एक ही परमचेतना हम सब में संव्याप्त

November 1998

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ज्ञान के उन्मेषकाल से ही भारतीय ऋषि-मनीषियों ने वृक्षों में चेतना का दर्शन किया था। तभी उन्होंने इन्हें चैतन्य सम्पन्न प्रतिपादित किया है। व्यवहारशास्त्र के आदिप्रणेता एवं प्रथमपुरुष मनु ने इस तथ्य को स्वीकार करते हुए कहा है कि वृक्षों के अंदर ज्ञान आवृत्त रहता है तथा इन्हें भी सुख-दुःख की अनुभूति होती है। जड़-जगत के अन्वेषक वैज्ञानिकों में भी यह सत्य मान्य हो चुका है। इन्होंने अपने अनुसंधान एवं शोध-प्रयत्नों में यह बात अनेकों तरह से सिद्ध की है। इनके निष्कर्षों के अनुसार चेतना की विकास-यात्रा वनस्पतिजगत से प्रारम्भ हुई मानी जानी चाहिए। विज्ञान वेत्ताओं के अनुसार वृक्ष संवेदनशील होते है तथा विविध अनुभूतियों को अभिव्यक्त करते है भले ही अभिव्यक्ति का माध्यम किन्हीं अन्य जीवों जैसा न हो।

कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने अपने ’वसंतयापन’ शीर्षक निबन्ध में लिखा है कि उन्नति के इतिहास में मनुष्य का एक अंश पेड़ पौधों के साथ लिपटा-सिमटा हुआ है। हमारी प्रकृति में इसका यथेष्ट परिचय मिलता है। अवश्य किसी समय हम लोग शाखामृग थे किन्तु उससे भी पहले किसी एक आदियुग में हम शाखी (वृक्ष) जरूर थे। कविवर इस विषय को आगे बढ़ाते हुए कहते है कि अभिव्यक्ति की अंतिम पंक्ति में आ जाने के कारण मनुष्यों में अनेक विभाग हो गए है। जड़ भाग, उद्भिज भाग, पशु भाग, बर्बर भाग,सभ्य भाग,देव भाग आदि। इस तथ्य का और अधिक स्पष्टीकरण श्रीमद्भागवत पुराण में मिलता है। कपिल मुनि अपनी माता से कहते है कि ”हे जननी। जिनमें चेतना नहीं है उनसे सचेतन प्राणी श्रेष्ठ है। जिनमें साँसें चलती है उनमें वे श्रेष्ठ है। जिनमें ज्ञान का अंश विद्यमान होता है। ”जिनमें ज्ञान का अंश विद्यमान होता है। ’इस श्रेणी का पहला विभाग स्पर्श आदि अनुभव करने वाले वृक्षों का है। इनमें सूक्ष्म रूप से सभी इन्द्रियों की वृत्तियाँ होने पर भी मुख्यरूप से स्पर्शेन्द्रियाँ होती है।

भारतीय समाज में तो वृक्षों की चेतना के अस्तित्व को स्वीकारने के अनेकों प्रमाण मिलते है। विभिन्न पर्वों पर इनकी पूजा इस सत्य की ही अभिव्यक्ति है। हमारे तत्त्वदर्शी ऋषियों ने तो आदिकाल से ही मनुष्य और वृक्ष में असाधारण साम्यता एवं समरूपता की झाँकी देखी थीं। बृहदारण्यक उपनिषद् का ऋषि कहता है-मनुष्य के शरीर में रोमावली पत्ते के समान त्वचा बाहर के छिलके की भाँति तथा उसकी त्वचा में बहता हुआ रक्त वृक्ष की त्वचा से निकलते हुए रस के सदृश है। मनुष्य के माँस अर्थात् माँस-पेशियाँ होती है। जो कि वृक्ष की अंतः संरचना के समान है। पुरुष का नाड़ी जाल वृक्ष की लकड़ी से लगे हुए कोमल भाग के तुल्य है और उसकी हड्डियाँ अंदर की लकड़ियाँ तथा मज्जा जैसी है।”

वृक्ष चेतना के प्रतिपादन के संदर्भ में भारद्वाज और भृगु का संवाद सर्वाधिक रोचक व महत्वपूर्ण है। भारद्वाज ने अपनी जिज्ञासा में वृक्षों के पंचभौतिक तत्वों के अस्तित्व से इंकार किया है। ये इनमें चेतना नहीं मानते। इसके समाधान में महर्षि भृगु की मान्यता है कि वृक्ष-वनस्पतियों में आकाशतत्त्व के कारण फूल और फल प्रकाशित होते है। ऊष्णता या अग्नितत्त्व की वजह से पत्ते, छाल, फल एवं पुष्पों का मलिन होना एवं मुरझाना होता है। यह वृक्षों के स्पर्श का संकेत है।अग्नि वायु और विद्युत के भीषण शब्दों से फल-फूल झड़कर गिरते है। श्रोत से शब्दों से फल-फल झड़कर गिरते है श्रोत से शब्द का ज्ञान होता है। अतः अवश्य ही वृक्ष सुनते है। लता वृक्ष से लिपटती है और चारों ओर से उसके ऊपरी भाग तक गमन करती है ऐसी स्थिति में वृक्षों को दिखाई देने की अनुभूति भी होती होगी क्योंकि दर्शन के बिना गति की संभावना नहीं होती। प्राणशक्ति के कारण पवित्र, अपवित्र गन्ध और अनेक तरह की धूप की गन्ध से वृक्ष रोगरहित होकर पुष्पित तथा पल्लवित हुआ करते है। वृक्षों में रसेन्द्रियाँ भी होती है। ये वायु से संयुक्त होकर मूल के द्वारा जल खीचते है।

