महत्वाकाँक्षा के ज्वर से मुक्ति

April 2001

Read Scan Version
<<   |   <  | |   >   |   >>

महत्वाकाँक्षा की धुरी पर घूमने वाला जीवन वृक्ष ही नरक हैं। महत्वाकाँक्षाओं का ज्वर जीवन को विषाक्त कर देता है। जो इस ज्वर की हवाओं से उद्वेलित हैं, शाँति का संगीत और आत्मा का आनंद भला उनके भाग्य में कहाँ? वे तो स्वयं में ही नहीं होते हैं और शाँति का संगीत एवं आत्मा का आनंद तो स्वयं में होने के ही फल है।

बड़ी सहज जिज्ञासा है, इस महत्वाकाँक्षा का मूल क्या है? इसका उत्तर भी उतना ही सहज है, “हीनता का भाव अभाव का बोध।” हालाँकि ऊपर से दिखने में हीनता का भाव और महत्वाकाँक्षी चेतना परस्पर विरोधी दिखाई देते हैं, लेकिन वस्तुतः वे एक ही भावदशा के दो छोर है। एक छोर से जो जीनता है, वही दूसरे छोर से महत्वाकाँक्षा। हीनता ही स्वयं को ढकने-छिपाने के प्रयास में महत्वाकाँक्षा बन जाती है। अपनी इस कोशिश में वह स्वयं को ढक तो लेती है, पर मिटती नहीं और ध्यान रखने की बात तो यह है कि किसी भी रोग को ढकने भर से कभी भी कोई छुटकारा नहीं है। इस भाँति रोग मिटते नहीं वरन् पुष्ट ही होते हैं।

व्यक्ति जब तक स्वयं की वास्तविकता से दूर भागता है, तब तक वह किसी न किसी रूप में महत्वाकाँक्षा के ज्वर से ग्रसित होता रहता है। स्वयं से दूर भागने की आकाँक्षा में वह स्वयं जैसा है, उसे ढकता है और भूलता है, लेकिन क्या आप की विस्मृति और उसका विसर्जन एक ही बात है? नहीं। हीनता की विस्मृति हीनता से मुक्ति नहीं है। इससे पहले स्वयं को जानकार ही है, क्योंकि स्वयं से भागना ही वह मूल और केंद्रीय भाव है, जिससे सारी हीनताओं का प्रभाव होता है।

विज्ञान वे अतिरिक्त इस आँतरिक अभाव से और महत्वाकाँक्षा के ज्वर से मुक्ति का कोई उपाय नहीं है। उसमें जीने और जगाने का साहस करते हैं, उनके लिए शून्य ही पूर्ण बनाया गया है। फिर न हीन भावना है और न उससे उपजने वाला महत्वाकांक्षा का ज्वर।


<<   |   <  | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles