विज्ञान बहुत कुछ कर गुजरा, अब दर्शन की बारी है

November 1998

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विज्ञान का तात्पर्य प्रकृति के कुछ रहस्यों का उद्घाटन अथवा कुछ उपकरणों का निर्माण कर लेना मात्र नहीं है वरन् उसकी व्यापकता मानवी दृष्टिकोण को अधिक सुविस्तृत तथ्यपूर्ण एवं सत्यनिष्ठ बनाने तक चली जाती है। विज्ञान का उपयोग भौतिक सुख-सुविधाओं के संवर्द्धन अथवा जानकारियों का क्षेत्र बढ़ाने तक सीमित नहीं है वरन् वास्तविक उपयोग यह है कि हम तथ्य और सत्य को प्रश्रय दें। परंपराएँ कितनी ही पुरानी अथवा बहुमान्य क्यों न हों यदि वे यथार्थतः और उपयोगिता की कसौटी पर सही नहीं उतरती तो उन्हें बदलने के लिए सदा तत्पर रहे। नये या पुराने के झंझट में न पड़कर विज्ञानी सत्य को ही मान्यता प्रदान करता है।

विज्ञान न केवल एक प्रक्रिया है वरन् एक प्रवृत्ति भी है। जिसका फलितार्थ है-साहसपूर्ण विवेचनात्मक एवं तथ्यसमर्पित यथार्थवादी दृष्टिकोण। सत्य की खोज के लिए यह आवश्यक है कि हम तर्क और तथ्य की कसौटी पर प्रत्येक मान्यता और परंपरा को कसें और उनमें से जो खरी उतरती हो उन्हीं को अंगीकार करें। विज्ञान के इस पक्ष को 'दर्शन' कहा जाता रहा है। वस्तुतः दोनों के समन्वय से ही एक पूर्ण विज्ञान की प्रतिष्ठापना होती है।

मान्यता पुरानी है या नई इस व्यामोह से निकल कर जो तथ्य है उसी को स्वीकार करने की बात यदि मन समा जाए तो समझना चाहिए कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण मिल गया। यथार्थवादी चिंतन और औचित्य का अवलंबन जिन्होंने अपनाया उन्हें विचारक्षेत्र का वैज्ञानिक ही कहना चाहिए। दूसरे शब्दों में उसे दार्शनिक भी कह सकते है।

भौतिकविज्ञान की अपनी सीमा और उपयोगिता है। वह पदार्थ की स्थिति और गति का विवेचन करता है और वस्तु की मूलभूत सूक्ष्मसत्ता का पता लगाता है। वह सूक्ष्म-से-सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम तक पहुँचने के लिए निरंतर आकुल-व्याकुल रहता है। और अधिकाधिक गहराई तक पहुँचने के लिए अधिकाधिक प्रयास करता है।

भावनात्मक क्षेत्र में भी दर्शन-विज्ञान की गतिविधि इसी आधार पर अधिकाधिक कलात्मक और सौन्दर्य-उपासक बनती जाती है। किन व्यक्तियों और किन पदार्थों की कितनी उपयोगिता है इस स्थूल में सन्निहित महान संवेदनाओं की गहराई तक पहुँचने का प्रयास करता है।

चेतना का सूक्ष्मतम स्तर है-सत्य शिवं, सुंदरम्। वस्तुओं में लोभ ओर व्यक्तियों में मोह का दृष्टिकोण बहुत ही स्थूल है। यह अहंता का आरोपण मात्र है। जिस संपत्ति को हम अपने अधिकार के अंतर्गत मानते है, वह हमें प्रिय लगती है और जिन व्यक्तियों को अपने परिवार के मान लेते है, उनमें आसक्ति बढ़ जाती है। इसी प्रिय परिधि की समीपता सुहाती है और उसे बढ़ाने तथा रखाने की ललक लगी रहती है। आमतौर से सुख-संतोष की परिधि उतने ही क्षेत्र में अवरुद्ध होकर रह जाती है। जो किया और चाहा जाता है वह उसी सीमा में बँधा रहता है। यह अंतः की प्रतिध्वनि मात्र है इसमें वस्तु के मूल सौंदर्य का दर्शन हो ही नहीं पाता और व्यक्ति लोभ और मोह के अँवर-डँवर देखता हुआ बालकौतुकों में उलझा रहता है।

