डोलती धरती दे गई है हमें शिक्षण

April 2001

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26 जनवरी 12 की प्रातः 8.5 की वेला में भारत के पश्चिमी भाग में आए भूकंप ने तबाही और विनाश का जो मंजर खड़ा कर दिया है, उसने सबका ध्यान पुनः प्रकृति के इस रौद्र रूप की ओर खींचा है। भूकंप पहले भी आते रहे हैं, किंतु इक्कीसवीं सदी के आते-आते जिस तेजी से उनके आने की अवधि और समीप आती आ रही है एवं जिस तीव्रता से वे आते जा रहे हैं, हम सभी को सतर्क करने के लिए काफी हैं। 1819 से 195 तक की प्रायः एक सौ तीस वर्ष की अवधि में प्रति 13 वर्ष में एक बार भारत में कहीं भूकंप आता था। 195 से 1975 के बीच में यह अवधि घटकर 6.25 वर्ष रह गई। अब 1988 से 12 के बीच प्रति दो वर्षों में तबाही लाने वाले भूकंप सतत आ रहे हैं। इस रिपोर्ट से हमें अभी से सावधान हो जाना चाहिए एवं विकास के विषय में अपनी रणनीति पर विचार करना चाहिए।

बढ़ती जा रही है तीव्रता इन भूकंपों की

1819 में कच्छ-गुजरात (जहाँ अभी ताँडव नृत्य हमने देखा है) में 8. रीक्टी स्केल की तीव्रता का, 1918 में मध्य आसाम में 7.3 तीव्रता का, 1930 में धुबरी आसाम में 7.1 की तीव्रता का, 1934 में बिहार नेपाल सीमा पर 8.3 तीव्रता का तथा 1941 में अंडमान में पुनः 8.5 की तीव्रता का, 1956 में अंजार गुजरात में 7. की तीव्रता का, 1967 में कोयना महाराष्ट्र में 6.5 की तीव्रता का तथा 1975 में किन्नौर हिमाचल में 6.2 की तीव्रता का भूकंप आया। 1988 में 7.2 की तीव्रता का भूकंप भारत-वर्मा सीमा पर आया था। इसी वर्ष पुनः बिहार-नेपाल सीमा पर 6.5 की तीव्रता का कंपन हुआ था। 1999 में उत्तरकाशी (6.6), 1993 में लाटूर महाराष्ट्र (6.8) हम सबकी याद में अभी भी ताजा है। अब उसी शृंखला में भुज गुजरात में 7.9 की तीव्रता का यह भूकंप आया हैं, जिसने पूरे कच्छ व सौराष्ट्र के बहुत बड़े भाग, अहमदाबाद-सूरतनगर में तबाही लाकर यह चेतावनी दी है कि अब इनकी तीव्रता और भी अधिक होगी, तबाही भी अधिक होगी।

क्यों आ रहे हैं ये हिचकोले

इस बीच इन पंक्तियों के लिखे जाने तक भूकंप के पाँच सौ से अधिक झटके इस क्षेत्र में आ चुके हैं तथा एलसल्वाडोर, टर्की, इंडोनेशिया, चीन एवं सिएटल वाशिंगटन (अमेरिका का उत्तर पश्चिमी तट) भूकंप से बुरी तरह प्रभावित हो चुके है। यह सब विगत दो माह में ही हुआ है। भारत के विषय में सारे विश्व के भू-वैज्ञानिकों का कहना है कि यहाँ तेजी से भूगर्भ के नीचे ऊपर की ओर टेक्टाँनिक प्लेट्स के खिसकाने की प्रक्रिया जारी है। पृथ्वी के ऊपरी पटल में ठोस चट्टानों की कई विशाल परतें हैं, जो अपने अंतिम छोरों पर गतिमान रहती है। इन छोरों को प्लेट बाउंड्रीज भी कहा जात है। ज्यादातर भूकंप इन परतों के अंतिम छोरों या फिर परतों में मौजूद दरारों (फाल्ट लाइन्स) से शुरू होते हैं। गुजरात का भूकंप भी इसी तरह का था।

हैदराबाद के ‘नेशनल जियोफिजिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट’ के वैज्ञानिकों के मुताबिक समुद्रतल हर वर्ष पाँच सेंटीमीटर की दर से उत्तर पूर्वी दिशा में बढ़ रहा है। साथ ही सौराष्ट्र की जमीन विपरीत दिशा में घूम रही है। इस तरह हर 25 से 3 साल में समुद्रतल 125 से 15 सेंटीमीटर फैल रहा है। यही वजह है कि न सिर्फ सौराष्ट्र बल्कि उसके दूसरे छोर हिमालय में भी भूकंप का कारण बन रहा है। प्लेट टेक्टाँनिक थ्योरी की व्याख्या से समझाते हुए वैज्ञानिक कहते हैं कि भारतीय प्लेट में कटाव और उठान हो रहा हैं, जो कि भूकंप का कारण बनता जा रहा है।