‘वैदिक संपत्ति के प्रसिद्ध लेखक पं. रघुनंदन शर्मा ने अपनी इस रचना में एक समाचार पत्र ’लीडर’ के एक लेख को उद्धृत करते हुए कहा है कि बुद्धि संबंधी प्रकाश वृक्षों में भी पाया जाता है। बगीचों में पड़ हुए नलों के सुराखों को वृक्ष सहजता से परख लेते हैं और उन सुराखों में अपनी जड़े डाल देते हैं। इन्होंने एक ऐसी लता का उल्लेख किया है जो किया वृक्ष की चोटी तक जाकर जमीन में वापस आ जाती है और फिर दूसरे वृक्ष पर चढ़ने के लिए तत्पर रहती है भले ही इसका अंतर पचास गज दूर ही क्यों न हो।

वृक्षों में रागात्मक लगाव को रामायण में बड़े ही सुन्दर ढंग से चित्रित किया गया है। भगवान श्रीराम के वनगमन के समय वृक्ष अपनी जड़ों द्वारा जकड़े होने के कारण वेगहीन थे। इसलिए वे वन में जाते हुए श्रीराम के पीछे-पीछे तो नहीं चल सकते थे फिर भी वायुवेग से उनमें जो उद्वेग पैदा हो रहा था उसके द्वारा ऐसा प्रतीत होता था मानो वे ऊँचे-ऊँचे वृक्ष श्रीराम को वापस लौटने के लिए पुकार रहे हो। इतना ही नहीं श्रीराम को वन में छोड़कर जब सुमंत वापस लौटे तब उन्होंने दशरथ को बताया कि लक्ष्मण-सीता सहित राम के वनगमन से सबसे अधिक दुःख एवं कष्ट अयोध्या के वृक्षों को हुआ।

यह शोक इतना था कि राज्य के वृक्ष इस संकट का अनुभव कर कृषकाय हो गया तथा फूल अंकुर और फलियों सहित मुरझा गए।

एक अन्य स्थान पर महर्षि वाल्मीकि कहते है-चित्रकूट जा रहे भरत को मार्ग में भारद्वाज के आश्रम में वृक्षों ने अभूतपूर्व सत्कार किया। उस समय बेल के वृक्ष मृदंग बजा रहे थे बहेड़ के पेड़ शम्या नामक ताल देते थे तथा पीपल नृत्य कर रहे थे। इन अलंकारिक वर्णनों के पीछे वृक्षों के अंदर मानव के समान उल्लास व आनंद दृष्टिगोचर होता है।

डॉ. हरिराम जसटा ने अपनी कृति हिमांचल की लोकसंस्कृति में तिब्बत की एक जनश्रुति का वर्णन किया है। इनके अनुसार जिस समय किसी लामा का जन्म होता है तब उसके जन्मस्थल के आस-पास सारे मुरझाए वृक्षों में नए जीवन का संचार होता है। उनमें मुस्कराती हुई कोमल एवं नयी पत्तियाँ फूटने लगती है। यह किसी महापुरुष के जन्म के स्वागत की तैयारियाँ होती है। पुण्यात्मा के जीवनोत्सवों से वृक्ष भी उमंगित होते हैं। वाल्मीकि रामायण में भी एक ऐसा ही प्रसंग आया है कि जब राम के राज्याभिषेक उत्सव में नर-नारियाँ उमंग व उत्सव में मग्न थी उसी दौरान वनस्पतिजगत में भी हर्षोल्लास का वातावरण था। आदिकवि वाल्मीकि के अनुसार भगवान राम के राज्याभिषेक के समय धरती हरियाली से हरी हो गयी वृक्ष पत्तों से लद गए और पुष्पों में अपूर्व सुरभि भर गयीं। भारत के अलावा अन्य देशों में भी वृक्ष एवं उत्सव के संबंध को दर्शाया गया है। स्वीडन के एक गीत में बताया गया है। कि जब अप्सराएँ नृत्य करने लगती है तब वृक्षों की पत्तियाँ भी उसी ताल एवं लय में थिरकती है। वृक्ष संगीत प्रिय होते है।वैज्ञानिक शोध के अनुसार पेड़-पौधे संगीत के प्रति अत्यंत संवेदनशील होते है। सोयाबीन और मक्का के पौधों की वृद्धि संगीतमय वातावरण में तीव्रता से होती है। वृक्ष स्वयं भी संगीत का स्वर निकालते हैं। इसे किसी एकांतवचन में गहरे भावात्मक एकात्म से अनुभव किया जा सकता है। वृक्षों को मधुर व मंद संगीत अधिक आकर्षित करते हैं। इन्हें वेद की ऋचाएँ एवं सामगान बेहद पसंद आता है। ऋषियों को आश्रमों में व आस-पास वृक्ष-वनस्पतियों का अधिक फल-फूलों से लदा पाया जाना इसी का प्रमाण है।

