आधुनिक कही जाने वाली जीवन शैली ने जीवन चेतना को क्षत-विक्षत कर दिया है। यही वजह है कि आज मनोरोगों की भरमार हो चली है। इन सभी मनोरोगों का सम्बन्ध मन से है। मन एक भावबोधक शब्द है, जो मस्तिष्क के जटिल क्रियात्मक पहलू को उजागर करता है। मन के मुख्य रूप से दो क्रियात्मक स्तर हैं, (1) ऊपर का या सतही मन, (2) गहराई वाला अवचेतन मन।
सामान्य क्रम में व्यक्ति को सिर्फ चेतन मन का ही ज्ञान होता है। अवचेतन मन का अनुभव तब होता है, जब कोई बेधक विचार कौंधता है या फिर आत्मविश्लेषण किया है और उसी की इच्छा के अनुरूप जीवनयापन करते हैं। अवचेतन मन की इच्छाओं आकाँक्षाओं की ओर उनका ध्यान ही नहीं जाता। यदि कभी ऐसा होता भी है, तो उसे बलपूर्वक दबा दिया जाता है अवचेतन मन पर पड़ने वाला यह आवश्यक दबाव भी कालाँतर में मानसिक रोग का कारण बन जाता है।
मनुष्य के अपने मन की विकृतियाँ ही मानसिक रोगों का प्रमुख कारण होती हैं। अपनी सामान्य अवस्था से विचलित होना ही विकृति कहलाती है। मन की विकृति के कई लक्षण हैं, जैसे अत्यधिक चिंता या बेवजह का डर, बेचैनी और अनिद्रा, आवेशों की अधिकता, अवास्तविकता अथवा काल्पनिक विचारों में खोए रहना, असामान्य व्यवहार, अपनी और अपने आश्रितों की देखभाल में लापरवाही आदि। मन की ये विकृतियाँ कायिक एवं क्रियात्मक दो रूपों में परिलक्षित होती हैं। कायिक विकारों से मस्तिष्क प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होता है, जबकि क्रियात्मक विकारों से मस्तिष्क तो सामान्य रहता है, लेकिन उसके कार्य में बाधाएँ पहुँचती है। मन की विकृति का काया पर पड़ने वाला प्रभाव उन्माद, मिरगी आदि रोगों के रूप में दिखाई पड़ता है। इन रोगों से ग्रस्त व्यक्ति की मेधा शक्ति क्षीण होने लगती हैं। जिसके कारण वह भुलक्कड़ अस्त-व्यस्त मंद बुद्धि एवं एक ही क्रिया को बार-बार दुहराने वाला हो जाता है। इस रोग की चरम अवस्था में उपचार असंभव हो जाता है, परंतु प्रारंभिक अवस्था में उचित उपचार द्वारा रोगी ठीक हो सकता है।
क्रियात्मक विकारों से आवेशों, विचारों और व्यवहार पर बहुत ज्यादा पड़ता है। रोगी के मन में आवेशों की एक असामान्य लहर उमड़ती है, जिसमें उत्साह या अवसाद होता है। उत्साह के कारण आवेशित व्यक्ति बेचैन, निद्राहीन, बातूनी और कई बार हिंसात्मक भी बन जाते हैं। अवसाद से आवेशग्रस्त होने वाला व्यक्ति दुःखी, बेचैन, निराश और आत्महत्या की ओर प्रवृत्त हो जाते हैं। ये दोनों कई बार अपने आप ठीक भी हो जाते हैं, पर इनकी आवृत्ति प्रायः होती रहती है।
चिंता, हिस्टीरिया, स्क्रिजोफ्रेनिया, आब्सेसिव-कंपल्सिव आदि कुछ अन्य प्रमुख मानसिक विकार हैं। चिंता की अवस्था में व्यक्ति अपने स्वास्थ्य एवं सुरक्षा को लेकर अत्यधिक चिंतित रहता है। पूर्ण स्वस्थ होते हुए भी काल्पनिक रोगों के भय से स्वयं को इतना परेशान कर लेता है कि चिकित्सक द्वारा आश्वासन दिए जाने पर भी उसे विश्वास नहीं होता। हिस्टीरिया में भी व्यक्ति अपने आपको रोगग्रस्त मानकर लोगों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करने की कोशिश करता है। इन मनोरोगों की दशा में व्यक्ति का मन पूरी तरह संदेहों और अनिश्चितता से भर जाता है। इनका इलाज बहुत कठिन होता है और धीरे-धीरे स्थायी बनता चला जाता है। चिंता और हिस्टीरिया का उपचार आरंभिक अवस्था में मनोचिकित्सकों द्वारा किया जा सकता है। इसकी आवृत्ति भी प्रायः कम होती है।
