क्यों आते है साधना क्षेत्र में विघ्न

November 1998

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परमपूज्य गुरुदेव ने साधनात्मक उपचारों के संबंध में लिखा है कि” ये उपचार (उपासना आदि) तो मात्र रेलवे लाइन पर खड़े सिगनल-सड़क पर लगे संकेत-पट मात्र है जो दिशा-निर्देश भर करते है। इन्हें ही हमें सब कुछ नहीं मान लेना चाहिए। संदर्भ है साधना के क्षेत्र में प्रवेश करने वालों के मार्ग में आने वाले विघ्नों का। जब ये विघ्न आते है। तो उन्हें अधिकांश पहचान नहीं पाते एवं कभी-कभी अपनी अनुभूति के प्रतीक रूप में मानकर भ्रमित भी हो जाते है।सामान्य साधना-उपचार है जप-प्राणायाम-ध्यान। इनके साथ-साथ सामान्यतया व्रत-उपवासों का निर्वाह भी होता रहता है। कभी इनको करते समय शरीर में गर्मी चढ़ती दिखाई देती है तो कभी चींटियाँ चलती अनुभव होती है। कभी-कभी ऐसा अनुभव होता है मानों सिर उड़ा जा रहा है। चक्कर आते है व लगता है चारों ओर की दुनिया घूम रही है। मन भी साधना के दौरान बहुत भागता है, स्थिर नहीं रह पाता।

साधना-विज्ञान के ज्ञाता कहते है कि किसी भी साधनापथ के पथिक को उपासना-साधना-जप-प्राणायाम के दौरान होने वाले इन अनुभवों के मूल कारण को समझ उसने उपचार के विषय में अच्छी तरह जान लेना चाहिए। नहीं तो बार-बार साधना की सफलता न मिलने पर निराशा का सामना या मतिभ्रम के कारण व्यवधानों को अनुभूति का एक हिस्सा मान लेने की विडम्बना झेलनी पड़ेगी।

सामान्यतया बुद्धि विचारों की भाषा समझती है एवं मन चित्रों की। जैसे ही हम जप या ध्यान अथवा दोनों साथ-साथ के क्रम में बैठते है तो बुद्धि शांत हो जाती है किंतु को मूर्त रूप देने लगता है। ध्यान की गहराई में ही संस्कार मूर्त रूप ले पाते है। सबसे पहली आवश्यकता है सात्विकता का परिमाण बढ़ाने की। यदि आत्मपरिशोधन नहीं हो पाया सतोगुण नहीं बढ़ा तो मन हमेशा अस्थिर ही बना रहेगा, साधना क्षेत्र में सफलता तो दूर कुछ कदम भी आगे बढ़ पाना शक्य नहीं हो सकेगा। जप करते समय यदि हमें ऐसा भान हो कि हमारा सिर उड़ रहा है-दुनिया घूमती दिखाई दे रही है। तो मानना चाहिए मुखचक्र-अग्निचक्र के परिपाक के कारण शरीर में पित्त बढ़ रहा है-अम्ल की प्रधानता हो रही है। ऐसे में आहार को साधक के स्तर का बनाने का प्रयास किया जाना चाहिए। तला-भुना मिर्च मसाले प्रधान भोजन को कम करके सात्विकता का परिमाण बढ़ाना चाहिए।। दूसरी शिकायत प्रायः यह होती है कि चींटियाँ रेंग रही है अर्थात् मानसिक अस्थिरता-चंचलता बरकरार है।तीसरी शिकायत यह होती है कि जप करते-करते नींद आ जाती है। यह हमारा तमस् है। वर्षों के संचित कुसंस्कारों के कारण भी यह हो सकता है एवं भारी खाना खाकर जप करने या स्वभाव से ही अधिक खा लेने के कारण भी ऐसा हो सकता है। आहार में संतुलन बिठाकर शनैः−शनैः जप करते-करते ही यह गायब होगा। यदि जप करते समय मन भागता है तो यह हमारे अंदर सात्विकता की कमी के कारण है। जब तक ध्यान में बैठने वाले को अंदर से आनंद न आए उसे यह मानना चाहिए कि कही न-कही तमोगुण हावी है रजोगुण थोड़ा ही है एवं सतोगुण होने में अभी देरी है। ध्यान में मन ऐसा लगना चाहिए जैसे कि उसके समक्ष सारी दुनिया का कोई अस्तित्व नहीं है। जैसे किसी को नशे की लत लग जाती है वैसे ही हमें ध्यान की लत लगनी चाहिए कि उसके बिना काम नहीं चले मन आकुल-व्याकुल हो जाए।

