भक्त के साथ स्वयं चलते हैं भगवान

November 1998

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“ आज समर्थ हैं, अधिकारी हैं, अतः आपको प्रयत्न करना चाहिए।” महर्षि वशिष्ठ के लिए अपने यजमान की यशोवृद्धि की कामना स्वाभाविक थी। फिर उनका यजमान भी तो कोई सामान्य व्यक्ति नहीं। यों तो सूर्यवंश के राजसिंहासन पर अब तक कई त्रिलोक-पूजित सुरासुरजयी पराक्रमी आसीन हो चुके थे, किंतु राजर्षि नाभाग के पुत्र परम भगवद्भक्त अम्बरीष का व्यक्तित्व तो कुछ अनोखे ही गुणों से अलंकृत था। उनकी जैसी भक्ति, इतना अकल्पनीय भगवद्विश्वास स्वयं ब्रह्मर्षि वशिष्ठ जी भी चकित रह जाते थे। इतनी नम्रता, ऐसी धर्मवत्सलता ऋषियों में भी लोकविद्युत हो। उस वजह से आज वे स्वयं राजभवन पधारे थे। महाराज ने सविधि अर्चन किया। महर्षि ने उनके संस्कार को प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करके श्रद्धांजलि, नम मस्तक सम्मुख खड़े महाराज अम्बरीष से अपनी बात कह सुनाई।

“यह जन तो आज्ञा का अनुगामी है।” बड़ी विनम्रतापूर्वक अम्बरीष कह रहे थे। “सेवक की क्या सामर्थ्य और कैसा अधिकार वह तो आपको अपरिसीम कृपा का प्रसाद है जो अनायास की इस अनधिकारी को प्राप्त हो जाया करता है। आपकी आज्ञा का पालन हो सके, तो समझूँगा। जीवन के वे क्षण धन्य हुए। राजन!आपके पूर्वज अश्वमेध पराक्रम संपन्न हुए है। आप में लोकेषणा की गंध की हैं यह मैं जानता हूँ किंतु भगवान श्रीहरि यज्ञमूर्ति है। अश्वमेध उनकी अर्चा का श्रेष्ठतम समारोह है। मैं चाहता हूँ कि आप इसका संकल्प करे और उचित प्रयत्न में लगे। “आपकी इच्छा है, अतः इस सेवक के लिए तो यह कर्तव्य ही है।” बिना एक क्षण कुछ सोचे नरेश ने स्वीकृति सूचित कर दी। “श्री चरण आवश्यक निर्देश करें। महर्षिजनों को आमंत्रित करने की धृष्टता करूँ भी, तो क्या किसी नरपति का निमंत्रण वे वीतराग तपोधन स्वीकार करेंगे? दूसरी कोई कठिनाई तो ज्ञात नहीं होती

वह सतयुग काल नहीं था। त्रेता प्रारम्भ हो गया था। पृथ्वी पर केवल मनुष्य ही नहीं थे उपदेवताओं की अनेक जातियाँ भी पृथ्वी पर थी। दानव, राक्षस, यक्ष, किन्नर, नाग, वानर, रीछ आदि सभी थे। ये सब उपजातियाँ जन्मसिद्ध अतर्क्य शक्तिशाली और उनमें से अनेक सुरासुरजयी और महामायावती भी थे। उन दिनों अश्वमेध का अर्थ था। सम्पूर्ण पृथ्वी के नरेशों को विजित करके उनसे प्रभुत्व स्वीकृति रूप कर प्राप्त करना और अम्बरीष इस अर्थ को न जानते हों, ऐसी बात तो नहीं किंतु उनकी तो अश्वमेध कर लेना एक सामान्य यज्ञ जैसा लग रहा था। ऐसी ही कुछ सामान्य भावना से स्वीकृति दे दी उन्होंने।उन्हें तो बस एक ही कठिनाई नजर आ रही थी महर्षिगण कदाचित उनका आमंत्रण स्वीकार न करें।

“ ऐसा कोई ऋषि नहीं है जो नाभाग नंदन के आमंत्रण का अनादर करने का साहस करें।” वशिष्ठ जी भरे कण्ठ बोले “महाभागवत् के अन्न से परिपूरित होने की इच्छा सुरभि करते है। आपका दर्शन एवं संलाप तो तापसौ की तरूछाया का फल है, किंतु आपकी विनय उचित है। ऋषियों को मैं आमंत्रित करूँगा। और वे आमंत्रण पाते ही प्रस्थान करेंगे, इसमें मुझे संदेह नहीं है।

“मुझे तो बस श्रीहरि की इस महती अर्चा का श्रेय मिलेगा।” अम्बरीष के नेत्रों में अश्रु आ गये। गदगद कण्ठ से वे कह रहे थे-प्रभु ही आपके रूप में पधारे हैं आप ऋषिगणों को आमंत्रित कर दे। समय एवं आवश्यक सामग्री का आदेश दे। यज्ञीय अश्व अलभ्य नहीं हैं श्यामकर्ण अश्वों की एक विशद संख्या अपने आप एकत्र हो गयी है अब देखता हूँ कि प्रभु ने ये अश्व अपनी अर्चा के लिए इस जन को दिये हैं।”

महर्षि वशिष्ठ भी एक क्षण अपने यजमान का मुख देखते रह गये। वे एक ही अश्वमेध यज्ञ की बात कहने आये थे। उन्हें इसी में संदेह लगता था कि अम्बरीष इस विशाल कार्य को करना भी चाहेंगे या नहीं लेकिन वे तो कह रहे थे कि “उनकी अश्वशाला में जितने भी श्यामकर्ण अश्व है, उतनी बार अश्वमेध उन्हें करना है अनवरत करना है। श्री हरि की अर्चा है यह, तो उसमें आलस्य कैसा?”

