मंत्र-साधना भी यंत्र-साधना की तरह ही एक विशुद्ध विज्ञान है। यंत्रों के सिद्धांत
निर्माण, संचालन, सुधार में दक्षता प्रस्तुत करना ही यंत्र-विद्या का आधार है। यह प्रक्रिया ठीक रहे तो यंत्रों की क्षमता से समुचित लाभ उठाया जा सकता है, पर यदि इन प्रकरणों में त्रुटि रहे तो मशीनें समय और धन की बर्बादी ही करती है, ठीक इसी प्रकार मंत्र-साधना के सभी प्रयोग, प्रकरण सही हो तो उनका लाभ प्राप्त किया जा सकता है अन्यथा अधूरा और अस्त-व्यस्त साधनाक्रम अपनाने पर निराशा और उपहास का ही भाजन बनना पड़ता है।
भौतिकविज्ञान बाह्यजगत को प्रभावित करता है और जड़ प्रकृति में सन्निहित शक्तियों को उपयोग योग्य बनाकर लाभकारी परिणाम उपस्थित करता है। अध्यात्म-विज्ञान अंतरंग क्षेत्र को प्रभावित करता है और चेतन प्रकृति को प्रदीप्त कर उससे सर्वसमर्थ व्यक्तित्व का निर्माण करता है। भौतिकविज्ञान सुख-साधनों का उत्पादन करता है, शरीर को अधिक सुविधाजनक स्थिति में रखने के आधार जुटाता है। यही उसकी परिधि है। अन्तः चेतना तक न तो उसकी पहुँच है और न उस स्तर की क्षमता ही वह उत्पन्न कर सकता है।
यह जगत जड़ और चेतन का सम्मिश्रण है। प्राणधारियों के भीतर चेतना रही है और बाहर पंचभौतिक कलेवर चढ़ा रहता है। दोनों के सम्मिश्रण से ही प्राणिजगत की विविध हलचलें दिखाई पड़ती हैं। नदी, पर्वत जैसे सर्वथा जड़ पदार्थों की बात अलग है जहाँ चेतना है, वहाँ इस बात की भी आवश्यकता अनुभव की जाती है कि वस्तुओं और शरीरों की तरह ही चेतना को भी स्वच्छ, स्वस्थ और सुविकसित रखा जाए। इसी क्रिया कलाप को ‘अध्यात्म’ कहते है।
जड़ प्रकृति की शक्तियों को अधिकाधिक परिचय भौतिकविज्ञान ने सर्व साधारण के लिए सुलभ किया है। अग्नि, विद्युत, ईथर, अणुशक्ति, तरंगें, चुम्बक आदि भौतिक शक्तियों का उपयोग कितना चमत्कारी परिणाम प्रस्तुत करता है, यह सर्वविदित है। चेतन प्रकृति का स्तर और ऊँचा है। वस्तुतः चेतन की ही पड़ के ऊपर अधिकार है। जलयान कितना ही बड़ा क्यों न हो, चेतन संचालक के बिना कुछ कर न सकेगा। अन्तरिक्ष में मानवरहित रॉकेट स्वसंचालित लगते भर हैं, वस्तुतः उन्हें भी धरती पर बैठे हुए वैज्ञानिक ही दिशा देते और नियंत्रण करते है। रेलगाड़ी कितनी ही कीमती क्यों न हो, जीवित ड्राइवर के बिना वह टूटी चट्टान की तरह निरर्थक है। प्राण के बिना शरीर का क्या उपयोग? उपभोक्तारहित संपदा कितनी दबी पड़ी है। महत्व उतनी का ही है जितनी कि चेतना प्राणी उसका उपयोग कर सके। जड़ पदार्थों की तरह जड़-विज्ञान तभी उपयोगी हो सकता है जब उसका चेतन प्राणी द्वारा नियंत्रण एवं उपयोग किया जाए। तात्पर्य यह है कि जड़ की तुलना में चेतना का मूल्य महत्व अत्यधिक है। इसी अनुपात से भौतिक विज्ञान से अध्यात्म विज्ञान की महत्ता एवं उपयोगिता बढ़ी-चढ़ी है।
