ज्ञान, भावना और कर्म तीनों अपने आपको ज्येष्ठ बताया करते थे इसके लिए झगड़ा हो गया। निपटारे के लिए तीनों ब्रह्माजी के पास गए। ब्रह्माजी बोले, “जो आकाश को छू ले वही बड़ा है।” ज्ञान सूर्य तक पहुँचा। आगे उसकी गति न थी। भावना ने छलाँग लगाई, तो आकाश के दूसरे छोर में पहुँच गई, पर नीचे न उतर पाई, वही लटकी रह गई। कर्म ने सीढ़ियां बनानी शुरू की, पर दोपहर तक ही थक गया। ब्रह्मा ने तीनों को दुबारा बुलाकर समझाया कि तुम्हारी पूर्णता साथ-साथ रहने में ही है, अकेले तीनों अधूरे हैं।
इनमें से एक भी कम अधिक होने पर व्यक्तित्व के उठने गिरने का कारण बन जाता है। कई बार प्रारंभिक जीवनक्रम अच्छा होने पर भी, संवर्द्धन का साधन क्रम न बने रहने से आचरण भ्रष्ट होने लगता है और यह पतन का कारण बनता है। आज बहुसंख्य व्यक्ति इसी समूह के अंतर्गत आते हैं।
एक गाँव में आग लग गई। सभी आदमी तो सुरक्षित भाग निकले, पर दो वृद्ध ऐसे थे, जो भाग नहीं सकते थे, एक अंधा, एक पंगा। दोनों ने एकता स्थापित की, अंधे ने पंगे को कंधे पर बैठा लिया, पंगा रास्ता बताने लगा और अंधा तेज दौड़ने लगा, दोनों सकुशल बाहर आ गए। सहयोग का अर्थ ही है- अनेक तरह की सामर्थ्यों से एक परिपूर्ण शक्ति का उद्भव।
बंदा वैरागी अपने युग की, समय की पुकार की अवहेलना कर संघर्ष में न लगकर एकाँत साधना कर रहे थे। उन्हीं दिनों गुरुगोविंद सिंह की वैरागी से मुलाकात हुई। उन्होंने एकाँतसेवन को आपत्तिकाल में हानिकारक बताते हुए कहा, “बंधु! जब देश, धर्म, संस्कृति की मर्यादाएँ नष्ट हो रही हैं और हम गुलामी का जीवन बिता रहे हैं, आतताइयों के अत्याचार हम पर हो रहे हैं, तब तक यह भजन-पूजन, ध्यान-समाधि आदि किस काम के हैं?” गुरुगोविंद सिंह की युक्तियुक्त वाणी सुनकर बंदा वैरागी उनके अनुयायी हो गए और गुरु की तरह उनने भी आजीवन देश को स्वतंत्र कराने, अधर्मियों को नष्ट करने और संस्कृति की रक्षा करने की प्रतिज्ञा की। इसी उद्देश्य के लिए बंदा वैरागी आजीवन प्रयत्नशील रहे। मुसलमानों द्वारा वैरागी पकड़े गए। उन्हें एक पिंजरे में बंद किया गया। मौत या धर्म परिवर्तन की शर्त रखी गई, लेकिन वे तिल मात्र भी विचलित नहीं हुए। अंततः आतताइयों ने उनके टुकड़े-टुकड़े कर दिए। बंदा अंत तक मुस्कराते ही रहे। भले ही बंदा मर गए, परंतु अक्षय यश और कीर्ति के अधिकारी बने।