भावक्षेत्र से उठी आकुल पुकार है- प्रार्थना

April 2001

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अपने सरलतम और सबसे आदिम रूप में प्रार्थना मनुष्य की गहनतम इच्छा की अभिव्यक्ति है, जिसमें आत्मनिवेदन द्वारा ईश्वरीय शक्ति को प्रभावित करने का सचेष्ट प्रयास किया जाता है। यह इच्छा कुछ कामनाओं की पूर्ति के रूप में हो सकती है या किसी भय या खतरे से रक्षा की गुहार के रूप में हो सकती है और अपने श्रेष्ठतम रूप में यह अपने इष्टदेव से संवाद की प्रक्रिया है, जिसमें आत्मा बोलती है, तो विश्वात्मा सुनती है। सुनती ही नहीं, इसका प्रत्युत्तर भी देती है। स्पेन की संत टेरेसा (16वीं सदी) के शब्दों में, प्रार्थना अपने अनन्य इष्ट के साथ सघन आत्मीयता एवं सतत संवाद की स्थिति है।

प्रार्थना की इसी गूढ़तम अवस्था में समस्त धर्मों का अलौकिक उद्भव हुआ है। वेदों की ऋचाएँ प्रार्थना की इसी स्थिति में ऋषियों के अंतरंग में गूँजी थी। गीता का महाप्रसाद श्रीकृष्ण ने इसी अवस्था में अर्जुन को दिया था। मीरा के गिरिधर गोपाल, रामकृष्ण की काली माँ इसी की उच्चतम अभिव्यक्तियाँ है। इस्लाम का उद्भव भी प्रार्थना से ही हुआ है। मुस्लिम का तो अर्थ ही प्रार्थना है। कुरान को प्रार्थना का ग्रंथ कहा गया है। इस्लाम में नमाज, प्रार्थना का ही एक रूप है, जो प्रत्येक मुस्लिम के लिए आवश्यक मानी गई है। ईसाई धर्म में हर रविवार को प्रार्थना का क्रम रहता है। जापान का प्रसिद्ध धर्म शिन्तों पूर्णतः प्रार्थना पर आधारित है। ईसाई संत आगस्टीन द्वारा प्रवर्तित ‘कन्फेशन’ स्रष्टा के साथ संवाद के रूप में एक लंबी प्रार्थना ही है।

यह सुनिश्चित तथ्य है कि धर्म भावना का उद्भव प्रार्थना से ही होता है। अमेरिकी दार्शनिक विलियम जेम्स के शब्दों में, बिना प्रार्थना के धर्म की कल्पना भी नहीं की जा सकती। धर्म में प्रार्थना का वही केंद्रीय स्थान है, जो दर्शन में युथ्कतपरम विचारशीलता का 19वीं सदी के जर्मन दार्शनिक लुडविग फ्यूरवेच अपने सारगर्भित निष्कर्ष को प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि धर्म का सबसे उच्चतम सार उसकी सबसे सरल क्रिया द्वारा व्यक्त होता है, जो है- प्रार्थना।

मनोवैज्ञानिकों के अनुसार, यह प्रक्रिया अव्यक्त मन से उठी एक चेतना की लहर मात्र है, जिसे प्रगाढ़ आत्म संकेत (ऑटो सजेशन) भी कह सकते हैं और इसका आधार व्यक्ति का गुप्त मन है। विलियम जेम्स एवं मनोविद् जाँस सेंग्रंड ने प्रार्थना को अचेतन मन के भावनात्मक बहाव के रूप में परिभाषित किया है और इसे मन की अदृश्य सत्ता से संवाद में आने का अंतःस्फोट कहा है। समाजशास्त्री धार्मिक वातावरण को इसका प्रमुख कारक मानते हैं, जो कि व्यक्ति के आध्यात्मिक व्यवहार को प्रेरित करता है।

सर्वसामान्य एवं व्यावहारिक अर्थों में प्रार्थना हृदय की आकुल पुकार है। जब व्यक्ति जीवन के दुख कष्टों, घात -प्रतिघातों एवं दुरूह जटिलताओं से क्लाँत हो जाता है, जब उसके पुरुषार्थ एवं आशा की सीमाएँ टूट जाती है। और कोई सहारा नहीं दिखता, तो वह शक्ति प्रेम और करुणा के उच्चतम आदर्श (इष्ट देव -भगवान -गुरु- देवशक्ति) की मन में स्थापना करता है। उससे अपनी अंतर्व्यथा को निवेदित करता है। मन के गुह्यतम क्षेत्र में परमात्मा की अनंत, अद्भुत एवं अतुलित शक्ति सामर्थ्य निवास करती है। प्रार्थना से हम इसी आँतरिक शक्ति केंद्र की ओर उन्मुख होते हैं। यही से एक ऐसा बल एवं उत्साह प्राप्त होता है, जो शरीर के अणु-अणु में अद्भुत बल का संचार करता है, आत्म की ज्योति जगा देता है, मन को पुरुषार्थ से भर देता है। एक ऐसी शाँतिदायिनी लहर को प्रसारित करता है, जो प्रार्थी को चैतन्य और अभय बना देती है। ऐसे में इएच चौमिन के शब्दों में प्रार्थना किए बिना मनुष्य रह नहीं सकता, यह हृदय से उठने वाली सहज एवं स्वस्फूर्त पुकार है। स्वेचीन के शब्दों में, हताशा में, किंतु भावों की गहराई से उठी पुकार उस अदृश्य चैतन्य सत्ता से आत्मा का एक सहज निवेदन होता है, एक प्रार्थना होती है।

