गुरुकथामृत-12 - सद्गुरु सच्चा सूरमा

April 2001

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

श्री कबीर साहब ने लिखा है-

सतगुरु की महिमा अनंत, अनंत किया उपकार। लोचन अनंत उघड़िया, अनंत दिखावणहार॥

“सद्गुरु की महिमा अपरंपार है। उन्होंने शिष्य पर अनंत उपकार किए हैं। उनने विषय-वासनाओं से बंद शिष्य की आँखों को ज्ञान द्वार खोलकर उसे सान्त नहीं अनंत तत्व ब्रह्म का दर्शन करा दिया है।” आगे इसी प्रसंग में वे लिखते हैं-

भली भई जु गुर मिल्या, नहीं तर होती हाँणि। दीपक दिष्टि पतंग ज्यूँ, पड़ता पूरी जाँणि॥

“अच्छा हुआ कि सद्गुरु मिल गए, वरना बड़ा नुकसान होता। जैसे सामान्यजनक पतंगे के समान माया की चमक-दमक में पड़कर नष्ट हो जाते हैं, वैसे ही मेरा भी नाष हो जाता। जैसे पतंगा दीपक को पूर्ण समझ लेता है, सामान्यजन माया को पूर्ण समझकर उस पर अपने आपको निछावर कर देते हैं। वैसी ही दशा मेरी भी होती।”

गुरु के माहात्म्य को सद्गुरु कबीर से अच्छा और कौन समझा पाता है। परमपूज्य गुरुदेव के प्रसंग में जब भी हम उनके लीला संदोह के विषय में गहरा और गहरा चिंतन करते हैं, तो यही बोध होता है कि कितने भाग्यशाली हैं हम, जिन्हें ऐसे गुरु मिले। उनके ही हाथों से लिखा 7 सितंबर 1967 का एक पत्र यहाँ उद्धृत कर रहे हैं-

“रामकृष्ण परमहंस के रूप में देखना एक सत्य है। हमारे उस जीवन में भी आप हमारे साथ बहुत अधिक संबद्ध रहे हैं। वे ही स्मृतियाँ अब उभर आती हैं।”

रामकृष्ण परमहंस के रूप में देखना एक सत्य है। हमें उस जीवन में भी इसे मात्र बहुत अर्थात् संवत् रहे हैं। वे ही पहले अब भी आती है।

स्वप्न में शिष्य ने जैसा देखा, लिख दिया। गुरुसत्ता ने स्पष्टीकरण कर बोध करा दिया। सद्गुरु के रूप में हमारे बंद चक्षुओं को खोलकर ज्ञान का, सत्य का मार्ग दिखाना गुरु का कार्य है एवं वह उसे बखूबी करता है। जीवन-साधना के पथ में एकमात्र पथ प्रदर्शक गुरुसत्ता ही है। वे कदम-कदम पर साथ चलकर मार्गदर्शन करते हैं। अंधेरी गलियों को प्रकाशवान् बनाते हैं। इसी प्रकार एक साधक को 28-11-1951 को लिखा एक पत्र यहाँ पठनीय हैं।

“आपकी साधना ठीक गतिपूर्वक चल रही है। आपका व्यावहारिक जीवन जिस स्थिति में हो, उसी के अनुरूप मनोदशा रहे, इसका हम प्रयत्न करते हैं। अधिक उत्साह एवं आवेश उत्पन्न हो जाए, तो आपको बाह्य जीवन में उलट-पलट करनी पड़ेगी। इसलिए हम यह प्रयत्न करते रहते हैं कि शांत तरीकों से चुपचाप आपका अंतरात्मा पकता रहे और व्यावहारिक जीवन में कोई उलट-पुलट न आने पाए। अन्यथा आप गृही से विरागी हो सकते हैं। वह स्थिति आपके कर्म बंधनों को पूरा होने तक, गृहस्थ का उत्तरदायित्व हल्का होने तक आ जाना ठीक नहीं।”