महर्षि भृगु तथा अंगिरा अध्वर्यु बनकर बैठेंगे तो यज्ञशाला की ओर दृष्टि उठाने का साहस भी किसी विघ्न देवता का नहीं होगा। इस सम्बन्ध में चिन्ता का कोई कारण नहीं है। रक्षा तथा विघ्न निवारण सर्वत्र न की जा सके, ऐसी बात भी नहीं है। कोई एक तपस्वी भी रुष्ट हो जाए तो दण्डधर यमराज के पाँव भी काँपने लगते है, किंतु यज्ञ की एक मर्यादा हैं। यज्ञशाला की सीमा के बाहर विघ्नकर्ता का प्रतिकार स्वयं यजमान के पराक्रम को ही करना चाहिए। इसमें भी दीक्षित यजमान शस्त्र ग्रहण नहीं कर सकता।

“ यज्ञ में अध्वर्यु की अर्चा तो आवश्यक है, किंतु पूजनीय होकर पधारेंगे वे सचिन्त क्यों हो, कहीं भी।

अम्बरीष ने सरलतापूर्वक कह दिया “सर्वत्र सबकी रक्षा तो श्रीहरि का नाम करता है। उन अनन्त करुणार्णव की उपस्थिति में पशु पर कहीं कोई विघ्न आवे इसकी आशंका ही कहाँ है? “कहीं कोई आशंका नहीं राजन!” सहसा महर्षि वशिष्ठ का स्वर अत्यंत गंभीर हो गया। “तुम जैसे नाम निष्ठभ

गवद्विष्वासी के लिए कहीं कोई आशंका नहीं। तुम्हारे कार्य में अवरोध उपस्थित करने की शक्ति कभी किसी में हो नहीं सकती।” इसी के साथ महर्षि ने तत्काल महायज्ञ के लिए आवश्यक निर्देश सचिव सेवकों को देने प्रारम्भ कर दिये।

इन तैयारियों के साथ ही विद्युत गति से यह समाचार प्रसारित होने लगा कि महाराज अम्बरीष अश्वमेध यज्ञ करने जा रहे है। इस समाचार ने साधुशील सात्विक नरेशों को हर्षित कर दिया। वे सोचने लगे हमारे सौभाग्य का उदय हुआ। उन महाभागवत के चरणों में प्रणत होकर सुर भी अपना जीवन सार्थक मानते है। उनके सम्राट होने पर उनका चरणाभिवादन करना हमारा अधिकार हो जाएगा। अन्यथा वे अतिशय विनम्र किसी को अभिवादन का अवसर देते है।

‘महाराज अम्बरीष अश्वमेध यज्ञ करेंगे एक समाचार और आया ’अमुक ने उनके यज्ञीय अश्व को अवरुद्ध करने का निश्चय किया है।

‘हमारा जीवन धन्य हो जाय, यदि उन महाभाग की अश्वरक्षा में देहपात हो ‘ बिना किसी से कहे, बिना किसी संदेश के अनेक राजधानियों में सेना शस्त्रसज्जित हो गयी। अश्व उनके यहाँ तक हो जाए तो आगे अश्व का अनुगमन वे स्वयं करेंगे। किंतु जब अश्व आया अश्वरक्षकों के साथ एक संदेश भी आया उस साधु सम्राट का “ आप सब इस जन को सेवा का सौभाग्य देकर कृतार्थ करें अश्व तो श्रीनारायण का अर्चा का उपलक्ष मात्र है, उनकी इच्छा का प्रतीक। उसके साथ जो लोग है।, पर्याप्त है वे।

अश्वरक्षक पर्याप्त है? भक्तश्रेष्ठ अम्बरीष कहते हैं तो पर्याप्त है किंतु थोड़े से रक्षक और उनके साथ भी सामान्य धनुष तथा बाण हैं। वे सैनिक कम तीर्थयात्री एवं साधु अधिक लगते हैं। उनके पास है करताले, एकतारे, जपमालिका। अश्व चलता है तो उसके पीछे सशस्त्र सावधान रक्षक नहीं चलते चलते हैं भगवद्भक्त अम्बरीष के अनुगामी,भगवनाम के अनुरागी, एकतारे की झंकृति, करताल के शब्द और उच्चस्वर से ‘नारायण हरगोविन्द ‘का गान करती कीर्तनमन्य मण्डली। अश्वमेधीय दिग्विजय यात्रा के ऐसे अद्भुत रूप की अब तक किसी को कल्पना तक भी न थी।

‘अरक्षित अश्वों साधु नरेशों को बड़ा कष्ट होता हैं। परन्तु सम्राट का आदेश टाला नहीं जा सकता उनकी वह उमंग, वह सैन्यसज्जा, उन्होंने तो आदेश की अपेक्षा भी नहीं की थी।

अब अश्व को अपनी सीमा तक सम्मानपूर्वक पहुँचाकर संतोष कर लेना था उनको। परंतु शंकित तो वे थे ही, भला इस प्रकार अश्व सुरक्षित पहुँचेगा भी?

