जीव विशुद्ध रूप में जल की बूँद के समान एक धरती पर आता है। एक ओर जल की बूँद धरती पर गिरकर कीचड़ बन जाती है व दूसरे ओर जीव माया में लिप्त हो जाता है। यह तो जीव के ऊपर है, जो स्वयं को माया से दूर रख समुद्र में पड़ी बूँद के आत्मविस्तरण की तरह सर्वव्यापी हो मेघ बनकर समाज पर परमार्थ की वर्षा करे अथवा कीचड़ में पड़ा रहे।