इस तरह प्रार्थना जीवन का सहज, किंतु महान अवलंबन है। यह विषम संकटों, दुर्भाग्य, दुर्योगों, हृदय विदारक एवं असह्य कष्टों में जाने की शक्ति देती है और आशा की ज्योति को जलाए रखती है। इसीलिए महात्मा गाँधी कहा करते थे, प्रार्थना ने कई अग्निपरीक्षाओं में मेरा उद्धार किया है। जिस क्षण मैंने स्वयं को प्रभु के हाथों में छोड़ दिया, उसी क्षण एक प्रशाँत लहर मेरी अंतःचेतना में दौड़ पड़ी और मुझे सब कुछ सहन करने की शक्ति मिल गई। मेरी ईश्वर की प्यास को मात्र एक भावभरी प्रार्थना ही संतुष्ट कर पाती है।

प्रार्थना की अद्भुत शक्ति जीवनरूपी वृक्ष की जड़ों को भरपूर पोषण करती है, क्योंकि यह जीवन के आदि स्नेह में व्यक्ति का सम्बन्ध जोड़ती है। इसी कारण मनीषी अलेक्स कैरल ने कहा है, प्रार्थना सबसे शक्तिशाली ऊर्जा है जिसे मनुष्य पैदा कर सकता है। शरीरशास्त्री भले ही मानवीय शरीर एवं मस्तिष्क पर इसके प्रभाव को ग्रंथियों के स्राव के रूप में दर्शाएँ, पर इसके परिणामस्वरूप शारीरिक सशक्तता, बौद्धिक प्रखरता, नैतिक साहस और मानवीय सम्बन्धों में अंतर्निहित गहन सार्थकता सब कुछ जीवंत हो उठती है। प्रार्थना जीवन को विधेयात्मक ढंग से जीने का एक तरीका है। सच्चा जीवन वस्तुतः प्रार्थना से भरा हुआ जीवन है। निश्चित रूप से प्रार्थना आत्मा के लिए टॉनिक की तरह काम करता है और जीवन को जीवंत एवं सार्थक बनाता है। प्रार्थना के बिना जीवन की क्या नियति एवं क्या गति होती है, अँगरेजी कवि टेनीसन के शब्दों में सुनें, “बिना प्रार्थना मनुष्य पशु-पक्षियों जैसा निर्बोध है। प्रार्थना जैसी महाशक्ति से कार्य न लेकर अपनी थोथी शान में रहकर सचमुच हम बड़ी मूर्खता करते हैं। यही हमारी विडंबना है।”

इस विडंबना से उबरने के लिए हर व्यक्ति को इसका अवलंबन लेना चाहिए। इस दृष्टि की रचयिता, इसका लालन-पालन करने वाली, हमारी आदि कारण महाशक्ति से संपर्क साधने का यही एक तरीका है। यही अलौकिक साम्राज्य में प्रवेश का एक मात्र माध्यम है। टी.एस.ब्रुक्स के शब्दों में, “स्वर्ग के सबसे मधुर एवं श्रेष्ठ पुष्प उपहार में भगवान अपने बंदो को तब देता है, जब वे घुटनों के बल होते हैं, अर्थात् प्रार्थना कर रहे होते हैं। प्रार्थना स्वर्ग का द्वार है, यह अलौकिक सौंदर्य एवं आनंद की उस दिव्य भूमि में प्रवेश है।” जिसे प्रार्थना करना आ गया, वह बिना जप-तप, मंत्र तंत्र के ही उस पराशक्ति से तादात्म्य स्थापित कर लेता है।

इस रूप में प्रार्थना का केंद्रीय तत्व अंतः की गहराई की उपजी भावना है। व्यक्ति की श्रद्धा भावना संयुक्त प्रार्थना बिना शब्दों के हो सकती है, किंतु बिना हृदय के नहीं। गाँधी जी के शब्दों में, “प्रार्थना में भावहीन शब्दों में, शब्दहीन हृदय बेहतर है।” जीवन को प्रार्थना के महान अवलंबन से भरा पूरा बनाने के लिए बस आवश्यकता हृदय के भावक्षेत्र को जगाने की है, जिसकी आकुलता में प्रार्थना का मर्म छिपा हुआ है।


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