वह तो पहुँचेगा। अम्बरीष जिसके भरोसे निश्चित हो गये हैं, वह प्रमाद करना जो नहीं जानता। अश्व अयोध्या से जिस क्षण चला, क्षीराब्धि में शेष की शय्या पर सिंधुसुता को लगा, उनके आराध्य के चरण किंचित् काँप गये है “नाथ” उन भुवनात्मिक ने पलकें उठायी।

“अम्बरीष ने अश्वमेध के लिए पूजित अश्व को प्रणिपात किया है वह कहता है अश्व की रक्षा तो हरि का नाम कर लेगा। अतः देवि...परमपुरुष ने केवल अपने ऊर्ध्व दक्षिण कर की ओर दृष्टि उठायी। इंदिरा ने देखा कि उसमें सदा उपस्थित रहने वाला चक्र वहाँ नहीं हैं।

“अम्बरीष सम्राट बनना चाहता है। उसने बिना दिग्विजय किए ही अश्व छोड़ दिया है।” बहुतों को अपने पौरुष का अपमान लगा-उसने धरा को पराक्रमहीन मान लिया है। अश्व के साथ थोड़े से अनुचर है समझता है कि कोई प्रतिकार करने वाला है ही नहीं उसका।”

“किसान कोई प्रतिकार करने वाला नहीं है? दैत्यनायक बाणासुर अपनी राजसभा में उत्तेजित हो रहा था, इतने में दानवेन्द्र मय पहुँच गये अकस्मात् वहाँ।

“अम्बरीष का अहंकार सीमा उल्लंघन कर चुका है।” बाण ने क्रोधपूर्वक कहा-उसके अश्वमेध यज्ञ का समाचार आपको मिला ही होगा।”

“मुझे चरणवन्दना के पश्चात यह समाचार भगवान चन्द्रमौलि ने दिया है।” मय मुस्कराए उन तुम्हारे नगरपाल का एक संदेश भी ले आया हूँ आप विराजे। बाण आदरपूर्वक सिंहासन से उठा “भगवान नीलकण्ठ का आदेश नित्य अनुल्लंघनीय है।”

“अम्बरीष का अतिक्रमण करने की बात भी मत सोचना “ मय ने आसन पर बैठते ही कहा-भगवान नारायण स्वयं अश्वरक्षक होते तो पिनाकपाणि तुम्हारी ओर से युद्ध में उतर सकते थे किंतु अम्बरीष के अश्व की रक्षा में नियुक्त नका सुदर्शनचक्र भक्तरक्षण में कोई व्याघात दे तो किसी की मर्यादा नहीं मानता। उसकी ज्वाला में त्रिलोकी तूल बन जाएगी।

“अम्बरीष के प्रतिकार का प्रश्न नहीं है न उसमें अहंकार का आना सम्भव है।” दानवेन्द्र कह रहे थे “वह इस यज्ञ को आराध्य का अर्चन मानकर प्रवृत्त हुआ है। और यह कोई अंतिम अश्व नहीं हैं अम्बरीष के यज्ञीय अश्वों का सम्मान करके तुम स्वयं विश्वनाथ का सम्मान करोगे। विपक्ष में खड़े होने वाले मूर्ख कम नहीं हैं विश्व में अश्व के यहाँ आने से पूर्व उनके परिणाम की सूचना तुम तक आ जाएगी और महाभाग बलि का पुत्र मूर्ख नहीं बन सकता।

सचमुच दानवेन्द्र मय का कथन अक्षरशः सत्य था। अश्व अभी शोणितपुर के समीप नहीं आया था। किंतु समाचार बहुत पूर्व आने लगे थे, कालांतर में पिशाचधिपका क्रकच ने अश्व की लगाम पकड़ ली। कोई नहीं जानता कि क्या हुआ, क्योंकि प्रचण्ड तेज के प्रकट होने से वहाँ सेना में कोई भी नहीं था जिसके नेत्र बन्द न हो गये हो। जब क्रकच के सेवक सावधान हुए अश्व अपने रक्षकों के साथ पर्याप्त आगे जा चुका था और पिशाचधिपका मस्तक पृथ्वी पर छिन्न पड़ा था। उसका सिर और धड़ दोनों इस प्रकार झुलस गये थे जैसे तुषाग्नि में भून दिये गये हो।

अनेक और उद्धत नरेशों के अवसान समाचार आए। कुछ ही मानव थे उनमें यक्ष एक भी नहीं किया। वानर रीछ नाग ने साहस नहीं किया जब दानवेन्द्र मय ही अम्बरीष के अनुकूलन हो तो मानव कौन आड़े आता। गंधर्व और देवता तो उनके नित्य सहायक है। केवल राक्षस, दैत्य तथा कई शापग्रस्त असुर योनि प्राप्त प्राणी सबके संबंध के एक ही बात, एक ही समाचार उनका अद्यम अश्व की गति में अवरोध उत्पन्न करने में असफल रहा।

एक अज्ञात प्रचण्ड ज्योति मस्तक छिन्न हो गया और देह झुलस गयी।

“हम अश्व का स्वागत करेंगे दैत्य बाण ने सब सभासदों को चौंका दिया अपने निश्चय से “बाण पराक्रमी से युद्ध करता है, किन्तु भक्त प्राणजन तो उसके बन्धु है अम्बरीष प्रिय है भगवान नीलकण्ठ का सिंहवाहिनी का नित्य वात्सल्य प्राप्त है उसे बाण उसके अश्व का अर्घ्य देगा।

असाधारण समाचार था यह। अयोध्या पहुँचा तो अम्बरीष ने हाथ जोड़ कर भूमि में मस्तक रख दिया-वे महादेव उनके लिए भगवान नारायण कहाँ पराए है? उनके पिता बलि के द्वारपाल बने हैं वे श्री हरि। यज्ञपुरुष श्री हरि के यज्ञीय अश्व का सत्कार यदि वे पुण्य प्राण करते हैं, तो उनके लिए कोई आश्चर्य की बात तो नहीं है?”

