ब्राह्मणत्व की एक जीती-जागती मिसाल

November 1998

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“जहाँपनाह! यह देखिए आज फिर भोजन बनाते हुए मेरा हाथ जल गया। बड़ी पीड़ा हो रही है। उफ़! पीड़ा से व्याकुल होकर मलिका ने बादशाह से फरियाद की। “अरे! यह क्या! तुम्हारे हाथों में तो सचमुच ही फफोले पड़ गए है।” बादशाह ने सहानुभूति भरे शब्दों में अपनी बेगम से कहा।

सचमुच ही उस दिन बेगम के हाथ भाप से फिर झुलस गए थे। बेचारी नाज़-नख़रों में पली हुई थी। उन्हें खाना पकाने का अभ्यास न था। शाही परिवार में प्रारंभिक जीवन व्यतीत करने वाली लड़की के लिए अपने हाथ से भोजन बनाना हिमालय का बोझा उठाने से कम न था।

उनके वालिद के यहाँ तो प्रत्येक काम के लिए नौकर हाजिर रहता था। शहजादी के मुँह से फरमाइश निकलते ही हुक्म का पालन होता था। दासियाँ हर समय उनकी सेवा में खड़ी रहती थीं। वे सारे दिन आराम फरमाया करती। खानसामा भोजन बनाकर शाही मेज पर लगाता। वे तो सब्जी में नमक-मिर्च के कम-ज्यादा होने तक की शिकायत किया करता। रोटी के मोटी होने या जल जाने की खराबी निकाला करती थीं। लेकिन जब से उनकी शादी बादशाह नसिरुद्दीन से हुई, तब से तो जैसे उनकी दुनिया ही बदल गयी थी।

अब तो हिन्दुस्तान की मलिका होते हुए भी उन्हें अपना खाना स्वयं ही पकाना पड़ता था। शादी के बाद उन्होंने भोजन बनाना सीखा जरूर था, पर अभी पर्याप्त अभ्यास नहीं हो पाया था। वे खुद खाना तो बनाने लगी थी, पर कई बार भाप से उनकी उँगलियाँ जल जाया करती थी। उनकी आँखें कड़वा धुँआ लग जाने से लाल हो जाती, आँसुओं की धार बह निकलती। कभी रोटियाँ कच्ची रह जाती-तो कभी जल जाती। प्रायः आटे में पानी ज्यादा गिर जाने से वह गीला हो जाता और चकले या बेलन पर बुरी तरह से चिपक जाता। उनकी बेली हुई रोटियाँ कहीं मोटी रह जातीं, तो कहीं से फट जाती। कभी छोटी रह जातीं तो कभी चकले के आकार के बराबर हो जातीं। भोजन बनाने की कला में वे स्वयं को पूरी तोर पर असफल महसूस करती। कमबख्त रोटी फूलती ही नहीं। झुँझलाते हुए वह कह उठती-खाना पकाना भी एक अजीब मुसीबत है।”

अनेकों बार उसके मन में आया कि बादशाह नसिरुद्दीन से अपनी भोजन बनाने संबंधी असमर्थता जाहिर कर दें हिम्मत कर कह डालें - “जनाब! मैं हिन्दुस्तान के शहंशाह की बीबी हूँ, कोई रोटी पकाने वाली नाचीज बावरचन नहीं। एक मलिका से अपना खाना पकवाना सरासर अन्याय है। कोई बावरचन रख लीजिए।”

ये विचार उनके दिल और दिमाग को विक्षुब्ध कर देते, पर शिकायत भरे ये लफ़्ज़ उनके होठों पर आते-आते जैसे रुक जाते। वह कुछ भी न बोल पातीं। बस उद्विग्न हो चुप रह जाती।

पर आज उनकी मनोव्यथा चरम सीमा पर पहुँच चुकी थी। वे भाजन पकाते-पकाते क्रुद्ध हो घायल सर्पिणी सी उठी और झुंझलाते हुई सीधे बादशाह नसिरुद्दीन के पास जाकर शिकायत करने लगीं।

“जहाँपनाह! यह देखिए आज आपका खाना पकाते हुए मेरा हाथ जल गया। हाय, कितनी बुरी तरह जला है? बड़ी पीड़ा हो रही है। सहा नहीं गया तो आपको दिखाने चली आयी। इसी सिद्धान्त को अंजाम देने के लिए शासन प्रबन्ध से बचे हुए समय में टोपियाँ सीते और गरीबों की तरह गुजर-बसर करते। किसी को इस गुप्त रहस्य का पता न था।

नसिरुद्दीन ने प्रेम भरी दृष्टि अपनी प्यारी बेगम पर डाली। प्रेमपूर्वक उनका हाथ अपने हाथ में लेकर देखा। वास्तव में मलिका का हाथ बुरी तरह झुलस गया था। वे मन ही मन बड़े दुखी हुए। कुछ देर तक अपलक बेगम का दुःख भरा मुखमण्डल निहारते रहे।

वे आज बड़ी विक्षुब्ध थी। जब बादशाह ने कुछ कहा नहीं, तो वे फिर कहने लगी- जहाँपनाह! इतने बड़े देश के मालिक होकर भी क्या आप रोटी बनाने के लिए .... मेरे आराम की खातिर .... एक बावरचन नहीं रख सकते? आपको मुझ पर रहम नहीं आता? आप यह सब कैसे गँवारा कर लेते हैं?