कला काव्य एवं सौंदर्य को भावनात्मक संवेदना तथा चिंतन की गायन कला नहीं कला का आवरण है। उस माध्यम से अंतःकरण में जो उल्लास प्रस्फुरण उमगता है, वह संवेदना ही कला है। काव्य किन्हीं तुकबंदी या छन्द विन्यास को नहीं कहते।शब्दों का आवरण उठाकर विशिष्ट स्तर के भावातिरेक को सजाया भर जाता है। उन शब्दों के अंतरंग में जो कोमलता झाँकती है और चेतना में गुदगुदी पैदा करती है वही कविता है। सौंदर्य वस्तुओं की सज्जा दृश्यों की शोभा एवं व्यक्तियों के अंग-गठन पर निर्भर नहीं है वह तो प्रकृति की मृदुल सुषमा एवं आत्मा की कोमलकान्त संवेदनशीलता को अपने अंतरंग-चित्रपट पर कलात्मक तूलिका के साथ चित्रण कर सकने की कलाकारिता है। सुंदरता को दूसरे शब्दों में दिव्यानुभूति कह सकते है। जो विशिष्टता के अनुरूप उमंगती उभरती रहती है। उसका किसी की अंग-संगठन से कोई विशेष संबंध नहीं है।

संभव है वनस्पतिशास्त्री को कोपलों और कलियों में मात्र रासायनिक प्रक्रिया का कोई अमुक क्रम विकास भर दिखाई पड़े। भौतिकी को शोधकर्ता प्रभातकालीन अरुणोदय की प्रकाश किरणों को नेत्रगोलकों के साथ जुड़े हुए प्रभाव-प्रत्यावर्तन मानकर संतुष्ट हो सकता है। किसी की आँखों से टपकते आँसुओं को रसायनवेत्ता कुछ क्षार श्लेष्मा प्रोटीन पानी आदि का सम्मिश्रण बताकर अपना समाधान कर सकते है। खगोलज्ञ के लिए ग्रह-तारकों की दूरी परिधि कक्षा आदि जानना पर्याप्त लग सकता है पर जिनके दृष्टिकोण में संवेदनाओं की कोमलता विद्यमान है उसे पुष्प को प्राकृतिक सौंदर्य को अरुणोदय की पुष्प बेला को किसी करुणार्द्र के अश्रुप्रवाह को झिलमिलाते तारकों वाली निशा को देखकर जो अनुभूति महत्वपूर्ण है। कला, कविता एवं सौंदर्य की परख वस्तुतः संवेदनशील धाराएँ है जो भावना क्षेत्र को अनेकानेक भाव-लहरियों की थिरकन के साथ आंदोलित करती है। इन्हें दार्शनिक उपलब्धियाँ कहा जा सकता है। अंतःकरण का विकास कोमल संवेदनाओं के क्षेत्र में न हो सके तो उसका शारीरिक पिछड़ापन वन्य-प्राणियों से भी गई-गुजरी स्थिति में खड़ा कर देगा।

भौतिकविज्ञान को असंस्कृत समझने का कोई कारण नहीं क्योंकि उसका उद्देश्य न केवल अणु-सत्ता का विवेचन एवं उपयोग जानना है। वरन् चेतना के साथ जुड़ी हुई कोमल संवेदनाओं को उभारकर अंतःकरण की भावभरी रसानुभूति प्रदान करना भी है। इन दोनों प्रयोजनों को साथ लेकर चलने से ही विज्ञान की पूर्णता बनती है अन्यथा भौतिकी को ही विज्ञान मान लेने पर तो वह सचमुच ही असंस्कृत बन जाएगा। तब उसे लँगड़े, काने, कुबड़े, पंगे, नकटे, बूचे की संज्ञा दी जा सकेगी। वह वस्तुतः कुरूप एवं कर्कश ही बन जाएगा।

जीवन को जड़ और चेतन का समन्वय कह सकते है। हमें पदार्थों का भी उपयोग करना पड़ता है और चेतनता से भी वास्ता पड़ता है। हमारा शरीर स्वयं जड़-पदार्थों से बना है और अंतःकरण में चेतना की सत्ता विद्यमान है। उभयपक्षीय वस्तुस्थिति से अधिकाधिक आनन्द लेने के लिए उनकी सूक्ष्मता में प्रवेश करना आवश्यक है ताकि जो अभी तक नहीं मिल सका वह आगे मिल सके। इस आवश्यकता की पूर्ति स्थूल जड़जगत के क्षेत्र में भावसंवेदना के अंतराल में प्रवेश करके वह प्रयोजन सिद्ध किया जा सकता है।

विज्ञान और दर्शन का क्षेत्र पृथक रखा जाए तो दोनों दो है भी नहीं। एक ही तथ्य के दो पूरक पक्ष है। भौतिक जड़ पक्ष को सँभालता है और ब्रह्मविद्या चेतना को सुसंस्कृत बनाती है। तथ्यों की उपेक्षा करने मात्र से चिंतन की कलाबाजी का खेल खड़ा करते रहने वाला दर्शन भ्राँतियों का भण्डार बन जाएगा वह हमें अवास्तविक कल्पनाओं की उड़ान में उड़ते रहने वाला-दिवास्वप्न देखते रहने वाला मात्र बनाकर रख देगा। इसी प्रकार जड़ पदार्थों की क्षमता पर निर्भर होते-होते हम स्वयं हृदयहीन मशीनी मनुष्य मात्र बनकर जाएँगे। विज्ञान को दर्शन के साथ और दर्शन को विज्ञान के साथ अपना ताल-मेल बिठाना पड़ेगा। यद्यपि आज यह बहुत कठिन दीखता है पर कल इसकी अनिवार्यता अनुभव की जाएगी। सत्य और तथ्य का समन्वय करने से ही सर्वतोमुखी प्रगति के दोनों पहिए गतिशील हो सकेंगे।

