अर्जुन के हाथ से युद्ध मध्य में गाँडीव छूटते, मुख सूखते देख कृष्ण झुँझला पड़े थे। कथनी और करनी में व्यतिरेक-व्यामोह उनसे सहन नहीं हुआ। भौहें तरेरते हुए वे बोल उठे-
कुतस्त्वा कश्मलमिंद विषमें समुपस्थितम्।
हे अभागे! इस विषम वेला में यह कृपणता तेरे मन मस्तिष्क पर किस प्रकार चढ़ बैठी? दिग्भ्राँत अर्जुन की आँखें खुली और उभरे उत्साह ने गाँडीवधारी अर्जुन को महाभारत विजय का श्रेय दिलाया। कार्य तो ईश्वरीय चेतना ने ही किया पर जाग्रत व उफनकर आए सत्साहस की परिणति ही पूर्व भूमिका बना सकी।
रास्ता रोके खड़े डाकू वाल्मीकि से सप्तऋषियों ने इतना ही तो कहा था कि क्या ये स्वजन-सम्बन्धी तुम्हारे पापों में भी उतने ही भागीदार होंगे, जितना सुख वैभव में हैं? पत्नी व बच्चों तक ने जब अपना उत्तर नकारात्मक दिया, तो उसे अपनी दा का मान हो गया। आत्मप्रगति का मंत्र ऋषिगणों से पाकर उसने अपनी जीवन धारा ही मोड़ दी और वह संत वाल्मीकि बन गया। नरक को उन्मुख हो रहा डाकू, अपनी विवेक-बुद्धि को सत्परामर्श के सहारे प्रयुक्त कर सही दृष्टि पा गया और आदि कवि के रूप में इतिहास में अमर हो गया