शहंशाह को बेगम के जले हाथ देखकर सचमुच बड़ा सदमा पहुँचा एक क्षण के लिए उन्होंने सोचा-मैं ही बेगम की शिकायत का गुनहगार हूँ। दुनिया की तारीख में शायद ही कोई मलिका मेरी बेगम की तरह खाविंद की रोटी पकाती होगी। मैं चाहे शाही खजाने से निजी खर्च के लिए कुछ न लूँ, पर मेरी वजह से इस बेचारी को भी परेशानी उठानी पड़े, यह और मालिकाओं की तरह आराम और सुख-सुविधाएँ न पाए, वह तो वाजिब नहीं है।

परन्तु दूसरे ही क्षण उनकी आत्मा ने उन्हें सचेत किया। उन्हें अपना कर्तव्य धर्म याद आया और अपनी बेगम को प्यार से समझाते हुए बोले-प्यारी मलिका! मुझे मुल्क का मालिका न कहो।

“आप दिल्ली के इतिहास प्रसिद्ध तख्त पर हुकूमत कर रहे हैं आपको रियाया की किस्मत का वारा-न्यारा करने का पूरा हक हासिल है। आपका हुक्म ही कानून है। फिर आप मुल्क के मालिक नहीं, तो भला दूसरा कौन है?

“नहीं, नहीं, मालिक तो सिर्फ खुदा ही है।”

“हुजूर फिर आप क्या हैं? सुनूँ तो दिल्ली का बादशाह अपने-आपको क्या मानता है?

“मैं तो एक नाचीज खिदमतगार हूँ।

शहंशाह का यह संक्षिप्त उत्तर सुनकर बेगम उलझन में पड़ गयी। वह कुछ भी नहीं समझी।

हल्की सी प्यार भरी मुस्कुराहट चेहरे पर लाकर बादशाह नसिरुद्दीन बोले-अरे मालिका! मेरी बात तो दिन के उजाले की तरह साफ है। अब उन्हें काम क्यों करना चाहिए ........ हाय! यह अभागा मुल्क ....... गलती से उन लोगों को संत महात्मा फकीर मानता है जो मेहनत रत्ती भर भी नहीं करना चाहते ........ क्रूर अमीर और भाग्यवान की यही परिभाषा है बेगम?”

बेगम सुनकर चकरा गयी। उन्होंने विषय को फिर बदला बोली-दिल्ली का सारा शाही खजाना तो आपके हाथों में हैं, इसमें खर्च करने में भला आपको कौन रोकता है?

तुम मेरा मतलब नहीं समझी बेगम! ठस सरकारी खजाने में भला मेरा क्या है?

फिर यह साम्राज्य किसका है?

अरे, यह तो सब इस मुल्क की रियाया की चीज है और उसी के कामों में ही खर्च होनी चाहिए।

परंतु खर्च करने में भला आपका हाथ कौन पकड़ता हैं? बेगम ने सुझाव दिया।

यह ठीक है कि सरकारी खजाने को यदि मैं अनुचित तरीके से भी खर्च करूँ तो आज कोई भी मेरा हाथ पकड़ने वाला नहीं है।”

इतने कहते-कहते बादशाह रुक गए।

“तो फिर आपको क्या डर है? भला आपको किसे हिसाब देना है? आपसे हिसाब माँगने की किसकी हिम्मत है?

नसिरुद्दीन कुछ देर चुप रहे। फिर बोले - आज किसी और को हिसाब भले ही न देना पड़ें। जनता के पैसे को खुद अपने काम में लाऊँ तो अल्लाह के सामने गुनहगार ठहराया जाऊँगा .........।

मलिका दिल की गहराइयों से निकली हुई इस सच्ची बात से प्रभावित हुए बिना न रही। वह अपना दुख भूल गयी। उनको अपने खाविंद की मेहनत और पाँचों उँगलियों उँगलियों की कमाई पर निर्भर रहने मालूम हो गया।

वह बादशाह की मेहनत की कमाई और ईमानदारी की तारीफ करती हुई वापस लौटते हुए सोचने लगी। वे कभी भी शहंशाह का खाना पकाने के लिए दासी की माँग नहीं पेश करेंगी।


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