र दिवस न होता तो अनुमानतः सरकारी आंकड़ों के अनुसार तीस हजार एवं जनसामान्य के आकलन के अनुसार प्रायः एक लाख मौतों का अनुपात कई गुना होता, ऐसा कइयों का मत है। कई लोग इसलिए बच गए कि वे घरों में न होकर खुले मैदानों में थे, अपने नौनिहालों के साथ मौजूद थे। छुट्टी का दिन था, कई लोग इस कारण काल कवलित हो गए कि वे बिस्तरों में थे एवं टेलीविजन पर परेड देखने के बाद तरोताजा होना चाहते थे। अजार के एक स्कूल की चार सौ बच्चों की एक रैली गणतंत्र दिवस के उपलक्ष्य में एक सँकरी गली से निकल रही थी, जय-जयकार के नारे लगा रही थी, पर भूकंप ने हिलती भवन की दीवारों को उन पर ढहा दिया। अधिकांश अकाल मृत्यु को प्राप्त हो गए। कुछ ही बच गए। छुट्टी के दिन विशेष रूप से आयोजित एक परीक्षा में अहमदाबाद मणीनगर के एक विद्यालय में भाग ले रहे बच्चों में से एक बहुत बड़ा हिस्सा स्कूल भवन के धराशायी होने से यौवन में पैर रखने से पूर्व ही धरती से चला गया। क्या कहा जाए? कुछ समझ में नहीं आता। गणतंत्र दिवस ने बचाया भी, मारा भी।

मलबों में दबी सिसकियाँ

अंदर से आवाज आ रही “हो अमने बचावो” “अरे कोई बचावो” एवं बड़ी-बड़ी मलबा हटाने वाली मशीनें लगी हों, तब भी बचावकर्मी कुछ न पा रहे हों तो क्या करें? मलबा बेहद सावधानी और सतर्कता से हटाया जाना था, क्योंकि भीतर मौजूद लोग कहाँ-किस तरह दबे हैं, यह जानकारी नहीं थी। जैसे-जैसे समय गुजरता गया, भारी सीमेंट-कंक्रीट को तोड़कर स्थान बनाने में वक्त निकल गया, ऐसी आवाजें क्रमशः धीमी होती चली गईं। यह नहीं कि बचाया न गया हो। लोग मलबे में दबे एक घंटे नहीं, चौबीस घंटे नहीं, बारह-पंद्रह दिन बाद तक निकल हैं। कैसे-कैसे भगवान् ने उनको जीवित रखा हैं, ये सब अपने आप में याद रखने योग्य संस्मरण हैं, परंतु यदि ये भारी सीमेंट-कंक्रीट के स्लैब न होते, बहुमंजिली भवनों के ताश के पत्तों के गिरने की तरह ढलने की प्रक्रिया न होती, तो शायद अधिकांश की जान बचाई जा सकती थी।

बचाव कार्यों की तकनीक जो उपयोगी हो सकती थी

मलबे में कैमरे को डालकर जीवित लोगों को देखा जा सकता है। अनावश्यक खुदाई कर कष्ट में फंसे व्यक्ति को और अधिक तकलीफ देकर मारने की जरूरत नहीं। पर अभी संभवतः यह तंत्र हमारे यहाँ विकसित नहीं हो पाया है। सेंसर की मदद से साउंड मशीनों के जरिए मलबे के बड़े क्षेत्र में जीवित लोगों को तलाशा जा सकता है। इसके अलावा इस तरह की आपदा में खोजी कुत्ते बहुत कारगर होते हैं। वे इसके लिए प्रशिक्षित होते हैं और कुछ पता चलने पर ही भौंकते हैं। स्विट्जरलैंड, क्रोएषिया, यूक्रेन, फ्राँस, रूस, इंग्लैंड, स्वीडन आदि देशों में ऐसी तकनीक से संपन्न खोजी कुत्ते लेकर ढेरों टीमें पहुँचीं। उनने काफी जीवित व्यक्तियों को निकाला भी। परंतु जब दल आ जाएं व स्थान विशेष तक बड़ी देर से पहुँचें, केवल शासकीय मशीनरी की काहिली के चलते, तो कोई क्या कर सकता हैं? स्विस एयर का विशेष विमान रेडक्राँस की व डिजेस्टर रिलीफ की टीम लेकर 16 टन उपकरणों के साथ 27 जनवरी की प्रातः मात्र 14 घंटे के अंदर अहमदाबाद पहुँच चुका था। ऐसे और भी दल 28 व 29 जनवरी की शाम तक आ गए थे। यह अलग बात है कि हम उनका पूरा लाभ न ले पाए। मौत कभी किसी की प्रतीक्षा करती है?