श्री रामकृष्ण परमहंस एक अफीमची मोर का उदाहरण देकर अपने दो भक्तों पर उसे लागू करते थे। ईशान चंद्र कवि एवं मास्टर महाशय बार-बार भागकर अपने आराध्य के पास चले आते थे। सत्संग की कुछ ऐसी धुन-श्रीरामकृष्ण के सान्निध्य में बैठने की कुछ ऐसी उमंग मन में बनी रहती थी कि जब भी अवकाश मिलता वे दक्षिणेश्वर आ जाते। श्रीरामकृष्ण कहा करते थे कि एक सुंदर बगीचे का माली एक मोर को वहाँ आते देख बड़ा प्रसन्न होता था। उसके आने से बगीचे के सौंदर्य में चार-चाँद लग जाते थे। उसने मोर को अफीम खिलाना आरंभ की-थोड़ी-थोड़ी मात्रा बढ़ाता जाता ताकि उसे रोज आकर खाने की लत पड़ जाए। फिर वह वही रहने लगा। ऐसे अफीमची मोर से यदि काबू में रख उसे भगवान में लगाना है तो उसी स्तर का अंदर से आनंद ध्यान प्रक्रिया के दौरान पैदा करना होगा। यह नियमितता व प्रगाढ़ विश्वास के स्तर पर होने लगे उसके लिए हर साधक को प्रयासरत होना चाहिए। सोर विघ्न राजसिकता व तामसिकता के स्तर पर होते है। जैसे-जैसे सात्विकता बढ़ती है आत्मपरिशोधन का पथ प्रशस्त होता है साधना गहनतम होती चली जाती है।

परमपूज्य गुरुदेव ने अपने लेख ‘उपासनाएँ सफल क्यों नहीं होती? (मार्च १९८२) में लिखा है-घृत सेवर का लाभ वही उठा सकता है जिसकी पाचनक्रिया ठीक हो। देवता और मंत्रों का लाभ वे ही उठा पाते है जिनने अपने व्यक्तित्व की भीतर और बाहर से विचार और आचार से परिष्कृत बनाने की साधना कर ली है। जो बताए हुए अनुपात और पथ्य का भी ठीक तरह से प्रयोग करते है। अतः पहले आत्म-उपासना फिर देव-उपासना की शिक्षा ब्रह्मविद्या के विद्यार्थियों को दी जाती रही है। लोग उतावली में मंत्र और देवता के भगवान और भक्ति के पीछे पड़ जाते है इससे पहले आत्मशोधन की आवश्यकता पर ध्यान नहीं देते।

आत्मशोधन हेतु-सात्विकता का परिमाण बढ़ाने के लिए क्या किया जाना चाहिए उसके लिए तत्त्ववेत्ता बताते है कि स्थूल दृष्टि से हमें अपना आहार सात्विक बनाना चाहिए एवं समय-समय पर व्रत-उपवास कर शोधन हेतु अवकाश देना चाहिए। श्रीमद्भागवत् गीता में योगीराज श्रीकृष्ण कहते है।

कट्वम्लवणात्युश्णतीक्ष्ण रुक्षविदाहिनः। आहारा राजसस्येश्टा दुःखषोकामयप्रदाः॥

यातयामं गतरंस पूति पर्युशितं च यत्। उच्छिश्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम्॥

अर्थात्-कड़वे-खट्टे-लवण-युक्त-बहुत गरम, तीखे, रूखे दाहकारक और दुःख चिंता तथा रोगों को उत्पन्न करने वाले आहार अर्थात् भोज्यपदार्थ राजस पुरुष को प्रिय होते है। जो भोजन अधपका रसरहित, दुर्गंधयुक्त वासी और उच्छिष्ट है तथा जो अपवित्र भी है वह भोजन तामस पुरुष का प्रिय होता है।”

हम सबको उपर्युक्त परिप्रेक्ष्य में अपने आहार का विश्लेषण करना चाहिए। यदि हम तामसी आहार से बचकर सात्विक आहार की ओर बढ़ सकें तो जप में ध्यान न लगने की शिकायत-आध्यात्मिक प्रगति के अवरोध आते रहते के असमंजस से बचा जा सकता है। योगेश्वर कृष्ण के अनुसार रसयुक्त-चिकने और स्थिर रहने वाले (जिस भोजन का सार-प्रभाव शरीर में बहुत काल तक बना रहे) तथा स्वभाव से ही मन को प्रिय ऐसे आहार अर्थात् भोजन करते के पदार्थ ही सात्विक पुरुष को प्रिय होते है।

मोटेतौर पर जो भोजन भूख के लिए खाया जाए वह सात्विक आहार जो स्वाद के लिए क्षुधापूर्ति के लिए खाया जाए वह राजसिक एवं जो स्वाद के लिए भूख से कही अधिक खा लिया जाए वह तामसिक कहलाता है। अतः पहली अनिवार्य शर्त सत्वशुद्धि परिशोधन के लिए आहारशुद्धि तभी ध्रुव स्मृति एवं मन की तन्मयता वाली स्थिति आ पाती है। ऐसी ध्रुव-अचल स्मृति ही हमें अपनी अंतरात्मा के बारे में जो भूल गए है। जानकारी कराती है। सात्विकता संवर्द्धन हेतु व्रत-उपवास किए जाने चाहिए किंतु अतिवाद नहीं होना चाहिए। अमृताशन दाल-दलिया हरी सब्जियाँ, फल, अस्वाद व्रत आदि उपायों से व्रत सध जाता है।