आधुनिक विज्ञानजगत के मनीषी जगदीशचन्द्रबसु ने ऋषियों के इस तथ्य को प्रमाणित किया। इन्होंने स्पष्ट किया कि पौधों में बुद्धि रुदन-गायन शयन जागरण वेदना और आनंद की भावना सन्निहित होती है। इसके पश्चात अमेरिकी वैज्ञानिक क्लीव वैक्सटर ने भी पौधों की संवेदनशीलता को स्वीकार। वैक्सटर ने पौधों की कई घटनाओं का साक्षात्कार किया है। इनसे प्रभावित होकर उन्होंने ’सीक्रेट लाइफ ऑफ प्लांट्स’ नामक ग्रंथ लिखकर वनस्पति जगत में सबको आश्चर्यचकित कर दिया। अमेरिकन महिला वैनिक श्रीमती शेट ने भी पौधों में चेतना के प्रभाव का उल्लेख किया है। इन्होंने आगे स्पष्ट किया है पौधे अदृश्य तरंगों के द्वारा मानव की भावनाओं को ग्रहण कर लेते है। ये वातावरण में हो रही सूक्ष्म हलचलों के भी मूकदर्शक होते हैं। ट्रीरिंग इसका प्रमाण है जिसमें समस्त गतिविधियों को कोड की भाषा में लिख दिया जाता है।संभवतः इसी कारण पौधे किसी संत से पुलकित एवं प्रसन्न होते है तथा लकड़हारे से भयग्रस्त हो जाते है। रूस के प्रसिद्ध वैज्ञानिक वी. एन. पुष्किन ने अपने अनेक अनुसंधानों से प्राप्त निष्कर्ष के आधार पर बताया है कि पौधे और मनुष्य के बीच गहरा संबंध होता है। इसी के आधार पर पौधे मनुष्य के भीतर की सूक्ष्म हलचलों व परिवर्तनों को पकड़ लेते है। पौधे अपने रक्षक के साथ गहरी आत्मीयता व प्रेम रखते है। किसी की जीवित कोशिकाओं को नष्ट होते देख पौधे दुःखी हो जाते है प्रो. इवान इसी दोशेविच गुनार के अनुसार मनुष्य के नाड़ी आवेगों के समान पौधों में विद्युत आवेग होते है दक्षिण अफ्रीका में एसीटिव नामक वृक्ष हिंसक मनुष्य से बेहद डरता है जबकि अच्छे लोगों की उपस्थिति में प्रसन्नता व्यक्त करता है। केरनीद्वीप में पाया जाने वाला वृक्ष ‘लाडरोज’ रोता है। इसके अलावा वहाँ पर हँसने वाले गाने वाले तथा माँसभक्षी पेड़ों का भी पता चला है। आदमी के समान पेड़-पौधे बीमार भी होते है। जर्मनी में तो डॉक्टरों को बीमार पेड़ों का उपचार करते पाया जा सकता है। वहाँ के डॉक्टर पेड़ों की सर्जरी तक करते है।

वैज्ञानिक शोध से यह भी पता चला है कि कई प्रकार के वृक्ष भूकम्प की तीव्रता का समय से पूर्व आभास कर लेते है। इन्हें अन्य प्राकृतिक आपदाओं एवं विपदाओं को सूचित करते देखा गया है। एक पेड़ ऐसा भी है जो अपनी वंश−वृद्धि के लिए आत्महत्या कर लेता है। पनामा में बोरो कोलाराडोकं आइलैण्ड पर स्थित एक प्रयोगशाला के अनुसार टेफीगोलिया वर्सीकोलर नामक यह पेड़ ऐसा कार्य करता है। यह परंपरा पीढ़ी-दर-पीढ़ी निर्बाध रूप से चली आ रही है। अभी तक किसी वृक्ष ने इस परंपरा को नहीं तोड़ा है। यह भी मानव के समान एक संवेदनशील गुण है।

वनस्पतियों को चैतन्यसंपन्न होना तथा मानव के साथ इनका घनिष्ठ संबंध होना एक निर्विवाद सत्य है। इस संबंध को और प्रगाढ़ किया जा सके। तो अनेकानेक प्राकृतिक संकटों को टाला जा सकता है। आवश्यकता इसी बात की है कि वनस्पतिजगत के साथ अपनत्व एवं आत्मीयता का भाव रखा जाए तथा इनके रोपण, संरक्षण एवं विस्तार में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी जाएँ। आखिर एक ही परमचेतना ताप उन्मेष हममें व्याप्त है।


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