देश का अब तक का सबसे बड़ा राहत अभियान

गुजरात की इस त्रासदी ने अंतर्राष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय स्तर पर वायुसेना के विमानों, सेना के बलों तथा शासकीय अधिकारीगणों, विदेशी सहायता दलों, स्वैच्छिक समाजसेवी संगठनों के माध्यम से इस शताब्दी सबसे बड़ा राहत अभियान देखने का अवसर दिया। राहत सामग्री प्रायः हर घर से, हर नागरिक की ओर से सौराष्ट्र व कच्छ पहुँची। चूँकि नाम भुज का था, अतः अधिकांश राहत दल शुरू में वहीं पहुँचे, किंतु धीरे-धीरे वे आस-पास के क्षेत्रों में, गाँवों-ताल्लुकाओं में फैलते चले गए। अखिल विश्व गायत्री परिवार, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, स्वामी सेवक संघ, स्वामी नारायण संप्रदाय, विश्व हिंदू परिषद, स्वाध्याय परिवार सहित सिख-मुसलिम सभी संगठन अपने दल-बल के साथ चौबीस घंटों में पहुँचकर सक्रिय हो गए, तुरंत ही जीवितों को निकालने, उन्हें फर्स्ट एड देने, आर्थोपेडिक स्तर पर कुशलतम सहायता देने का क्रम आरंभ हो गया। सुदूर गाँवों में यह विशेषज्ञ स्तर की मदद देरी से पहुँची, पर स्वैच्छिक संगठनों ने अपनी ओर से कोई कसर न रखी।

सामान्यजन कई बार भूल जाते हैं कि ऐसी तबाही के ताँडव में सरकारी अधिकारी, उनके कार्यालय व परिवार भी चपेट में आ जाते हैं। राहत सामग्री के वितरण में देरी हेतु उन्हें दोष देने का क्रम इस बार नहीं चला, क्योंकि वे स्वयं भी पीड़ितों में से थे। जो भी संगठन जहाँ पहुँचा, कैंप डालकर सबसे पहले तात्कालिक राहत कार्यों में लग गया। शांतिकुंज हरिद्वार का दल भचाऊ पहुँचकर वहाँ के चौराहे पर 26 की शाम को कैंप लगाकर 27-1 की प्रातः वहाँ से नियमित दवाओं, भोजन आदि कही आपूर्ति आरंभ कर चुका था। बाद में स्थान बड़ा होता गया एवं उसने आस-पास के सभी संगठनों के आधार शिविरों को न केवल वाहन उपलब्ध कराए, उन्हें भोजन-पानी भी उपलब्ध कराया एवं एक अस्थाई नगर का निर्माण भी होता चला गया। भुज कलेक्ट्रेट, अंजार गायत्री शक्तिपीठ, भचाऊ नगर (जोकि पूरा विस्मार हो गया था) राजमार्ग से लगा चौराहा तथा मोरबी-मालिया क्षेत्र में चार कैंप 29 जनवरी की शाम से गायत्री परिवार की ओर से आरंभ कर दिए गए थे। विभिन्न संगठन अपनी ओर से विशेषज्ञों, चिकित्सकों, राहत दलों, लाश निकालने वाले स्वयंसेवी कार्यकर्त्ताओं के साथ सक्रिय रहे, यही कारण था कि मृत्यु के आंकड़े जहाँ बढ़ सकते थे, वहाँ सिमटकर रह गए।