इस समाचार के एक दिन बाद ही महर्षि वशिष्ठ के मुख पर चिंता के चिह्न दिखे। उस वशिष्ठ के मुख पर तब भी विषाद नहीं आया था, जब उनके अपने सौ पुत्र मारे गये थे। वे सोच रहे थे शूलमुख अत्यन्त नृशंस है, पिशाच तो वह है ही, अब उग्र हो उठा है। क्रकच का वह अनुज आथर्वण भृगु भी यवनित दिखे उस दिन भगवान शूलपाणि का त्रिशूल भी जिन्हें भयभीत नहीं कर सकता था, वे खिन्न थे। यज्ञशाला के समीप आने पर साहस वह नहीं करेगा, किंतु आथर्वण भृगु अर्ध्वयु होकर यज्ञशाला तक ही तो यजमान की रक्षा तक ही तो यजमान की रक्षा कर सकते है।

“अपने अग्रज के प्रति उसका अतिशय ममत्व था। “महर्षि अंगिरा ने कहा-क्रकच के मारे जाने से वह क्षुब्ध ही नहीं, उन्मत्त हो गया था कोई भी अधम प्रयास उसके लिए अशक्य नहीं हैं”

यजमान यदि यज्ञशाला में ही रहे? महर्षि असित ने एक मार्ग सुझाया।” ऐसा यदि हो पाया।” महर्षि भृगु के स्वर में उत्साह नहीं था “कोई आशंका भी है उनके लिए वे स्वीकार ही नहीं करते और अपने आराध्य के मंदिर की सेवा करने तो न जाएँ ऐसा आदेश उन्हें कोई कैसे दे सकता है?

“आज अकल्पनीय घटित हुआ देव! अचानक राजसदन के चर ने आकर ऋषियों को सुनाया “भगवान नारायण की कृपा से महाराज के प्राण सुरक्षित रहे।

“क्या हुआ?” एक साथ कई स्वर उठे “महाराज सकुशल है?”

“वे सकुशल हैं।” दूत ने बताया कि “भगवान का नैवेद्य प्रस्तुत हुआ। स्वयं महारानी ने प्रस्तुत किया था उसे अवश्य ही कुछ क्षण वे पाकशाला में अनुपस्थित रही थी। नैवेद्य अर्पित करने को महाराज ने उठाया ही था कि पा? में छिपकली आ गिरी।”

“श्री हरि!” अनेक ऋषियों ने नाम स्मरण किया।

“स्वभावतः नैवेद्यान्न विसर्जित किया गया, किंतु उस आहार का ग्रास लेते ही श्वान ने प्राण त्याग दिये।” दूत ने सूचना पूर्ण की “महाराज के लिए किसने विष प्रयोग किया था, इसके अन्वेषण की आज्ञा राजकर्मचारियों को प्राप्त नहीं हुई। महाराज कहते है कि यह सब प्रभुलीला है।”

“शूलमुख सक्रिय हो गया है। “ महर्षि वशिष्ठ के नेत्र बन्द हुए तो दो क्षणों में उन सर्वज्ञ ने सब जान लिया। “हम यज्ञदीक्षित विप्र इस समय तो शाप देना भी वर्जित है हमारे लिए।”

यज्ञ अपने समय पर चलता रहा। यज्ञीय क्रियाओं से अवकाश मिलने पर ऋषियों को अपना यजमान की चिंता भी हो ही जाती थी कभी-कभी किंतु एक दिन आया-एक समाचार आया और वह चिंता सदा समाप्त हो गयी।

समाचार था कि महाराज अम्बरीष देवमंदिर का प्रक्षालन करके यज्ञशाला आ रहे थे। वे कभी वाहन नहीं स्वीकार करते थे देवमंदिर या यज्ञशाला आने में। कोई सेवक साथ नहीं था, उस समय चतुष्पथ पर पहुँचते ही एक कृष्णवर्ण कृषकाय, अतिदीर्घाग अमानवाकृति दौड़ती आती दिखीं। दुर्गन्ध से दिशाएँ भर गयी। अनेक नगरजन समीप थे। भीत त्रस्त खड़े रह गये लोग। आकृति प्रचण्ड वेग से दौड़ती आयी महाराज की ओर।

‘नारायण गोविन्द!’ नरेश ने उस आकृति को देखकर इतना ही कहा। अनेक पाँव की गति भी शिथिल नहीं हुई। समाचार वाहक ने बताया पता नहीं क्या हुआ, वह आकृति हाहाकर कर उठी। सम्पूर्ण आकृति से लपटें उठने लगी और वह जिधर से आयी थी, दुगुने वेग से उसी दिशा में अदृश्य हो गयी।