तीव्रता का एक अनुमान

वैज्ञानिकों के अनुसार 8 की तीव्रता का भूकंप लगभग 1 मिलियन टन टी.एन.टी. के विस्फोट के बराबर होता है। 1973 में ताँगशान (चीन) जिसमें 65 लोग मरे थे, प्रायः 7.9 स्केल का था एवं इससे अधिक तीव्रता का 8.9 की तीव्रता का भूकंप क्वीटो इक्वेडोर (लातिनी अमेरिका) में आया था। इससे 1.25 मिलियन टन ऊर्जा का विस्फोट हुआ था। हिरोशिमा में हुआ बम विस्फोट इसके दस हजारवें हिस्से के बराबर मात्र का था, इससे भूकंप के महाविनाश की कल्पना की जा सकती है।

भूकंप का पूर्वानुमान असंभव क्यों?

अभी तक कोई ऐसी तकनीक नहीं विकसित हो पाई हैं, जिससे कि पहले से भूकंप की चेतावनी दी जा सके। आइ. आइ. टी. मुँबई के डॉ. पी. बनर्जी कहते हैं कि जापान व अमेरिका के पास भी भूकंप का पूर्वानुमान लगाने वाली कोई विधा नहीं है, जबकि वहाँ अक्सर भूकंप आते हैं। यदि ऐसा होता तो वे 1994 में कैलीफोर्निया व 1995 में कोबे (जापान) में आए अति विनाशकारी भूकंप का पता पहले लगा लेते। भारत में दो प्रमुख पट्टियाँ हैं, तो भूकंप से जुड़ी है, ‘मेन सेंट्रल थ्रस्ट’ एवं ‘मेन बाउंड्री फाल्ट’। ये दोनों ही हिमालय क्षेत्र में दो हजार किलोमीटर तक फैली हैं। इतने विशाल क्षेत्र पर नजर रख पाना संभव नहीं। चीनी शोधकर्त्ताओं के अनुसार भूकंप जाने से पहले जीव-जंतु अजीबोगरीब हरकतें करना शुरू कर देते हैं। कैसे इन्हें पहचाना जाए, यह कह पाना संभव नहीं है। वर्तमान गुजरात भूकंप के समय भी कई ऐसे व्यवहार देखने में आए, पर उनसे यह कह पाना मुश्किल था कि भूकंप की त्रासदी से बचा जा सकता था।

पच्चीस वर्ष पूर्व 1975 में हाइचेंग नामक मंचूरियन शहर को चीन के अधिकारियों ने खाली कराके 1 ़ जिंदगी बचा ली थीं। कंपनी-हिचकोलों की बढ़ती तीव्रता एवं पानी के स्तर का ऊँचा-नीचा होना। 7.3 की स्केल पर उनने मापन किया था व उतना ही वह निकला। प्रतिवर्ष दस लाख से अधिक भूकंप के झोंके सारे संसार में आते हैं, अकेले जापान में एक हजार प्रतिदिन। मात्र पिछले तीस वर्षों में ‘प्लेट टेक्टोनिक्स’ के अध्ययन के द्वारा हम जान पाए हैं कि इनमें से कितने वास्तव में कितने खतरनाक होते हैं। फिर भी यह कह पाना असंभव है कि कब-कहाँ कितनी तीव्रता का भूकंप आने वाला है।

वैज्ञानिक बढ़ते भूकंपों का कारण मात्र प्राकृतिक ही नहीं मानवी बताने लगे हैं। भूगर्भीय अणु-आयुधीय परीक्षण, रत्नगर्भा भूमि का अनंत सीमा तक दोहन, बाँधों में जमा पानी के भार से बढ़ता भूगर्भीय दबाव तथा अवशिष्ट द्रव्यों का भूमि की सतह से नीचे रिसते चले जाना। भूकंपों के आने की प्रक्रिया को बलवली कर देते हैं, ऐसा उनका मत है ।

14 जनवरी के ‘द वीक’ साप्ताहिक पत्रिका के अंक में भूकंपों के आने की भविष्यवाणियाँ पक्की थीं। इसमें आर नारायप्रान डॉ. प्रार्थ सारथी प्रेम ऊषा के मन राव भोजराज द्विवेदी एवं के एन सामयाजी आदि सभा न जनवरी 12 से 22 के बीच भूकंपों की शृंखला व दुर्घटनाओं की बाढ़ के विषय में लिखा था। अब यह तो कोई भी न कह सका कि यह अंक पहुँचने के 1 दिन के भीतर ही यह सब हो जाएगा।