बड़ी व्यापक तबाही हुई है कच्छ-सौराष्ट्र में

लगभग 7.9 तीव्रता वाले (पूर्व में 6.9 इसे आँका गया था) इस भूकंप ने अपने केंद्र अमरसर (भुज से बीस किलोमीटर उत्तर-पश्चिम) से तबाही आरंभ कर तीन मिनट में पूरा भुज जिला, राजकोट, जामनगर, मोरबी, सुरेंद्रनगर, भावनगर तक को प्रभावित कर दिया था। अहमदाबाद, सूरत आदि शहरों की तबाही मानवजन्य हैं, पर हुई तो है। सर्वाधिक मौतें भुज में हुईं, उसके बाद अंजार, भचाऊ, रापर और मोरबी शहरों में हुई हैं। दो मंजिल से अधिक के जितने भी भवन थे, भुज शहर व अंजार के पुराने शहर में बिस्मार हो गए। जिले के 55 गाँव लगभग 6 प्रतिशत से अधिक नष्ट हुए हैं। बिजली, पानी, टेलीफोन के अभाव में स्थिति प्रलय की तरह लगती थी। अहमदाबाद, राजकोट, जामनगर, सुरेंद्रनगर जिले एवं सौराष्ट्र के गाँवों में भी काफी जानें गईं। घायलों के आंकड़े भी पचास हजार से ऊपर हैं। प्रसन्न चित्त रहने वाले, जीवट के धनी एवं अपने हस्त शिल्प के लिए विश्वविख्यात भुज-कच्छ क्षेत्र मानों भूतों के एक डेरे में बदल गया। वायुसेना स्टेशन, सिविल अस्पताल व अधिकांश सरकारी दफ्तर धराशायी हो गए। परंतु मानवी पुरुषार्थ ने अस्थाई अस्पतालों का निर्माण कर तंत्र पुनः खड़ा कर दिया। बिजली विभाग ने जहाँ संभव था बिजली की सप्लाई 1 फरवरी तक आरंभ कर दी थी, साथ ही पानी के टैंकर भी स्थान-स्थान पर पहुँच गए थे। शुरू में तो मात्र पानी के पाउचों व बॉटल्स का ही सहारा था, जो सारे देश से बहुसंख्य मात्रा में पहुँच गए थे। एक सबसे अच्छा कार्य यह हुआ कि सड़क विभाग के निर्माण की दक्षता के कारण कहीं भी सड़कें नहीं बैठी एवं सब ओर राहत दल पहुँच सके। दूसरा दूरसंचार की लाइनें बिछा पाना तो संभव नहीं था, किंतु मोबाइल फोन का सेल्युलर नेटवर्क पाँच दिन के अंदर आरंभ हो गया। इससे पारस्परिक तालमेल स्थापित करने में बड़ी मदद मिली।

भय व आतंक चारों ओर

जब धरती काँपने लगी, तो डर के मारे कई लोग ऊँची मंजिलों से कूद पड़े। कुछ शायद बच जाते, पर जान गंवा बैठे एवं कई घायल हो गए, अपने पैर तोड़ बैठे। भूकंप के बाद भी कई दिनों तक ऊर्जा निकलती है। अतः ‘आफ्टर शॉक्स’ आते हैं। इन्हें गुजराती में ‘आँचके’ हिचकोले कहते हैं। ये भी कभी 1 या 2 तीव्रता के, कभी 5 से भी अधिक तीव्रता के होते हैं। कई दिन तक आते रहे इन हिचकोलों (आँचकों) ने भी कइयों को भयभीत कर घर से बार निकालने या कूदने पर मजबूर कर दिया। बच्चों में जहाँ दहशत थी, वहाँ बड़े अपने घरों में रहने को लगभग बीस दिन बाद तक भी तैयार नहीं हो पाए थे। क्या बड़े, क्या छोटे सभी टैंपरेरी टेंट में घर के बाहर सड़क के किनारे निवास करने को तैयार हैं, पर प्रायः जर्जर हो गई छह सौ से अधिक इमारतों में रहने की हिम्मत नहीं हो रही है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार उस भय को सामान्य स्थिति आने में अभी काफी समय लगेगा। सबसे बड़ी चिंता उनकी हैं, जो इस हादसे में एकाकी रह गए हैं। कहीं किसी घर में एक या दो बच्चे रह गए हैं, तो कही एक 8 साल की बूढ़ी अम्मा जिंदा रह गई हैं, मानो प्रकृति भी उनसे मजाक कर रही हो। जो परिवार उजड़ गए हैं, उन्हें मनोवैज्ञानिक आधार देने में काफी समय लगेगा। शवों और घायलों के दृश्य सारे विश्व ने अपने टी.वी. स्क्रीन पर देखे हैं। महाविनाश की झाँकी भी देखी हैं। अभी लाखों लोग उसे नहीं भूल पाएंगे। पत्थर दिल आदमी भी पिघल जाए, ऐसे दृश्य हममें से कइयों ने अपनी आँखों से देखे हैं।