आपकी साधना ठीक शांतिपूर्वक चल रही है। आप का व्यवहारिक जीवन निर्वात में हो उसी के अनुरूप आदेश रहे उसका हम प्रकट करते हैं। आवश्यक उत्तम एवं आवेश उत्तक हो जाये तो आपको बाह्य जीवन में उलट पलट करनी पड़ेगी। इसलिए हम पर प्रसन्न करते रहते हैं कि षाना तरीकों से चुपचाप आपका अंतःकरण एकता रहे और व्यवहारिक जीवन में कोई से उलट पलट न आने वाले। आपका आप नहीं में निराशी हो सकते हैं। वह स्थित आपके कर्म वक्रतों को पूरा होने तक गृहस्थ कर एक आस्तिक हलका होने तक ठीक नहीं।

साधना संबंधी व्यावहारिक मार्गदर्शन कितना गहरा हैं, यह यहाँ देखा जा सकता है। अक्सर होता यह है कि अति उत्साह में व्यक्ति कुछ ज्यादा ही करने की सोचता है। बहिरंग जीवन अस्त-व्यस्त होने लगता है। परिवार में सभी गड़बड़ाने लगते हैं। साधारण सद्गृहस्थ बने रहकर साधना करना आसान हैं, परंतु उस समय अत्यधिक आवेश के कारण वैरागी होने का, घर से भागकर कहीं निर्जन में तप करने का मन करता है, तब यह मार्गदर्शन कितना युगानुकूल है कि कहीं गृही से वैरागी होने की बात न सोच बैठना। पहले गृहस्थ के उत्तरदायित्वों को पूरा करना, कर्म बंधनों को शिथिल करना और चिंता मत करना, हम तुम्हारे साथ है, तुम्हारी अंतरात्मा को धीरे-धीरे पका रहे हैं। बस जितना बताया है उस पर चलो।

इसी प्रकार का, लगभग ऐसे ही आशय का एक और पत्र 31-3-67 को अंजार (कच्छ) के श्री लाभशंकर जी दवे को लिखा हमारे पास है। पूज्यवर लिखते हैं-

“ढलती आयु में वैराग्य उचित हैं, पर यह वैराग्य पलायनवादी-अकर्मण्य न होना चाहिए। आप भविष्य में एक उच्चकोटि के धर्म प्रचारक बनें। ब्राह्मण जीवन ऐसे ही पुनीत उद्देश्यों के लिए मिलता है। आप स्वयं प्रकाशवान् बनें और संसार में प्रकाश उत्पन्न हो, ऐसी योजना भविष्य के लिए बना लें।”

ढलती आयु में वैराग्य उचित है। वह वैराग्य, पलायनवादी अकर्मण्य न होना चाहिए। आप भविष्य में एक उच्चकोटि के धर्म प्रचारक बनें। वयस्क जीवन ऐसे ही दुर्लभ उद्देश्य के लिए मिलता है। आप स्वयं प्रकाश वान बनें और संसार में प्रकाश उत्पन्न हो ऐसी योजना बना लें।

सहज ही कभी भी इस भौतिकवादी दुनिया से वैराग्य की भावना जाग उठती है। मन चाहता है कि सब छोड़कर हिमालय चल दें, गृहस्थी की बोझभरी जिंदगी से मुक्त हो एकाकी मस्तमौला जीवन जियें, किंतु परमपूज्य गुरुदेव अध्यात्म का क, ख, ग, समझाते हैं व कहते हैं कि अकर्मण्यता वैराग्य नहीं है। धर्मप्रचार हेतु किया जाने वाला सत्कर्मरूपी पुरुषार्थ गृहस्थी में भी संभव हो सकता है और वह ज्यादा महत्वपूर्ण होता है। वे लिखते हैं कि ब्राह्मण जीवन मिला है, सही अर्थों में ब्राह्मण हैं, तो प्रकाशवान् बनें, प्रकाश का विस्तार करें। “रत्नप्रभं दिव्यमनादिरुपं दीप्तिकरं विषालम्“ से उक्ति दी है परमपूज्य गुरुदेव ने ब्राह्मण की। वही प्रारंभिक शिक्षा लाभशंकर जी को मिली। लाभशंकर दवे जी ने अपना सारा जीवन पूज्यवर की विचारधारा के प्रचार-प्रसार में लगा दिया। उनने अंजार-गाँधीधाम गायत्री शक्तिपीठ के निर्माण में महती भूमिका निभाई। कच्छ के प्रवेशद्वार पर स्थित अंजार शक्तिपीठ एकमात्र ऐसा देवालय था, जो विगत जनवरी के भूकंप के तबाही भरे महाविनाश में खड़ा रहा। एक खरोंच तक नहीं आई है, इस शक्तिपीठ व इसके आसपास के क्षेत्र में, जबकि सारा अंजार ही ध्वस्त हो गया है। उस महासत्ता की अनुकंपा पाए हमारे लाभशंकर जी आज हमारे बीच तो नहीं हैं, पर सभी उनके पुण्य-परमार्थ को बराबर याद करते हैं।