भौतिकविज्ञान के प्रत्यक्षीकरण में प्रयुक्त होने वाले उपकरण ’यंत्र’ कहलाते है और आत्मविज्ञान से लाभान्वित होने के माध्यम ’मंत्र’ कहे जाते है। यंत्रों के बिना वैज्ञानिक तथ्यों से लाभ नहीं उठाया जा सकेगा। इसी प्रकार मंत्ररहित अध्यात्म सिद्धांत मात्र बनकर रह जाएगा। उसे प्रत्यक्ष न किया जा सकेगा।
समग्र विज्ञान को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है। एक पिण्डव्यापी दूसरा ब्रह्माण्डव्यापी। एक अंतरंग, दूसरा बहिरंग जिस प्रकार थ्योरी और प्रेक्टिस के आधार पर बहिरंग शिक्षापद्धति चलती है, उसी प्रकार अध्यात्म प्रगति के लिए आस्था और साधना दो माध्यम है। आस्था के अंतर्गत नीति धर्म, दर्शन, आत्मज्ञान, ब्रह्म एवं सूक्ष्म जगत का वर्णन विवेचन आता है शास्त्रों में उसी का वर्णन हैं आत्मबोध, लोक व्यवहार, चिंतन परिष्कार को अध्यात्म के निष्ठा पक्ष में लिया जाएगा। संयम, नियम, व्रत, तप, साधना प्रभृति क्रिया–कलापों को ‘साधना’ माना जाएगा। दोनों एक दूसरे के पूरक है। एक के बिना दूसरा अपूर्ण रह जाएगा। ज्ञान और कर्म के समन्वय से ही उपलब्धियाँ प्राप्त होती हैं। ज्ञान के बिना कर्म और कर्म के बिना ज्ञान निर्जीव निष्प्राण रहेगा। साधना के बिना तत्व दर्शन समग्र अध्यात्म का प्रयोजन पूरा नहीं कर सकेगा।
विश्वव्यापी ब्रह्मचेतना के साथ मनुष्य का सघन और सुनिश्चित संबंध है पर उसमें मल आवरण विक्षेप जैसे अवरोधों ने एक प्रकार से विच्छेद जैसी स्थिति उत्पन्न कर दी हैं। बिजलीघर और कमरे के पंखे के बीच लगे हुए तारों में यदि गड़बड़ी उत्पन्न हो जाए तो पंखा और बिजलीघर दोनों ही अपने अपने स्थान पर वहीं रहते हुए भी सन्नाटा छाया रहेगा। पंखा चलेगा नहीं निश्चेष्ट पड़ा रहेगा। इन अवरोधों को साफ करना ही मंत्र-साधना का उद्देश्य है। नाली के प्रवाह में कोई रोड़ा आ आए तो पानी इधर-उधर फैलेगा और नाली सूखी पड़ी रहेगी। यही बात हमारे जीवन प्रवाह में भी दृष्टिगोचर होती है अन्न, जल पर जीवित रहने वाला शरीर तो अपना आहार प्राप्त करके गतिशीलता बना रहता है, पर अंतःचेतना को खुराक न मिलने से वह दिन प्रतिदिन दुर्बल एवं मरणासन्न होती चली जाती है। यह है हम सबकी आंतरिक दयनीय दुर्दशा का कारण।
नवजात शिशु माता के दूध पर अवलंबित रहता है। आत्मा का पोषण परमात्मा के साथ प्रत्यावर्तन बने रहने पर ही होता है। बादल तभी बरसते है जब समुद्र से संबंध टूट जाए तो बादलों का बरसना तो दूर उनका अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा। तब केवल धूलकण ही यदा-कदा बदली बनकर घूमते दृष्टिगोचर होंगे। परमात्मा से संबंध टूट जाने पर आत्मा अपना वर्चस्व खो बैठती है, आत्मबल के लक्षण दिखाई नहीं पड़ते, महानता तिरोहित हो जाती है, केवल काय कलेवर ही छिपकली की कटी हुई पूँछ की तरह उछल कूद करता रहता है। हममें से अधिकांश को शरीर मात्र बनकर जीना पड़ रहा है। आत्मा की गरिमा के वर्णित कोई चिह्न अपने में दीखते नहीं इसे आत्मा और परमात्मा के बीच गतिरोध ही समझा जाना चाहिए। परित्यक्ता पत्नी की भाँति उस पर उदासीनता ही छाई रहती है।
