विधाता के इस वरदान को यूँ ही गँवा देते हैं हम

April 2001

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मनुष्य को जीवन सबसे प्रिय है। मृत्यु की सामान्यतः कल्पना करने तक से वह घबराता है। यक्ष के पूछे जाने पर युधिष्ठिर ने जीवन के मोह व मृत्यु के भय को सबसे बड़ा आश्चर्य बताया था कि मनुष्य मृत्यु के अटल सत्य को जानते हुए भी मृत्यु से भागता फिरता है। किंतु आज यह सबसे बड़ा आश्चर्य एक सामान्य -सी बात होती जा रही है, जब हम प्रतिदिन अखबारों में ऐसी कितनी ही घटनाओं को सहज क्रम में पढ़ लेते हैं, जिसमें व्यक्ति स्वयं की आत्महत्या जैसे जघन्य कृत्य द्वारा अपनी जीवन-लीला समाप्त कर देता है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार विश्व में प्रतिवर्ष सात लाख से अधिक लोग आत्महत्या द्वारा मरते हैं। अर्थात् प्रतिदिन लगभग 2 व्यक्ति आत्महत्या करते हैं। इसी की एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 1984 से 94 के दौरान भारत में आत्महत्या करने वालों के पीछे यह दर 6.8 से 9.9 तक बढ़ी है। गत एक दशक में आत्महत्या का प्रयास करने वालों में नौ गुना वृद्धि हुई है। महानगरों में चैन्नई व बेंगलोर में सर्वाधिक 12.2 प्रतिशत की दर सही। इसके पश्चात मुँबई की प्रतिशत दर 14.65 रही। महानगरों में जयपुर की 1.4 प्रतिशत पर न्यूनतम रही।

भारत की अपेक्षा विकसित देशों में व कुछ विकासशील देशों में आत्महत्या की समस्या और भी अधिक गंभीर है। दक्षिण एशिया में शिक्षा एवं स्वास्थ्य की दृष्टि से विकसित माने जाने वाला देश श्रीलंका इस संदर्भ में सर्वोपरि है। 1991 में यहाँ आत्महत्या करने वालो की संख्या प्रति लाख व्यक्ति 49 थी। गत पचास वर्षों में यहाँ जनसंख्या वृद्धि मात्र 3 प्रतिशत हुई है, जबकि आत्महत्या दर में 5 प्रतिशत वृद्धि हुई मरने वालों में अधिकाँशतः 60 वर्ष की आयु से अधिक के वृद्ध थे। 1983 से अब तक पिछले 15-16 वर्षों में जातीय व गृहयुडडडडडड में लगभग 5, व्यक्ति मारे गए, वही आत्महत्या के कारण इससे कही अधिक 6, व्यक्ति मारे गए।

भूतपूर्व साम्यवादी देशों में भी यह स्थिति बदतर है। सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति में तेजी से गिरावट आने के कारण रूस में आत्महत्या करने वालों में चार गुना अधिक वृद्धि हुई है। फिनलैंड की आत्महत्या दर भारत से तीन गुना अधिक व फ्राँस स्विट्जरलैंड की दो गुना अधिक है।

अमेरिका में जनसंख्या का एक प्रतिशत आत्महत्या द्वारा मरता है। यहाँ आत्महत्या मृत्यु के आठ प्रमुख कारणों में से एक है। 15 से 24 वर्षीय किशोर एवं युवाओं में यह मरने का दूसरा प्रमुख कारण है। यहाँ पुरुषों से तीन गुना अधिक महिलाएँ आत्महत्या का प्रयास करती है, किंतु महिलाओं से तीन गुना अधिक पुरुष आत्महत्या द्वारा मरते हैं। गत 15 वर्षों में 15 से 44 वर्षीय युवाओं में दो से तीन गुना वृद्धि हुई है। अमेरिका में 2 लाख व्यक्ति प्रतिवर्ष आत्महत्या का प्रयास कतरे हैं। जिनमें 26 ही सफल हो पाते हैं।

अपने देश में शिक्षा, स्वास्थ्य एवं आर्थिक रूप से सर्वाधिक विकसित प्राँत केरल एक अद्वितीय उदाहरण है, जिसके विकास का मॉडल चर्चा का विषय रहा है लेकिन यहाँ आत्महत्या करने वालों की संख्या सर्वाधिक है, जो लगभग प्रति लाख के पीछे 25 है। यह देश के औसत से ढाई गुना अधिक है। मनोचिकित्सक डॉ. सूरजमणि के अनुसार, केरल में तीव्रता से बढ़ता शहरीकरण उतनी ही तीव्रता से विलुप्त होता संयुक्त परिवार व अन्य पारंपरिक सहायक ढाँचा इसका प्रमुख कारण है। समाजशास्त्री जॉन कट्कयम के अनुसार केरल में बढ़ती सामूहिक आत्महत्याओं के पीछे मूल कारण गरीबी के साथ बढ़ती भोग लिप्सा है। मध्यम व उच्च आय वर्ग भी इसी कारण आत्महत्या की गिरफ्त में आ रहे हैं। उपभोक्ता संस्कृति ने सभी को धनलिप्सा की अंधी दौड़ में शामिल कर दिया है। वे ऐसी साधन’-सामग्री खरीदते हैं, जिससे वे अपने पड़ोसी, मित्रों व सम्बन्धीजनों के स्तर पर जीने की लालसा पूरी कर सकें। इससे वे या तो कर्ज के बोझ में दब जाते हैं या उस स्तर पर जीने में असफल होते हैं परिणामतः निराशा, हताशा व अवसाद के घोर तमस से घिर जाते हैं और आत्महत्या जैसे वीभत्स कृत्य के रूप में जीवन की इतिश्री कर देते हैं।