साधनाओं में साधकों को कई प्रकार की बाधाएँ आती है। कभी-कभी मन परेशान हो जाता है। ऐसे में सभी साधक अपनी मनोव्यथा पूज्यवर को लिख बैठते हैं। तब उनके उत्तर हम सबके लिए मार्गदर्शक बन जाते हैं। 12-1-61 को राठ के श्री रामस्वरूप चाचोदिया जी को लिखा पत्र इस संबंध में प्रस्तुत है।

“तप को भंग करने के लिए आसुरी शक्तियां सदा गड़बड़ी फैलाती है। प्राचीनकाल में भी ऐसे ही विघ्न आते थे, जिनके कारण ऋषि-मुनि बहुधा चिंतित रहते थे। आपके तप को भी नष्ट करने का आसुरी शक्तियों ने प्रयत्न किया है। जो सर्प, जो बालक, जो पुरुष आपके निकट घूमता रहा हैं, वह असुरत्व ही है। माता का प्रकाश प्रदीप्त होने से उसका कुछ वश नहीं चला। आपके स्वप्नों से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि दैवी और आसुरी शक्तियां आपके संबंध में अपने-अपने दाँव फेंक रही है। हमें विश्वास हैं, अंत में आपका दैवी तत्व ही सफल होगा।”

तप को करने के लिए आसुर शक्तियां एक गड़बड़ी फैलाती है। प्राचीन काल में भी ऐसे विघ्न आये थे जिसके कारण ऋषि मुनि बहुत चिन्तित रहते थे। आपके तप को भी काट करने का आसुरी शक्तियों ने प्रयास किया है। और सर्प जो बालक जो पुरुष आपके बिना घूमता रहा है वह असुरता ही है। आज तक प्रकाश प्रदीप होने से उसका भय सध नहीं चला। उसके समयों से यह प्रतीत होता है कि देवी और आसुरी शक्तियां आपके समय में अपने अपने दाँव पर नहीं है।

साधक की चिंता थी स्वप्न में होने वाले कई तरह के अनुभव। साधना में मन भी नहीं लगता था। ऐसे में स्पष्ट मार्गदर्शन मिलते हैं। आश्वासन मिलते ही साधना सफलता की ओर अग्रगामी होने लगती है।

कई बार साधकों को उच्चस्तरीय आनंद की साधना के माध्यम से अभीप्सा रहती है। मन उसे पाने को लालायित हो उठता है। लगता है कि गुरुसत्ता अभी उन साधना सूत्रों को हमें बता नहीं रही है। बारंबार आग्रह करने पर पूज्यवर का उत्तर इस प्रकार होता था। 12/2/54 को श्री धर्मपाल सिंह जी (चाँदपुर बिजनौर) को लिखा पत्र इस संबंध में द्रष्टव्य है।

“आनंद मनोलय का एक लक्षण है। कर्मयोग में वैसा आनंद नहीं आता, पर कर्तव्यपालन का संतोष रहता है। यह संतोष ही कर्मयोग का आनंद है। आप अपने मार्ग पर दृढ़ता पूर्वक बढ़ते चलें। मनोलय के आनंद की चिंता न करें, क्योंकि वह भी इंद्रिय आनंद से कुछ ऊँचा, एकाग्रताजन्य मानसिक आनंद ही है। साधना से शुद्ध हुआ आत्मा जब अपनी मूल स्थिति को पहुँचता है तो वह स्वयं ही आनंदमय हो जाता है।”