साधना इन शिथिल संबंधों को पुनः प्रतिष्ठापित करने की सुनिश्चित पद्धति हैं। मंत्र-साधना उसका कर्मपक्ष नहीं, उसकी भी अपनी गरिमा है, फिर भी वह पूर्ण नहीं। कोई व्यक्ति विद्वान, ज्ञानी दार्शनिक शास्त्रज्ञ, वेदांती होने भर से आत्मबलसम्पन्न नहीं हो सकता। इसके लिए उसे साधनात्मक कर्मकाण्ड अपनाने की अनिवार्य रूप से आवश्यकता होगी। विश्वचेतना के साथ व्यक्ति चेतना को जोड़ने का यही मार्ग हैं। मंत्र-साधना इसी राजमार्ग की तरह समझी जानी चाहिए।
मंत्र का प्रत्यक्ष रूप ध्वनि है। ध्वनि भी क्रमबद्ध, लयबद्ध और वृत्ताकार। एक क्रम से निरन्तर एक ही शब्दविन्यास का उच्चारण किया जाता रहे तो उसका एक गतिचक्र बन जाता है। तब शब्द तरंगें चलने की अपेक्षा वृत्ताकार घूमने लगती हैं। रस्सी में पत्थर का टुकड़ा बाँधकर उसे तेजी से चारों ओर घुमाया जाए तो उसके दो परिणाम होंगे। एक यह कि वह एक गोल घेरा जैसा दीखेगा। रस्सी और ढेले का एक स्थानीय स्वरूप बदलकर गतिशील चक्र के रूप बदल जाना एक दृश्य चमत्कार है। दूसरा परिणाम यह होगा कि उस वृत्ताकार घुमाव से एक असाधारण शक्ति उत्पन्न होगी। इस तेज घूमते हुए पत्थर के छोटे टुकड़े से किसी पर प्रहार किया जाए, तो उसकी जान ले सकता है। इसी प्रकार यदि उसे फेंक दिया जाए तो तीर की तरह सनसनाता हुआ बहुत दूर निकल जाएगा। मंत्रजप से यही होता है। कुछ शब्दों को एकरस, एकस्वर, एकलय के अनुसार बार-बार दुहराते रहने से उत्पन्न हुई ध्वनितरंगें सीधी या साधारण नहीं रह जाती। वृत्ताकार उनका घुमाया जाना अंतरंग पिण्ड में तथा बहिरंग ब्रह्माण्ड में एक असाधारण शक्तिप्रवाह उत्पन्न करता है। उसके फलस्वरूप उत्पन्न हुए परिणामों को मंत्र का चमत्कार कहा जा सकता हैं।
मंत्रों का शब्दचयन योगविद्या में निष्णात तत्त्ववेत्ताओं द्वारा दिव्यचेतना एवं सघन अनुभूतियों के आधार पर किया जाता हैं। यों हम शब्दविन्यास में कुछ प्रेरणाप्रद अर्थ और संदेश भी होते है, पर उनकी महत्ता उतनी नहीं, जितनी शब्दगुँथन की। अर्थ की दृष्टि से उनसे भी अधिक भावपूर्ण कविताएँ हैं और हो सकती है। फिर सूत्र जैसे छोटे मंत्रों में उतनी विस्तृत भावश्रृंखला भरी भी नहीं जा सकती, जितनी मनःक्षेत्र को प्रभावित करने के लिए आवश्यक है। वस्तुतः मंत्र की महत्ता उसके स्फोट में है। ‘स्फोट’ का अर्थ है ईश्वरतत्व में होना वाला ध्वनिविशेष का असाधारण प्रभाव। तालाब में छोटा ढेला फेंकने से थोड़ी और छोटी लहरें उत्पन्न होती है, पर यदि बहुत ऊँचाई से बहुत बड़ा पत्थर पटका जाए तो उससे उसका शब्द और स्पंदन दोनों ही अपेक्षाकृत बड़े होंगे और उसकी प्रतिक्रिया प्रतिध्वनि भी बड़ी लहरों के साथ दिखाई देगी। मंत्रविद्या के संदर्भ में इसी को ‘स्फोट’ कहा जाता है। इसकी तुलना बारूद, कारतूस विस्फोट से उत्पन्न ध्वनि के साथ अथवा अणुबम फटने के साथ की जा सकती हैं। मंत्रसाधक को यह जानना और जताना पड़ता है कि स्फोट की कितनी मात्रा अभीष्ट है। असंतुलित विस्फोट बन्दूक या तोप तक को फाड़ सकता है। असंगत साधना से लक्ष्य प्राप्त होना तो दूर, उलटा अनिष्ट उत्पन्न हो सकता है।