“शूलमुख भस्म हो गया।” अथर्वा ऋषि ने बिना ध्यान किए ही कह दिया। “जहाँ भगवद्भक्ति होती है, अपकार सोचने वाले को तो भस्म ही होना पड़ता है।”

“अम्बरीष अपनी चिंता नहीं करता।” वशिष्ठ जी बोले “करे भी क्यों? भक्त की चिंता तो स्वयं भगवान करते है।”

इतने में सूचना मिली-यज्ञीय अश्व लौट रहा है।”

ऋषियों को अब पूर्णाहुति आयोजन की तैयारी में लगना था।

कैसे मुक्त हों विज्ञापन संस्कृति की विकृतियों से

आज के दौर में भोग विलास एवं उपभोग की वस्तुओं में भारी वृद्धि हुई है। विकास एवं विलास के बहुरंगी परिवेश ने उपभोक्तावादी संस्कृति को जन्म दिया है। बढ़ते विज्ञापनों के मायाजाल ने इस संस्कृति के पोषण संरक्षण एवं विस्तार के नये नये आयाम खोले। आज का तथाकथित प्रतिष्ठित समाज स्वयं को इसके बिना अधूरा एवं अपूर्ण मानता हैं उपभोक्तावादी संस्कृति के इस जमाने में विज्ञापनों से ही उत्पाद व्यक्ति या वस्तु की प्रतिष्ठा एवं गुणवत्ता का निर्धारण होने लगा है। भले ही इसके पीछे निहित सच्चाई कुछ और ही हो। इस प्रचलित संस्कृति का अपना एक अलग एवं भिन्न मनोविज्ञान है। जो समाज को हिंसा, अपराध एवं अश्लीलता का विषपान कराकर आर्थिक समृद्धि की योजनाएँ बनाता रहता है।

यों विज्ञापनों का इतिहास काफी पुराना है। इतिहासकारों एवं विद्वानों की मान्यता है कि विज्ञापन का आविष्कार सर्वप्रथम भारत में हुआ। कुमारगुप्त के काल में भारतीय व्यापारियों ने विज्ञापन को जन्म दिया। उन्होंने अपने विज्ञापन का उपयुक्त साधन मंदिर को माना। यह मंदिर दषपुर अब मन्दसौर में अवस्थित हैं सम्राट अशोक ने धार्मिक विचारों के प्रचार प्रसार के लिये शिलालेख का उपयोग किया था, परंतु दक्षिण गुजरात के व्यापारियों ने इसका उपयोग अपने व्यापार के लिये किया। वे विश्वप्रसिद्ध रेशमी वस्त्रों का व्यापार करते थे। इस विज्ञापन में पहले तो उन्होंने अपने सम्राट की अभ्यर्थना की फिर वहाँ की प्रशंसा की। इसके पश्चात नगर की समृद्धि की प्रशस्ति लिखते हुये सहज व अनायास पढ़े जाने लायक अपने व्यापार का विज्ञापन दर्ज का दिया। यह विज्ञापन काव्यबद्ध शैली में लिखा गया था, जो रेशमी कपड़े के बारे में किया गया था। डॉ. भगवतीशरण उपाध्याय ने इसे संसार का प्रथम लिखित विज्ञापन माना है।

कुछ विद्वान ३... ई. पूर्व थे। बीच में प्राप्त एक शिलालेख को विज्ञापनों की शुरुआत मानते है। यहाँ भारत के अनेक राजाओं के अगणित अभिलेख प्राप्त हुये है। इसमें राजाओं के यश, कीर्ति तथा धार्मिक सद्भावना आदि को विज्ञापित को अभिलेख कहा जाता था। इस तरह धीरे धीरे विज्ञापनों के प्रसार एवं प्रभाव में वृद्धि होने लगी। आधुनिक काल में विज्ञापन अखबारों में प्रकाशित होने लगे है। इसका प्रारंभ १६५२ ई. के आस पास माना जाता है। इंग्लैण्ड में पहला विज्ञापन कॉफी का हुआ था। यहीं १६५७ ई. में चाकलेट का एवं १६५८ ई. में चाय का विज्ञापन प्रसारित किया गया। जून १६६६ ई. में लंदन गजट नामक अख़बार में संसार का प्रथम विज्ञापन परिशिष्ट निकाला गया। १६८८ ई. में इंग्लैण्ड में औद्योगिक क्राँति के परिणामस्वरूप विज्ञापनों का प्रचलन भारी संख्या में हुआ। विश्व में पहली विज्ञापन एजेंसी का स्थापना सन् १८४१ ई. अमेरिका के फिलाडेल्फिया राज्य में हुई इस एजेन्सी को उन दिनों २५ प्रतिशत कमीशन मिलता था। १९ वीं शताब्दी के अंतिम दशक में १५ प्रतिशत कमीशन की व्यवस्था लागू की गयी। आज का विज्ञापन जगत तो प्रबन्धन विपणन, लेखन कला और मीडिया के कुशल विशेषज्ञों पर आधारित है।