नुकसान इतना न होता यदि सावधानी रही होती

वस्तुतः भूकंप में नुकसान धरती हिलने से कम हमारे आश्रयस्थलों-मकानों की छतों के गिरने से अधिक होता है। जितने भी व्यक्ति मरे हैं, वे सीमेंट-कंक्रीट के मलबे में दबने से मरे हैं। भूकंप संवेदनशील स्थान होते हुए भी निर्माण में जिस तकनीक का उपयोग होता चला आया है, उसने सर्वाधिक जान-माल की क्षति की हैं। अहमदाबाद-सूरत में जहाँ बड़ी बहुमंजिला इमारतें गिरी हैं, वहाँ निर्माण के लिए उपयुक्त सामग्री तो घटिया पाई ही गई है, यह भी देखा गया कि वे उन क्षेत्रों में बनी थीं, जहाँ पहले कभी खाली स्थान था, पानी था व उसे भरकर रहने योग्य बना दिया गया। शहरीकरण का वर्तमान स्वरूप कितना त्रासदायक होता है, यह वही जानता है, जिसने अहमदाबाद-सूरत ही नहीं, भुज-अंजार-भचाऊ क्षेत्र में सीमेंट-कंक्रीट का समुद्र देखा है, जिसमें लाशें व सामान एकाकार होकर लुप्त हो गए थे।

भवन निर्माण विशेषज्ञों का मानना है कि यदि सही मानकों का निर्धारण कर समुचित सुरक्षा के उपाय रखे जाएँ, उनका परिपालन भी किया जाए, तो प्राकृतिक आपदाओं से होने वाले विनाश से बचा सा सकता है। भुज और अहमदाबाद की गगनचुँबी बिल्डिंगों के विषय में यही कहा जा रहा है कि इन नियमों को ताक पर रखकर निर्माण किया गया। नक्शे पास करने में होते भ्रष्टाचार को भी इस महासंहार का कारण माना जा सकता है। यही कारण है कि इतनी ही तीव्रता का भूकंप 1993 में लॉस एंजेल्स में आता है, तो धन की हानि तो होती हैं, किंतु मात्र चार आदमी मरते हैं, 12 में सिएटल में आता है, तो मात्र एक व्यक्ति मरता है, वह भी भूकंप से नहीं हार्ट अटैक से।

मत्स्य पुराण देता है समाधान

वास्तु विज्ञान के मुताबिक किसी भी भूकंपसंवेदी क्षेत्र में जब निर्माण किया जाए, तो कुछ सतर्कताओं का पालन अवश्य किया जाए। मकान या भवन का दक्षिण-पश्चिमी कोना भारी-भरकम बनाया जाए। भवन निर्माण के दौरान दक्षिण-पश्चिमी कोने की दीवारों की चौड़ाई बढ़ा दी जाय। यदि मकान बनाते समय इस बात का ख्याल न रखा गया हो, तो इस कोने में लोहे के भारी-भरकम संदूक, ट्रंक या मशीनरी रख देने चाहिए। मत्स्य पुराण कहता है कि आवास के उत्तर-पूर्वी कोने को हल्का और खुला ही रखना चाहिए। यह इसलिए कि भूकंप की चुंबकीय तरंगें उत्तर से दक्षिण को ओर चलती हैं।

यह भी इसमें उल्लेख है कि भूखंड की पहले गाय के गोबर द्वारा शुद्धि की जाए, दक्षिण-पश्चिमी कोने की नींव भारी कंक्रीट, सीमेंट और स्टील के मेल से रखी जाए। किसी पवित्र नदी की रेत की परत भी नींव में लगाई जाए, जो कम-से-कम 1 इंच मोटी हो। भूखंड जिस पर निर्माण होना है, न अधिक पथरीला हो, न रेतीला। चूने और राख के सम्मिश्रण का भी निर्माण में प्रयोग हो।

आबादी बढ़ रही है, 12 के आगमन के साथ ही प्रकृति ने चेतावनी दे दी है। यही समय है कि हम सँभल लें। गुजरात कुछ वर्षों में पुनः बस जाएगा, पर जो घाव छोड़ गया है, वे अभी वर्षों नहीं भरेंगे। दैवी आपदाएँ हमें दंड भी देती हैं, शिक्षण भी लेने को कहती हैं। अब हम नादान बने रह तथाकथित विकास की दिशा में अनवरत चलें, तो महाविनाश होना ही है।


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