सात्विकता बढ़ाने के सूक्ष्म उपायों में मन को स्वाध्याय में निरत करना एक प्रमुख उपचार है। स्वाध्याय पाठ्य पुस्तकों के पठन-मनन-रटन को नहीं कहते। जो स्वयं की ओर प्रेरित करें आत्मस्वरूप की ओर इंगित करें, वही स्वाध्याय है। स्वामी विवेकानंद कहा करते थे-एक टन पढ़ने से श्रेष्ठ है एक छटाँक पढ़ना व उस पर आचरण करना।” इसमें सर्वप्रथम है-उचित पुस्तकों का चुनाव। पहले उनकी किताबें पढ़ें जिनने आत्मदर्शन किया ईश्वरत्व की प्राप्ति की दिशा में कुछ प्रयास किया फिर उनकी किताबों का स्वाध्याय किया जाए, जिनने ईश्वरप्राप्त पुरुषों की संगति की है अथवा उनके गुणों का वर्णन किया है।

पुस्तकों को पढ़ते समय दृष्टि क्या हो? श्री रामकृष्ण के अनुसार जैसे बालू के ढेर में से चींटी शक्कर ढूँढ़ लेती है ऐसे नीर-क्षीर विवेक की दृष्टि रखकर स्वाध्याय किया जाना चाहिए। इसके बाद अगला कदम क्या हो-पढ़े हुए स्वाध्याय के प्रकाश में स्वयं को निहारा जाए। साधू-महापुरुषों के जीवन में कैसे विघ्न-बाधाएँ आयी कैसे उनने उनका मुकाबला किया हम भी अपने विकारों को ढूँढ़े अस्तित्व के सारे प्रश्न चिन्हों को ढूँढ़े व पता लगाएँ कि हमको कैसे अपनी जीवनपद्धति ढालनी चाहिए। स्वाध्याय के परिप्रेक्ष्य में हमें एक मॉडल अपने लिए बनाना चाहिए ताकि उसे अपने ऊपर लागू किया जा सके। स्वाध्याय सही होगा तो सात्विकता निश्चित रूप से आएगी।

पतंजलि ने कहा है-वीतराग पुरुषं वा चित्तं चित्त समाधि भवति” अर्थात् वीतराग पुरुषों का चिंतन करने से भी चित्त को ध्यानस्थ हो समाधि स्थिति में जाने में मदद मिलती है। मानसिक रूप से हमें हर पल महापुरुषों को परमपूज्य गुरुदेव को अन्य गुरुजनों को याद करते रहना चाहिए। हममें से जिनने अपनी गुरुसत्ता को देखा है उन्हें ईश्वर के पार्षद के रूप में देवलोक की विभूति मानकर सतत् उन्हीं का चिंतन करते रहना चाहिए। इससे हमारी भक्ति बढ़ेगी-संवेदना के तन्तु उभरेंगे-गुरुसत्ता के प्रकाश की किरण हमारे व्यक्तित्व में अवतरित होने लगेगी।

हम और भी महापुरुषों का यथा हनुमान जी-सेवक भाव के प्रणेता के रूप में, महाप्रभु ईसा-आत्मबलिदानी करुणा के अवतार के रूप में कृष्ण-पूर्णपुरुष के रूप में तथा स्वामी विवेकानंद-श्रेष्ठ शिष्य के रूप में स्मरण कर सकते है। उससे उनके गुण हमारे अंदर अवतरित हो ध्यानस्थ होने में मदद मिलेगी। यदि हम ईश्वर का परमपिता परमात्मा-इहलोक के स्वामी परमेश्वर के रूप में स्मरण करना चाहते है। तो उसके लिए मेधा अतिप्रखर व कल्पना स्पष्ट चाहिए। यह ध्यान थोड़ा कठिन अवश्य है किंतु सात्विकता का अभूतपूर्व संचार करता है। परमपूज्य गुरुदेव ने ईश्वर को सद्गुणों का समुच्चय कहा है श्रेष्ठता का समूह कहा है। सात्विकता का प्रवेश ईश्वर के सभी गुणों का ध्यान करने से स्वतः ही समाप्त होने लगते है। सात्विकता की प्रगाढ़ता के साथ-साथ स्वतः ही समाप्त होने लगते है। सात्विकता का संचार अर्थात् शरीर-मन-आत्मसत्ता रूपी खेत की निराई-गुड़ाई मात्र बीजारोपण की देरी है। वह होते ही साधना सिद्धिदायक बन जाती है। साधना वस्तुतः व्यक्तित्व को विचारों का स्नान कराना है। यह यदि नित्य होती रहे तो कषाय-कल्मष रोज धुलते रहते है। ध्यान अंतर्मन का विश्राम है। इस क्रम में और क्या विघ्न आ सकते है ऐसे कौन-से दुर्गुण है जो किसी भी साधन की प्रगतियों को अवरुद्ध ही नहीं करते-करते के द्वारा में भी ढकेल देते है। इस संबंध में विस्तृत चर्चा आगामी अंक-साधना विशेषांक में करेंगे।


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