आनंद मनोलय कर एक लक्षण है। कर्म योग में वैराग्य आनंद नहीं आता पर कर्तव्य पालन कर संतोष रहता है। यह संतोष ही कर्मयोग का आनंद है। आप अपने मार्ग पर दृढ़तापूर्वक बढ़ते चलें। मनोलय में आनंद की चिंता न करें क्योंकि वह भी इन्द्रिय आनंद से एकाग्रताजनक मानसिक आनंद ही है। साधना से शुद्ध हुई आत्मा जब अपनी मूल निर्वात में पहुंचती है तो वह स्वयं तो वह स्वयं ही आनंद हो जाता है।

कितना सरल-सुँदर स्पष्टीकरण है एवं उंगली पकड़कर किया गया मार्गदर्शन है। सद्गुरु के माहात्म्य का इसी कारण ग्रंथों में गायन किया गया है। बार-बार यही बात कही जाती है कि आत्मिक प्रगति के क्षेत्र में अवलंबन गुरुसत्ता का ही लें। हमारे जो भी संशय हैं, वे स्वतः ही दूर हो जाते हैं। जो हम चाहते हैं, फिर हमें वही उपलब्ध होने लगता है।

कबीरदास जी ने सही ही कहा है-

सतगुरु साँचा सूरिवाँ, तातैं लोहिं लुहार। कसणी दे कंचन किया, ताई लिया ततसार॥

“सदगुरु सच्चा सूरमा हैं, जो लोहे के समान तामसिक वृत्ति से भरे शिष्य को भी साधना की आग में गरम कर आकार दे देता है। उसका तमस दूर करता है। (यहाँ गुरु का द्रष्टाँत लोहार (थूरमा) और शिष्य का तमस भरे लोहे से दिया गया है।) दूसरी पंक्ति में गुरु को सुनार कहा गया हैं, जो सोने के समान शिष्य को साधना की आग में गरम कर शुद्ध करता है और ज्ञान-कसौटी पर घिसकर उसकी शुद्धता प्रमाणित करता है।”

कबीर को समझ लिया तो हमने सद्गुरु को समझ लिया। परमपूज्य गुरुदेव की लेखनी को समझ लिया, तो हमने गुरुतत्त्व के मर्म को जान लिया। ऐसे में एक अंतिम पत्र और देख लें। सब कुछ स्पष्ट हो जाएगा। यह पत्र 3/2/51 को भिण्ड म.प्र.) के श्री राममूर्ति दीक्षित को लिखा गया था।

“हम तुम्हारी आत्मा में अधिक तीव्र ब्रह्मतेज प्रवेश करने के उद्देश्य से पिछले दिनों कई बार भिंड गए हैं। उसी सूक्ष्म यात्रा को तुमने स्वप्न में देखा है। वह केवल स्वप्न नहीं हैं, वरन् एक सच्ची अनुभूति है।

पिछले जन्म में तुम उच्च कोटि के तपस्वी थे। कुछ साधना शेष थी। उसे पूरा करने तथा कुछ प्रारब्ध भोगने को शेष थे, इन्हें भोगने को यह जन्म लेना पड़ा। अब उस पूर्व लक्ष्य की ओर ही अधिक ध्यान देना चाहिए। साँसारिक माया में फिर पैर फंस जाए, तो पीछे वह उद्देश्य नष्ट हो जाएगा और चौरासी के चक्र में फिर लाखों वर्ष घूमना पड़ेगा। इस झंझट से सावधान करने के लिए हम अक्सर तुम्हारी सूक्ष्म चेतना को स्पर्श करने जाया करते हैं।”

पिछले जनम में तुम उच्च कोटि के तपस्वी थे। इस साधना शोक के लिए करने के लिये शेष नहीं है।

बिना किसी व्याख्या के यह प्रसंग यहीं समाप्त करते हैं।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118