आज के दौर में विज्ञापन के कई स्वरूप है। मुख्य रूप से यह दो तरह का है। दूरसंचार उपग्रह चैनल तथा पत्र पत्रिकाएँ। पिछले पाँच दशकों में विज्ञापनों पर होने वाले व्यय पर भारी इजाफा हुआ है। १९५१ में विज्ञापनों पर होने वाला व्यय ५ करोड़ रुपये था, जो कि बढ़कर १९५६ में लगभग ५... करोड़ हो गया। सन् २... तक अनुमान है कि विज्ञापनों पर होने वाला व्यय बढ़कर १.... करोड़ रुपये हो जायेगा। अपने देश में दूरदर्शन के अलावा अन्य टी. वी. सबसे आगे हे। सन् १९९६ में जी.टी.वी. ने ३३ प्रतिशत तथा स्टार टी.वी. ने २५ प्रतिशत विज्ञापन प्रसारित किये। एक अध्ययन के मुताबिक़ दूरदर्शन को सबसे ज्यादा आय साबुन के विज्ञापनों से होती है। जबकि अन्य सेटेलाइट चैनल शराब के विज्ञापन प्रसार के विश्लेषणकर्ताओं श्री सुधीर पचौरी ने विश्वविद्यालय अनुदान में उपभोक्ता संस्कृति के विषय पर अपनी एक रिपोर्ट में कहा है आज दूरदर्शन विज्ञापन द्वारा ५७३ करोड़ प्रतिवर्ष आय प्राप्त करता है। इन विज्ञापनों को ४४.८ करोड़ से अधिक दर्शक देखते है।

इस रिपोर्ट में आगे स्पष्ट किया गया है कि विज्ञापनों में ८२.६६ प्रतिशत हिंदी भाषा का प्रयोग होता है तथा १७.३४ प्रतिशत लोग विज्ञापनों पर विश्वास जताते है। दो तिहाई लोग उनसे प्रभावित होकर वस्तुओं को खरीदते है। ८. प्रतिशत जनता विज्ञापन की इस चकाचौंध में आकर्षित होती है। केवल २५ प्रतिशत शहरी तथा १६ प्रतिशत ग्रामीण जनता ही इसके खोखलेपन को पहचान पाती है। रिपोर्ट के अनुसार दूरदर्शन पूरे प्रसारण का दस प्रतिशत समय विज्ञापनों में खर्च करता है। इसके अनुसार विज्ञापन केवल प्रचार नहीं एक आर्थिक, सामाजिक प्रक्रिया है। जिसकी वजह से संस्कृति भी प्रभावित हुये बिना नहीं रहती। बुद्धिजीवी वर्ग के मुताबिक़ यह एक फैंटेसी प्रचार है। जो भारतीय संस्कृति के लिये अत्यन्त घातक है।

अमेरिका के प्रसिद्ध समाजशास्त्र डेविड रीजमैन ने तीन तरह के व्यक्तित्व एवं समाज की परिकल्पना की है। स्वतंत्र अन्तः विवेक से निर्देशित, परम्पराओं से परिचालित और अन्य द्वारा संचालित। आज की भोगवादी संस्कृति में अन्तः विवेक धूमिल हो गया है। परम्परा शक्ति क्षीण और विकृत हो गयी है। अब तो बस विभिन्न निर्देशन की शक्तियों ने अपना वर्चस् स्थापित कर लिया है। सामान्य रूप से विज्ञापन का तात्पर्य किसी भी सार्वजनिक घोषणा से है, जो लोगों को आकर्षित करे और लोग उस पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करें। समाज में उत्पादों के प्रति आकर्षण और जिज्ञासा जागकर वस्तु की माँग उत्पन्न करना विज्ञापन का मुख्य लक्ष्य है। उपभोक्तावादी इस युग में संसाधनों का व्यापक तथा त्वरित उपयोग होता है। इसकी रीति नीति को सर्वमान्य करने के लिये ही विज्ञापन का सहारा लिया जाता है। पहले विज्ञापन का निर्माण स्वयं उत्पादकों द्वारा होता था। उस समय विज्ञापन एजेन्सियाँ नहीं थी। लेकिन उन दिनों भी विज्ञापन मन की कमजोरियों को पकड़ता था, असुरक्षा की भावना दमित आकांक्षाओं और देवीय हस्तक्षेप की संभावना का इसमें दोहन किया जाता था। आज भी स्थिति वही है,बल्कि इसमें बढ़ोतरी हुई है। विज्ञापन कला अब एक विशाल उद्योग बन गयी है। उदारीकरण खुले बाज़ार की नीति ने इसे और भी व्यापक बनाया है। उत्पादनों के प्रसार के लिये दूरगामी रणनीति बनायी जाती है, जो समाज के हर वर्ग की मानसिकता और उसकी उभरती आकांक्षाओं का पूरा ध्यान रखती है। इसका अपना अलग मनोविज्ञान है। इसमें मानव मनोवृत्तियाँ रुचियाँ तथा भावनाएँ अत्यधिक प्रभावित होती है। प्रसिद्ध मनोविज्ञानी एरिक फ्राॅम ने इस विषय पर अपना मत प्रतिपादित करते हुये कहा है कि विज्ञापन व्यक्ति के संवेगों को नकारात्मक दिशा की ओर मोड़ता है। इसके द्वारा मानव में असुरक्षा का भाव पैदा कर अपनी विज्ञापित वस्तुओं को उसकी सुरक्षा व समाधान के लिये प्रस्तुत किया जाता है। सही मायने में इसका प्रभाव सकारात्मक कम और नकारात्मक अधिक होता है। विज्ञापनकर्त्ता सिर्फ अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिये प्रयास करते हैं। आज तो जैसे विज्ञापन भय, असुरक्षा तथा यौन संवेगों का पर्याय ही बन गये है। मनसविद् एरिक फ्रॉम के अनुसार इस तरह के विज्ञापन समाज में असंतुलन वैमनस्य एवं ईर्ष्या के मनोभाव पैदा करते है जो अत्यन्त घातक एवं सर्वनाशी है। समाज में उपभोक्ता वस्तु प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गयी है। जिसके पास विलासिता की ये वस्तुएँ हैं वही आज प्रतिष्ठित कहलाता है। आज मानव संवेदना के स्थान पर इन उत्पादनों को स्थापित किया जाता है। स्वाभाविक है, जो वर्ग इनसे अछूता एवं असमर्थ है वह भी इनकी प्राप्ति एवं उपलब्धि की कल्पना करेगा। परिणामतः समाज असंतुलित हो जायेगा। आज का प्रत्येक व्यक्ति एवं वर्ग मानवमूल्यों के निरपेक्ष समाज में जीने के लिये विवश है। इन्हीं कारणों से डॉ. लोहिया ने बहुत पहले ही कह दिया था कहीं भारतीय समाज म्यूजियम सदृश न हो जाये।