स्क्रिजोफ्रेनिया अर्थात् विखंडित मनोविक्षिप्त का प्रमुख लक्षण सोचने एवं बातचीत में आई गड़बड़ी है। रोगी की मानसिक कार्यप्रणाली के विभिन्न अवयवों से तालमेल समाप्त हो जाता है। विचारों और संवेगों के बीच तारतम्य का लोप हो जाता है। अतः रोगी की बातचीत एवं कार्यकलाप एक दूसरे से परस्पर विरोधी या असंबद्ध हो जाते हैं। कुछ रोगी परिस्थिति एवं समय से परे लगातार निरर्थक बातें करते रहते हैं। इसके विपरीत कई रोगी बोलते ही नहीं, बस एकदम भावविहीन नेत्रों से टकटकी लगाए देखते रहते हैं। रोगी की संवेगात्मक अनुभूति की क्षमता में अत्यधिक परिवर्तन आ जाता है। वे न तो खुशी का अनुभव कर पाते हैं, न दुख का। कुछ मरीज बिना किसी कारण के हँसते या रोते दिखाई पड़ते हैं या फिर अचानक गुस्से में भरकर मारपीट करने लगते हैं। इस रोग की कैटाटोनिक अवस्था में कुछ रोगी हफ्तों बिना कुछ खाए-पिए चुपचाप एक विचित्र मुद्रा में पड़े रहते हैं। इस रोग के लिए ई.सी.टी. चिकित्सा सामान्यतया दी जाती है, जो कि नुकसानदायक होती है।
आब्सेसिव कंपल्सिव रोग एक ऐसी मानसिक बीमारी है, जिसमें व्यक्ति के मस्तिष्क में लगातार एक चेन की तरह न समाप्त होने वाले विचारों के आने की प्रक्रिया सतत रूप से चलती रहती है, जो स्वयं व्यक्ति के लिए काफी कष्टकारी होती है। रोगी उन विचारों की निरर्थकता के प्रति जागरुक होता है। वह उन्हें रोकने की कोशिश भी करता है, परंतु असफल रहता है। इन्हीं विचारों को रोगी जब व्यवहार में करने लगता है, तो वह असामान्यता कंपल्शन के नाम से जानी जाती है। कंपल्शन के रोगी अपने विभिन्न व्यवहारों को एक निर्धारित प्रक्रिया के आधार पर करने के लिए बाध्य होते हैं। इस तरह के असामान्य व्यवहारों में मुख्य रूप से कई’-कई बार और काफी-काफी देर तक रोगी द्वारा अपने हाथ धोना, बार-बार खिड़की दरवाजे और सिटकनी चेक करना, बिजली के स्विच चेक करना या किसी चीज को बार-बार छूना गिनती का कंपल्शन होने पर रोगी कई बार पैसों की गिनती करता है, चौराहों से गुजरने वाली गाड़ियों एवं व्यक्तियों की भी गिनती घंटों तक करता रहता है। कई बार तो रोगी कुछ काम शुरू करने से पहले एक खास नंबर तक की गिनती गिनता रहता है।
आब्सेशन के रोगी को बहुत अधिक उद्विग्नता का सामना करना पड़ता है, जिससे उसके मस्तिष्क में एक द्वंद्व सा चलता रहता है। ऐसी स्थिति में रोगी कुछ निरर्थक अतर्किक व्यवहार करते हैं, जिससे उनके तनाव एवं घबड़ाहट में कमी आ जाती है। ऐसा करके रोगी कुछ देर के लिए अपने को आरामदायक स्थिति में रख पाता है।
मनोरोग विशेषज्ञों एवं अन्य चिकित्साशास्त्रियों ने अपने विभिन्न शोध-परिणामों के आधार पर यह प्रमाणित कर दिया है कि आब्सेशन एक विशुद्ध मनोवैज्ञानिक रोग हैं। इसके उपचार में मुख्य रूप से दो तरह की पद्धतियाँ प्रभावी पाई गई है, (1) औषधि द्वारा एवं (2) बिहेवियर थेरेपी द्वारा।