मंत्र की तीसरी धारा है-लय उसे किस स्वर में, किस प्रवाह में उच्चारित किया जा रहा है, उसे लय कहते है। साधारणतया मानसिक, वाचिक और उपाँशुजप नाम से लय की न्यूनाधिकता में इसे उदात्त, और स्वरित कहते हैं। सामगान में सप्तस्वरों तथा उनके आरोह अवरोह को ध्यान में रखा जाता है। यह लयबद्ध ही संगीत का मूल आधार है। इसकी व्याख्या शब्दब्रह्म कहकर की जाती है। जानकारों को पता है कि शास्त्रसम्मत संगीत का शरीर और मन पर ही नहीं, बाह्य वस्तुओं और परिस्थितियों पर भी प्रभाव पड़ता है-दीपक-राग से बुझे दीपक जलने, मेघराग से वर्षा होने की कथा गाथाएँ सर्वथा अविश्वस्त नहीं है। संगीत के वृक्ष-वनस्पतियों फसलों और दुधारू पशुओं पर होने वाले प्रभाव को वैज्ञानिक मान्यता मिल चुकी है। रोगों की निवृत्ति में संगीत की भूमिका निकट भविष्य में और भी अधिक रहेगी। वैदिक और तांत्रिक मंत्रों का सारा वाङ्मय लय-तथ्य को अपने गर्भ में छिपाये बैठा है।
किसी भी रीति से, किसी भी ध्वनि में मंत्र-साधना भावनात्मक आकांक्षा भले ही पूरी करे, उससे वैज्ञानिक लाभों का प्रयोजन पूरा न होगा।
चुम्बकीय लोहे को अपनी ओर आकर्षित करता है, लकड़ी की नहीं। बिजली का प्रवाह भी धातु के तारों के सहारे ही चलता है। रबड़ आदि अधातु पदार्थों में बिजली नहीं दौड़ सकती। इसी प्रकार मंत्रसाधक को अपनी शारीरिक और मानसिक स्वच्छता एवं समर्थता कि लिए प्रयास करते हुए अपना व्यक्तित्व इस योग्य बनाना पड़ता है कि अंतरिक्ष से अवतरित होने वाला शक्तिप्रवाह धारण कर सकना संभव हो सके। राजयोग से यम-नियमों की साधना, मानसिक परिष्कार के लिए और आसन, प्राणायाम का अभ्यास शारीरिक सुव्यवस्था के लिए है। यदि इन आरम्भिक चरणों को पूरा न किया जाए तो फिर प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि की उच्चस्तरीय साधना सम्भव ही न होगी। आहार विहार के प्रतिबन्ध व्रत संयम का विधान व्यक्तित्व के परिष्कार के लिए ही हैं स्वच्छ दर्पण में ही मुँह साफ दीखता है, साफ कपड़े पर ही ठीक से रंग चढ़ता है। यदि जीवनक्रम दुष्ट और दुराचारी बना रहे, तो फिर मंत्र-साधना का कर्मकाण्ड कितना ही विधि विधान युक्त क्यों न हो, उसका अभीष्ट परिणाम निकलेगा नहीं।
इसके अतिरिक्त चौथी शर्त है भावभरी मनःस्थिति। इसे दूसरे शब्दों में ’श्रद्धा’ कह सकते है। जिस प्रकार भौतिकजगत की प्रमुख शक्तियों में विद्युत अग्रगण्य है, उसी प्रकार आत्मिक जगत में समस्त उपलब्धियाँ श्रद्धा की उत्कृष्टता पर निर्भर है। मनोविज्ञानवेत्ता विचारों की क्षमता ओर संकल्पशक्ति का गुणगान मुक्तकण्ठ से करते रहे है। मनुष्य को उठाने, गिराने और बनाने में निष्ठा एवं आस्था का महत्व असाधारण है। आत्मबल और मनोबल का चमत्कार सामान्य व्यक्ति को महामानव के रूप में परिणति कर देने में समर्थ होता है।