सेना की सराहनीय भूमिका

सेना के जवानों ने प्रारंभिक एक सप्ताह में जिस तरह कार्य को अंजाम दिया है, सराहनीय है। हमेशा की तरह सेना के जवान तुरंत बचाव कार्य में लग गए। मलबों से कई जिंदा लोगों को निकालने, अस्पताल पहुँचाने का श्रेय उन्हीं को जाता है। वायुसेना ने मानो दिल्ली व भुज के बीच, दिल्ली अहमदाबाद के बीच एक पुल बना डाला। बड़े-बड़े फोल्डिंग अस्पताल, जेनरेटर्स, इंजीनियरिंग के उपकरण, खाद्य सामग्री, टेंट्स व दवाइयाँ तुरंत उन्हीं के प्रयासों से पहुँच गईं। यूक्रेन का एक सैनिक अस्पताल शांतिकुंज के बेंस कैंप के पास आकर टिका। उसके जनरल व 6 से अधिक मेडीकल, पैरामेडिकल कार्यकर्ताओं ने सात दिन एक कर भचाऊ क्षेत्र में कैंपिग कर गाँवों से ढूंढ़-ढूंढ़कर लाए गए कई फ्रैक्चर आदि के रोगियों का स्थायी इलाज किया।

अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सहायता

तीन दिन के अंदर बीस देशों ने राहत सामग्री भेजी और लाखों डालर के बराबर सहायता का वादा ही नहीं किया, उसे भेज भी दिया। प्रवासी भारतीय भी पीछे नहीं रहे। सभी ने बढ़-चढ़कर योगदान दिया एवं इसमें उनके साथ कार्य करने वाले अमेरिकन्स, कैनेडियन्स, ब्रिटिश सभी ने साथ दिया है। एक जहाज भर के पीने का पानी एवं फ्रूट जूस जहाँ सउदी अरब भेजता है वहाँ एक वर्ष तक पूरे गुजरात के सभी अस्पताल उपयोग कर सकें, इतनी औषधियाँ पूरे यूरोप के देशों ने मिलकर भेजी है। पाकिस्तान ने कंबलों की पूरी खेप एवं भारी संख्या में टेंट भेजे हैं। वसुधैव कुटुँबकम् का एक साकार स्वरूप-सा दीखता है, इस त्रासदी में।

तात्कालिक के बाद अब स्थायी प्रयास जरूरी

तात्कालिक राहत में जो सबसे विलक्षण पहलू सामने आया है, वह है लोगों का स्वाभिमान-मुसीबतों से जूझकर अपने पैरों पर पुनः खड़ा होने का साहस तथा आवश्यक न होने पर सहायक के लिए मना कर देना। जुझारू कच्छ व सौराष्ट्र के लोगों ने राहत सामग्री के लिए कहीं अव्यवस्था नहीं पैदा की, न ही यह देखने को मिला कि कहीं किसी ने कुछ जमा की है। राहत सामग्री तो इतनी पहुँच गई है कि वर्षभर यदि इसका वितरण सुनियोजित ढंग से हो, तो यह सारे सौराष्ट्र व कच्छ को संकट से उबालकर, दुर्भिक्ष से भी निकालकर पुनः खड़ा कर देगी। पीड़ित नागरिक अपनी जगह सही हैं, पर पुनर्निर्माण हेतु तो वे सरकार का मुँह देखेंगे ही। सरकार भी चाहती है कि मकान पुनः बन जाएँ, मानसून आने से पूर्व ही सबके सिर पर छत हो। पर यह मुमकिन नहीं। जिनके घर जहाँ थे, जिस स्थिति में थे, वे उसी तरह वहीं पर बनाना चाहते हैं। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक यही प्रश्न पेचीदा बना हुआ था कि पुनर्वसाहट हेतु सरकार एवं अशासकीय स्वैच्छिक संस्थाएँ किस तरह कार्य करें। यदि प्रशासकीय मशीनरी पर विश्वास नहीं हो पा रहा हैं, तो वह स्वाभाविक है।

