मनुष्य का गंतव्य (Kahani)

April 2001

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श्रुतायुघ के पास शंकर जी के वरदान से प्राप्त एक गदा थी। शर्त मात्र यही थी कि वह उसका अनीतिपूर्वक प्रयोग न करे। यदि करेगा, तो लौटकर वह उसी को नष्ट करेगी। महाभारत युद्ध में क्रोध के आवेश में उसने उस गदा का प्रयोग सारथी की भूमिका निभा रहे भगवान कृष्ण पर कर डाला। गदा बीच से ही वापस लौटकर श्रुतायुध पर ही आ गिरी और उसे क्षत-विक्षत कर गई। भस्मासुर ने भी यही वरदान माँगा था कि वह जिसके सिर पर हाथ रख देगा। वही भस्म हो जाएगा। जब उसने वरदान का दुरुपयोग आरंभ किया, तो भगवान ने माया रची और उसकी दुर्बुद्धि ने उसे स्वयं अपने ऊपर हाथ रखवाकर भस्म कर डाला। यह चयन की दिशाधारा ही है, जो मनुष्य का गंतव्य भवितव्य निर्धारित करती हैं।

एक सभा में वाद-विवाद चल रहा था। एक पक्ष ने कहा, “मनुष्य सर्वश्रेष्ठ प्राणी है, क्योंकि वह सभी जीवधारियों को वश में कर लेता है।” दूसरा पक्ष कहता था, “प्राणी श्रेष्ठ हैं, क्योंकि वे जिंदगी भर बिना कुछ माँगे मनुष्य की सेवा करते हैं।” निर्णय नहीं हो पा रहा था। विवाद बढ़ता ही गया। एक ज्ञानी उधर से जा रहे थे। सबने उनकी सम्मति माँगी। ज्ञानी ने दोनों पक्षों की बात सुनी और बोले, “भाई! मानवी स्वतंत्रता की भी अपनी सीमा है। हर कोई जीवन जीने का मर्म नहीं जानता। मनुष्य जब तक सत्कर्म करता है, तब तक ही श्रेष्ठ है और जब वह दुष्कर्म करने लगता है, तो वह नीचे गिर जाता है। जब भी ऐसे चयन के अवसर आए हैं, मानवी बुद्धिमता की पूरी परीक्षा हुई है।”

मगध के एक धनी व्यापारी ने बहुत धन कमाया। उसे अपनी संपन्नता पर इतना गर्व हुआ कि वह अपने घर के लोगों पर ऐंठा करता। फल यह हुआ कि उसके लड़के भी उद्दंड और अहंकारी हो गए। पिता पुत्रों में ही ठनने लगी। घर नरक बन गया।

उद्विग्न व्यापारी ने महात्मा बुद्ध की शरण ली और कहा, “भगवन्! मुझे इस नरक से मुक्ति दिलाइए, मैं भिक्षु होना चाहता हूँ।”

तथागत ने कुछ सोचकर उत्तर दिया, “भिक्षु बनने का अभी समय नहीं है। तात! तुम जैसा संसार चाहते हो वैसा आचरण करो, तो घर में ही स्वर्ग के दर्शन कर सकोगे। उपवन में भी तुम्हें शाँति नहीं मिलेगी, जब तक मन अशाँत है। यह नरक तुम्हारा अपना ही पैदा किया हुआ है।”

व्यापारी घर लौट आया। उसने जैसे ही अपना दृष्टिकोण व्यवहार-आचरण बदला, सबके हृदय बदले व उसे घर में ही स्वर्ग के दर्शन होने लगे।

प्रगति दुर्गति तथा स्वर्ग नरक मनुष्य स्वयमेव ही रचता है।


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