मिरगी भी एक प्रमुख मानसिक रोग है। जब मस्तिष्क की स्नायु प्रणाली जो अत्यधिक संवेदनशील है, पर कोई अनावश्यक दबाव पड़ता है, तब ऐसी अवस्था में शरीर के अंगों में अकड़न, प्रकंपन एवं अचेतना तथा कुछ हद तक दृष्टिदोष भी उत्पन्न हो जाता है। इसी स्थिति को मिरगी के दौरा के रूप में जाना जाता है। आयुर्वेद में इस रोग के कारणों पर विस्तृत प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि चिंता, शोक, क्रोध, मोह आदि से कुपित हुए दोष वातपित्त-कफ हृदय में स्थित नाड़ी के साथ मिलकर ज्ञान शक्ति का नाश करके मिरगी या अपस्मार को उत्पन्न करते हैं। अच्छी नौकरी, अधिक धन प्राप्त करने की चिंता, पारिवारिक कलह, अनुचित खान-पान एवं उत्तेजक औषधियों के सेवन से मस्तिष्क विकृत हो जाता है, जिसके परिणामस्वरूप ही लोग मिरगी रोग के शिकार हो जाते हैं। इस रोग के उपचार के सम्बन्ध में ध्यान रखने योग्य सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इस रोग से जुड़े अंधविश्वासों से बचा जाए और किसी अच्छे मनोरोग चिकित्सक द्वारा इसका उपचार कराया जाए।
वर्तमान समय में अधिकाँश मानसिक रोगों के उपचार के लिए ‘ध्यान’ एक सफल चिकित्सापद्धति के रूप में उभरकर आया है। भारतीय ऋषि-महर्षियों द्वारा प्रणीत ध्यान की शैली का प्रयोग कर विभिन्न देशों के मनोचिकित्सकों ने मानसिक रोगियों का सफल उपचार किया। तभी से आधुनिक चिकित्सा विज्ञानी यह मानने लगे कि मानसिक विकृति को दूर करने के लिए ध्यान एक सशक्त माध्यम है। कैलिफोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ साइको फिजियोलॉजिकल मेडिसिन में साइकियाट्री के डायरेक्टर हेरल्ड एच ब्लूमफील्ड एमडी ने मानसिक विकृतियों से जुड़े एक सौ दो रोगियों पर ध्यान का सामूहिक परीक्षण किया। परिणाम अत्यंत उत्साहपूर्वक रहा। इनमें कुछ रोगियों को आदर्शजनक ढंग से लाभ हुआ। 25 वर्षीय स्नातक छात्रा जान 17 वर्ष की उम्र से मिरगी एवं अन्य कई मानसिक विकृतियों की शिकार थी। एक वर्ग तक लगातार ध्यान करने के बाद वह पूरी तरह रोगमुक्त हो गई। 28 वर्षीय जार्ज भी अनेक मानसिक रोगों से पीड़ित था। 14 महीने के ध्यान उपचार के बाद वह भी पूर्ण स्वस्थ हो गया।
मन की अस्त-व्यस्तता ही मानसिक विकृतियों का कारण होती है। ध्यान द्वारा मन एकाग्र होता है। उसकी चंचलता धीरे-धीरे समाप्त हो जाती है। ध्यान के क्षणों में मिलने वाला आत्मिक सुख एवं गहन शाँति मन की सारी ग्रंथियों को तोड़ देते हैं और व्यक्ति अपने आपको हल्का-फुल्का महसूस करने लगता है।
जीवन परमात्मा का अनमोल उपहार है। यह स्वयं में ही इतना दिव्य, पवित्र और परिपूर्ण है कि संसार का कोई भी अभाव इसकी पूर्णता को खंडित करने में असमर्थ है। आवश्यकता सिर्फ इतनी है कि हम अपने मन का गहराई से अध्ययन कर उसे उत्कृष्टता की दिशा में उन्मुख करें। ईर्ष्या, द्वेष, लोभ एवं अहं के दोषों से मन को विकृत करने की बजाय अपनी जीवन शैली को बदल कर सेवा, सहकार आदि गुणों के सहारे न केवल मानसिक रोगों से बचा जा सकता है, बल्कि अपनी भरपूर मानसिक क्षमताओं को विकसित किया जा सकता है।