विज्ञापन मुख्यतः कॉर्पोरेट कला है, जो ब्राण्ड का निर्माण करती है। आजकल हर उत्पाद विज्ञापित ब्राण्ड के नाम से पहले तथा असली नाम से बाद में जाना जाता है। इसका दूसरा काम है उपभोक्ता का निर्माण करना। इसके बिना तो यह अधूरा है। हर सफल विज्ञापन प्रारंभ से अंत तक ब्राण्ड और बाज़ार का निर्माण करता है। यह एक समग्र कला है, जिसमें एक ही साथ सभी कलाएँ और विज्ञान सक्रिय रहते है। विज्ञापन पूँजीवाद की देन है। आधुनिक चिन्तक ज्याँ बौन्द्रिया ने तो विज्ञापन को चिन्ह का राजनीतिक अर्थशास्त्र तक कह डाला। विज्ञापन शुद्ध कला या संस्कृति नहीं, बल्कि पूँजी और कला का व्यावसायिक प्रतीक है। यह संस्कृति तथा मनोविज्ञान को जोड़कर जनरुचि में अन्दर तक प्रवेश कर गया है। कुछ लोग विज्ञापन को सपने बुनने एवं बेचने की कला मानते है। यह काल्पनिक दुनिया का निर्माण करता है। कल्पना का यह जादुई संसार निश्चित ही सुन्दर मनोरम एवं आकर्षक प्रतीत होता है, क्योंकि इसका संबंध यथार्थ जगत से परे होता है, हर व्यक्ति इस कल्पनालोक को पाने की परिकल्पना करने लगता है एवं इस ओर आकर्षित होता है। विज्ञापन आकर्षण की इस मानसिकता को भुनाकर ही अपना प्रोडेक्ट बेचने का प्रयास करता है।

विज्ञापनों भ्रमित हो जाता है। वह यह निर्णय नहीं कर पाता किसे खरीदना चाहिए और किसे नहीं। विज्ञापनों द्वारा इसमें काल्पनिक गुण भरे जाते है तथा इन्हें यज्ञार्थ एवं वास्तविक बताकर मनुष्य की दमित इच्छाओं को उभारने का हर संभव प्रयास किया जाता है। विज्ञापन बनाने वाले जनसामान्य की इस कमजोर मानसिकता का बखूबी उपयोग करते है।

विज्ञानों की यह संस्कृत सीधे आर्थिक पथ से जुड़ी हुई है। इसी वजह से कला से सम्बन्धित होने के बावजूद भी इस पर कला के मानक यथावत लागू नहीं होते। यह तो उत्पाद की ओर आकर्षित करने के लिये एक नवीन अतिचंचल, हाइपर-रियल संसार का निर्माण करता है। जहाँ पर समीक्षा बुद्धि प्रवेश नहीं कर पाती। उपभोक्ता इसके बाहरी चकाचौंध से प्रभावित हो जाता है। आज का आम आदमी काल्पनिक संसार के इस धरातल पर जीने का अभ्यस्त हो गया है। न्यूयार्क एडवर्टाइजिंग एजेन्सी के रिसर्च डायरेक्टर के अनुसार विज्ञापनों ने समाज में साँस्कृतिक संकट खड़ा कर दिया है। इससे समाज में हर व्यक्ति विज्ञापित वस्तुओं को प्राप्त करने के लिये श्रेष्ठता की दौड़ रहा हैं। ये वस्तुएँ ही श्रेष्ठता और समृद्धता का पर्याय बन बैठी है। इस विषय में प्रख्यात आलोचक एवं चिंतक रेमण्डविलियम्स ने स्पष्ट किया है कि विज्ञापनों की दुनिया आभासी और भ्रम की दुनिया है। परंतु इसने ऐसा मनोवैज्ञानिक आकर्षण पैदा कर दिया है कि व्यक्ति अनायास इसकी गिरफ्त में जकड़ता चला जा रहा है। विज्ञापन संस्कृति आज व्यक्ति एवं समाज के लिये अत्यंत घातक सिद्ध हो रही है।