केरल के अतिरिक्त त्रिपुरा, तमिलनाडु, पश्चिमी बंगाल, महाराष्ट्र और कर्नाटक की दर भी औसत से अधिक है। बढ़ती सामाजिक- आर्थिक विषमता इसका प्रमुख कारण मानी जा रही है। विकास की त्रुटिपूर्ण नीतियों के कारण एक समूह विशेष के हाथों क्रय शक्ति के केंद्रीकरण से समाज का बृहत्तर भाग हताशा और अवसाद में जी रहा है। बढ़ती जनसंख्या और घटते संसाधनों के साथ उदारवादी आर्थिक नीतियों ने इस सामाजिक स्थिति को और जटिल बना दिया है। इसी कारण जहाँ जितना अधिक भूमंडलीकरण हुआ, वहाँ आत्महत्या की संख्या में उतनी ही वृद्धि हुई। आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु, व दो के अन्य क्षेत्रों में किसानों द्वारा आत्महत्या की चौंकाने वाली घटनाएँ इसी प्रकाश में देखी जा सकती हैं। यहाँ विदेशी निवेश खुशहाली के साथ मौत का पैगाम भी लेकर आया है।

गरीबी के साथ शराब को भी आत्महत्या का प्रधान कारण देखा गया है। श्री लंका के मालोन्नयबा जिले में आर्थिक तनाव एक कारण था, किंतु साथ ही शराब भी प्रमुख कारण था। अच्छी उपज के साथ वहाँ किसानों में शराब की लत बहुत बढ़ गई थी। बाद में जब फसल अच्छी नहीं हुई, तो इसी शराब की लत ने आर्थिक तबाही की और शराब की अत्यधिक खपत कई तरह से आत्महत्या का कारण बनीं।

व्यक्ति की शिखा, व्यवसाय एवं सामाजिक स्थिति का भी आत्महत्या से नजदीकी रिश्ता पाया गया है। उच्च प्रशिक्षित व्यवसायियों, इंजीनियर, डॉक्टरों और विश्वविद्यालयों, मेडिकल व इंजीनियरिंग कॉलेजों के छात्रों में आत्महत्याएँ अपेक्षाकृत अधिक देखी गई हैं। शायद विकृत जीवन शैली का दबाव तनाव उनके लिए भारी सिद्ध होता है। दूसरी ओर गांवों में रहने वालो, धर्म में आस्था रखने वालों विवाहितों एवं महिलाओं में आत्महत्या की दर कम देखी गई है। इससे स्पष्ट होता है कि शहर की भागदौड़ भरी जिन्दगी का तनाव, टूटते मानव मूल्य, निताँत एकाकीपन जीर्ण होती सामाजिक दीवारें, आशा की ढहती इमारतें, बिखरती, धार्मिक निष्ठाएँ बढ़ती आत्महत्या की जड़ में हैं। संपन्न वर्ग में बढ़ती आत्महत्या की वृत्ति के पीछे तथाकथित उदारवाद पश्चिमीकरण और आधुनिकता की हवा को देखा जा सकता है।

शायद इसी कारण सर्वाधिक हत्याएँ एवं आत्महत्याएँ चारित्रिक पतन एवं संपत्ति के बर्बर बँटवारे को लेकर हुई हैं। उदाहरणार्थ दिल्ली में 352 महिलाओं और 434 पुरुषों के द्वारा की गई आत्महत्याओं में 1 महिलाओं व 24 पुरुषों के पीछे निहित कारण उनके साथी की चारित्रिक बेवफाई को बताया गया। अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट में कहा गया है कि महानगरों के पुरुषों व महिलाओं के दुश्चरित्र होने की घटनाएँ बढ़ रही हैं, फलस्वरूप आत्महत्याओं में तेजी से वृद्धि हुई है। उपभोग की अतृप्त इच्छाएँ व्यक्ति को तेजी से सामाजिक एवं चारित्रिक पतन के मार्ग में ढकेल रही हैं। इन इच्छाओं की पूर्ति के लिए लोग ‘शॉर्टकट’ मार्ग अपनाते हैं और असफल होने पर आत्महत्या का मार्ग पकड़ लेते हैं, जो किसी तरह से ठीक नहीं है।

पर यह तभी समझा जा सकता है, जब यह सुनिश्चित तौर पर जान लिया जाए कि जीवन विधाता का सर्वोत्कृष्ट वरदान है। इसमें गहरी सार्थकता और गहन अर्थ छुपा हुआ है। उसे उजागर करना है। इस उद्देश्य की ओर बढ़ने वाला हर व्यक्ति गीता के स्वरों में यही गुनगुनाता है, यं लब्ध्वा चापंर लाभं मन्यते नाधिकं ततः। सचमुच जीवन अमृत हैं, इसे यूँ ही खोएँ नहीं, बल्कि इसकी सार्थकता की खोज करें।


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