संसार की महान घटनाओं की पृष्ठभूमि प्रचुर साधनों पर नहीं प्रचण्ड संकल्प शक्ति पर ही रखी गयी है। सफलताओं का समग्र इतिहास अनिश्चय के साथ जुड़े हुए प्रचण्ड पुरुषार्थ की लेखनी से ही लिखा गया है। मैस्मरेज्म, हिप्नोटिज्म, क्लेरोवायेन्स टेलीपैथी आदि योगविद्या के छुटपुट खेल संकल्पशक्ति की ही फुलझड़ियाँ है। इसी तथ्य को साधना का प्राण कह सकते हैं।
अविश्वासी और अन्यमनस्क व्यक्ति उपेक्षा और उदासीनता के साथ कोई साधना करते रहें तो चिरकाल व्यतीत हो जाने और लम्बा कष्टसाध्य अनुष्ठान कर लेने पर भी अभीष्ट लाभ न होगा, किंतु यदि भावभरी मनोभूमि में थोड़ा भरी साधना-विधान अटूट श्रद्धा विश्वास के साथ सम्पन्न किया जाए तो उसका परिणाम तत्काल दृष्टिगोचर होगा। संदिग्ध और आशंकाग्रस्त मनोभूमि मानसिक धरातल को बहुत ही उथला बनाये रखती है, उससे कोई बड़े दैवी अनुदान संजोये नहीं जा सकते। साधनात्मक विधि-विधान का अपना महत्व है, पर यह ध्यान रखने योग्य है कि श्रद्धा को आत्मिक उपलब्धियों का ’प्राण’ ही माना जाएगा। प्राणरहित शरीर को कितना ही संजोया सँभाला जाए, उससे कुछ काम न बनेगा। भावनारहित मनोभूमि मरुस्थल के समान है, जहाँ सफलता की हरी-भरी खेती लहलहाने का स्वप्न कदाचित ही सफल होता है। अस्तु, साधना की सफलता चाहने वाले साधकों को अपनी प्रकृति और प्रवृत्ति को श्रद्धा-शक्ति ही बनाना पड़ता है।
अध्यात्म-विज्ञान की गरिमा भौतिक विज्ञान से असंख्य गुनी बढ़ी-चढ़ी है। मंत्र बहुमूल्य हो सकते हैं पर मंत्रों की महत्ता से उन्हें तौला नहीं जा सकता। संसार की सम्पदाएँ आत्मिक विभूतियों की तुलना में नगण्य है। पड़ और चेतन की गरिमा में जमीन आसमान जितना अन्तर हैं इसे ध्यान में रखा जाए तो इस निष्कर्ष पर पहुँचना होगा कि हमें भौतिक सम्पदाओं के लिए ही लालायित नहीं करना चाहिए, वरन् आत्मिक विभूतियों को भी उपार्जित करना चाहिए, आत्मबल संग्रह करने के लिए कद बढ़ाना सूर्य की ओर मुँह करके चलने के बराबर है। इससे सम्पत्ति रूपी छाया पीछे-पीछे चलेगी। किंतु यदि छाया की ओर मुँह करके दौड़ा जाए तो वह पकड़ में नहीं आएगी और जितनी तेज दौड़ होगी, वह भी आगे उतनी ही तेजी के साथ दौड़ती चली जाएगी। विभूतिवान सम्पत्ति का लाभ अनायास ही उठा लेते है, जबकि सम्पत्तिवानों को भौतिक विक्षोभ और आत्मिक असंतोष की दुहरी हानि उठानी पड़ती है।
हम आत्मिक प्रगति के पथ पर बढ़े। आत्मविज्ञान की सहायता ले। आत्मबोध से दृष्टिकोण परिष्कृत करें और साधना में निरत रहकर विभूतियों के अधिकारी बने, इस संदर्भ में मंत्र साधना का आश्रय लेना एक प्रकार से अनिवार्य ही है।