आज के प्रचलित विज्ञापनों की तकनीकों ने जीवन-मूल्यों पर घातक प्रहार किये है। इतना ही नहीं, इसके द्वारा प्राकृतिक जीवन के स्थान पर कृत्रिम एवं बनावटीपन को प्रतिष्ठित किया जा रहा है। आज के दौर में नल का पानी पीना पिछड़ापन है परन्तु उसी पानी को बन्द बोतलों में खरीदकर पीना विकास का चिन्ह है। माँ का दूध हीनता बोध करा रहा है, जबकि डिब्बाबन्द दूध को आधुनिकता का पर्याय माना जा रहा है। घर का बना भोजन आज के प्रचलित मानकों की कसौटी पर खरा नहीं उतरता, क्योंकि लेबलयुक्त पैकेटों का चलन चल पड़ है। दैनिक जीवन की वस्तुएँ चावल, दाल, आटा, बेसन, पानी, नमक, आदि सभी ब्राण्ड के रूप में मिलने लगे है। इनके विज्ञापनों ने समाज में अंधानुकरण की मानसिकता पैदा कर दी है। इसीलिये हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कभी कहा था कि लज्जा प्रकाश ग्रहण करने में नहीं अंधानुकरण में आनी चाहिए। अविवेकपूर्ण ढंग से जो भी सामने पड़ गया उसे सिर-माथे चढ़ा लेना अंधभाव से अनुकरण करना हीनता का ही परिणाम है। जहाँ मनुष्य विवेक को ताक में रखकर सर्वस्व अंधभाव से नकल करता हैं, वहाँ उसकी मानसिक दिवालियापन और साँस्कृतिक दरिद्रता ही प्रकट होती है, किन्तु जहाँ वह अपनी सोच समझ का परिचय देता है और अपनी त्रुटियों को कम करने का प्रयास करता है, वहाँ वह अपने जीवंत स्वभाव का परिचय देता है।

विज्ञापन हमारे इन्हीं मनोभावों का उपयोग करते है। एक ओर जहाँ उसे आर्थिक लाभ मिलते है वहाँ हम लुभावने दलदल में फंसते चले जाते है। इसी के साथ ही विज्ञापनों में सेक्स हिंसा, अपराध आदि का सर्वनाशी जहर घोलकर हम सभी को जबरन पिलाया जा रहा है। नारी देह तो जैसे इन विज्ञापनों की केन्द्रीय विषयवस्तु बन गयी है। महाकवि अश्वघोष ने बुद्धचरित्र में शील की मर्यादा की व्याख्या करते हुये कहा है कि धन रूप से सम्पन्न होने पर भी शील के अभाव में मनुष्य फलों पुष्पों से युक्त कंटकों से भरे हुये वृक्षों की भाँति है। आज इसके ठीक विपरीत शील के स्थान पर अर्थ की उपासना हो रही है। पाली के शेर गाथा में शील को अपरिमित बल कहा गया है। इसके अनुसार शील सर्वोत्तम शास्त्र है। शील सर्वश्रेष्ठ भूषण है। आज जबकि अश्लीलता ने ही प्रतिष्ठा का रूप ले लिया है मानवीय चरित्र की रक्षा कौन करें?

विज्ञापनों की इस अश्लीलता को पश्चिम की बाज़ार व्यवस्था की विकृतियों के अनुकरण से जोड़ना अनुचित नहीं होगा। अपने देश में ऐसी कई कलात्मक विधाएँ है जिनका उपयोग किया जा सके तो अश्लीलता की इस दुर्वह समस्या से मुक्ति मिल सकती है। जिस समाज में नारी को माता एवं देवी की उपाधि से अलंकृत किया गया है आज उस समाज में नारी को महज एक उपभोक्ता की वस्तु बना दिया गया है। प्रसारित होने वाले प्रत्येक विज्ञापन में नारी का जुड़ा होना एक अनिवार्य तथ्य बन गया है। इस उपभोक्तावादी समाज में शील असामान्य एवं अश्लील सामान्य बन गया है।

विज्ञापन का जादुई आकर्षण सर्वाधिक युवा, महिलाओं एवं बच्चों पर पड़ता है। बच्चों के स्वभाव में अत्यधिक जिज्ञासा होती है। वे अपनी बालबुद्धि के कारण अन्धानुकरण करने लगते है। उनकी अपरिपक्व मानसिकता सामने देखे गये दृश्य जैसा करने या बनने का प्रयास करने लगती है। इन दिनों इस तरह के दृश्यों को घर घर में देखा जा सकता है। इण्डियन एकेडेमी ऑफ पेडियाट्रिक्स की कोच्ची शाखा के सर्वेक्षण से स्पष्ट होता है कि एक बच्चा विज्ञापन को जितनी तीव्रता से याद कर लेता है उसकी तुलना में अपनी पाठ्यपुस्तकों को नहीं कर सकता है एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार बच्चे सबसे ज्यादा विज्ञापन देखते है। एक टेलीविजन विज्ञापन में दिखाई गयी जम्पिंग की नकल करते हुये छलाँग लगाकर कलकत्ता में एक बच्चा अपनी जान गंवा बैठा। इसी विज्ञापन के कारण एक अन्य बालक लखनऊ में अपनी छत से नीचे कूद गया, जिससे उसकी मृत्यु हो गयी। ऐसी दूसरी


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