विज्ञानी को कलाकार बनना चाहिए और कलाकार को विज्ञान के साथ अपना मेल-जोल बढ़ाना चाहिए। दर्शन और विज्ञान को मिलाकर उभयपक्षीय आवश्यकताओं की पूर्ति करनी चाहिए। दोनों को दो धाराओं में बहते हुए भी एक लक्ष्य पर पहुँचना चाहिए। यदि विज्ञानी बिना हित-अनहित का विचार किए घातक आविष्कार को उपयोग होता रहा तो मनुष्य अपनी कलाकारिता को अनावश्यक समझने लगेगा और उसकी सौंदर्यानुभूति समाप्त हो जाएगी। यदि ऐसा हुआ तो विज्ञान की प्रगति सचमुच बहुत महँगी पड़ेगी।

विज्ञान के संपर्क में दर्शन की सत्ता को खतरा उत्पन्न हो जाएगा इस प्रकार सोचना तभी उचित है जब वह अवास्तविक आधारों को लेकर चल रहा हो। अब बुद्धिवादी युग आ गया। क्यों और कैसे की कसौटी पर कसे बिना अगले दिनों किसी भी प्रचलन को स्वीकार न किया जा सकेगा। यथार्थता की परीक्षा से यदि दर्शन भागेगा। तो उसका यह भगोड़ापन ही उसकी सच्चाई समझे ली जाएगी और दंभी बताकर समय का प्रवाह उसका साथ छोड़ देगा तब उसे बेमौत मरना पड़ेगा इससे अच्छा यही है कि वह समय रहते आत्म-निरीक्षण परीक्षण करके इस योग्य बना ले तथ्यों का सामना करने में उसे डरने की तनिक भी आवश्यकता न रहे। दर्शन का गौरव इसी में है। विज्ञान को अपना क्षेत्र जड़ की परिधि से अधिक विस्तृत करके उसे चेतना तक विकसित करना होगा। चेतना जड़ की प्रतिकृति प्रतिच्छाया नहीं। पदार्थ का उपयोग करना मात्र ही उसकी तुष्टि का आधार नहीं है। आत्मा में कुछ ऐसा भी है। जिसे अलौकिक अद्भुत और सरस कह सकते है। प्रत्यक्ष को ही मात्र कसौटी मानकर चेतना की सत्ता को झुठलाया जा सकता है पर इससे काम है और अपना स्तर। उनकी अपनी गरिमा है और अपनी संवेदनात्मक दिव्यता। यदि ऐसा न होता तो उसकी चेतना एक कंप्यूटर जितनी होकर रह जाती।

विज्ञान की उपलब्धियों ने इस भूखण्ड के निवासियों को अत्यंत समीप ला दिया है। द्रुतगामी वाहनों ने दूरी को दूर कर दिया है। संचार साधनों-इंटरनेट व टेलिकॉम नेटवर्क से हम दूरभाषण और दूरदर्शन की आवश्यकता क्षण भर में पूरी ही नहीं कर लेते हमें संसार भर की खबरें तत्क्षण ही मिल जाती है। विस्तृत क्षेत्र में फैली हुई दुनिया अब एक गाँव में रहने वाले लोगों की तरह इकट्ठी हो गई है। दूरी क्रमशः द्रुतगति से निरस्त होती जा रही है। यह भौतिक उपलब्धियाँ, भौतिक विज्ञान द्वारा प्रदान की गई है। दर्शन को मनों की दूरी दूर विज्ञान ने निरस्त कर दी और दर्शन का काम है कि व्यक्तिवाद की संकीर्णता को हटाने और आत्मवत् सर्वभूतेषु की विश्वमानव एवं विश्वपरिवार की उदात्त मनःस्थिति को विकसित करने में अपने समस्त प्रयासों को केंद्रित कर दिखाए। जड़ता और अह के निविड़ बन्धनों से मानव-जाति को छुड़ाने में दर्शन को ही महत्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी। देवत्व की सदाशयता का विकास कर सकना उसी के हाथ में है। मानवी संस्कृति का संरक्षण दर्शन के अतिरिक्त भला और कौन कर सकेगा? विज्ञान व दर्शन का समन्वय ही इक्कीसवीं सदी की आचार-संहिता का निर्माण करेगा।


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