जो लोग बेघर हो गए, कच्छ की ठंडी रात्रि व दिन की तपती धूप में अभी मात्र उनमें से पचास प्रतिशत को अस्थायी शरण मिल पाई हैं। झुग्गी-झोपड़ों में जिस तरह ताल पत्री की छत बनाकर अस्थायी रूप से लोग रहते हैं, वैसे ही अधिसंख्य व्यक्ति रह रहे हैं। जो संपन्न थे, समर्थ थे, वे अपने संबंधियों के पास मुँबई, बैंगलोर, गुजरात के अन्य क्षेत्रों में चले गए। सामान चला गया तो क्या, जान तो बची। कई तो संभवतः वापस न भी लौटें। पर अब प्रयास सभी के लिए स्थायी स्तर पर आवास निर्माण के माध्यम से होना है। गायत्री परिवार ने अन्य कई संगठनों के साथ मिलकर प्रत्येक गाँव में एक स्कूल, एक चिकित्सालय का तंत्र खड़ा करने का निश्चय किया है। संभव है सरकार भी उसमें सहायता करे। इसके अतिरिक्त ‘होंमडाउन’ के रूप में कच्छ की पुरानी संस्कृति के अनुरूप ‘भूँगा’ जो पूरी तरह से एयरकंडीशंड भी होते हैं तथा भूकंप विरोधी भी, सहयोगी संगठनों की मदद से निर्माण करने का सोचा है। भूकंप, तूफान या तापमान की बढ़ोत्तरी से जूझने वाले ये स्थायी निर्माण निश्चित ही लाटूर में की गई गलतियों का समाधान करेंगे।

स्कूलों का निर्माण कर बच्चों की पढ़ाई सतत चालू रखना उन्हें ‘साइकोलॉजिकल ट्रॉमा’ से बचाने का एक प्रयास है। यह कार्य अस्थायी 4 स्कूल खोलकर गायत्री परिवार ने आरंभ कर दिया है। अभी भी बहुत बड़ा क्षेत्र बाकी है, जहाँ यह कार्य होना है। स्थायी कार्यों में भुज के, कच्छ के शिल्प को, शिल्पकारों को अपने पैरों पर खड़ा करने का तंत्र खड़ा करना एक सबसे बड़ा प्रयास होगा। यहाँ की दस्तकारी सारी दुनिया में विख्यात है। यदि इसे पुनरुज्जीवित किया जा सका, तो कच्छ अपने पैरों पर पुनः खड़ा हो सकेगा।

काश यह संवेदना आगे भी जीवित बनी रहे

गुजरात की इस त्रासदी में भारतवर्ष को एक होते देखा गया। संप्रदाय-वर्ग-जाति का भेद भूलकर सभी औरों के हित जीते देखे गए। संवेदना का उभार इस सीमा तक था कि हर व्यक्ति ने अपना न्यूनतम अंशदान दिया ही, कइयों को प्रेरित भी किया। जिस तादाद में राहतकर्मी व सामग्री प्रभावित क्षेत्र में पहुँचे हैं, यह एक कीर्तिमान है। वहाँ के दुखी-आहत-छत से महरुम हुए लोगों के प्रति जगी यह संवेदना इसी तरह जगी रहे, तो हम एक नए भारत को जागकर खड़ा होते देख सकेंगे। अनाथ बच्चे कितने गोद लिए जाते हैं, कितने बूढ़े माता-पिता आश्रयस्थलों पर शरण ले पाते हैं, कितनों को हम उनके घावों पर मरहम लगाकर पुनः वापस लौटा पाते हैं, यह सभी प्रश्न अभी अनुत्तरित हैं, पर सभी में संवेदनशीलों के लिए अनंत संभावनाएं छिपी पड़ी है। यही भारत की थाती है। गुजरात के सौराष्ट्र का लिंबड़ी से पाटडी तक, जौडिया से भचाऊ तक एवं रापर से माँडवी, भुज-अंजार तक का क्षेत्र पुनः उठ खड़ा होगा, इसमें जरा भी अविश्वास किसी को नहीं करना चाहिए। यही आशावाद तो भारतीय अध्यात्म का प्राण है।


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