मन को ग्रंथिमुक्त कर दे, ऐसी हो चिकित्सा पद्धति

November 1998

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शरीर और मन का परस्पर गहरा संबंध है इसे अब विज्ञान भी स्वीकारने लगा हैं। मन कायिक रोगों की पुष्टि हो जाने के बाद इस अवधारणा को बल मिला है कि मन ही स्वस्थता की कुँजी है। वह यदि निर्द्वन्द्व और भयमुक्त बना रहा तो काया भी निरोग रहेगी, अन्यथा रोगी मन जन्म जन्मान्तरों तक उसका पीछा नहीं छोड़ता और व्यक्ति को व्याधिग्रस्त बनाये रहता है। अब ऐसे रोगों के उपचार के लिये मनोविज्ञानी रिग्रेशन थेरेपी का इस्तेमाल कर रहे है।

रिग्रेशन का शाब्दिक अर्थ है पीछे लौटना। यह प्रतिगमनता केवल इस जीवन के पिछले कालखण्ड की नहीं वरन् विगत अनेक जन्मों की यात्रा है। इसमें इस बात की पड़ताल की जाती है कि रोगी के शारीरिक मानसिक कष्ट के पीछे वर्तमान या विगत जन्मों की कोई घटना भूल या भय तो नहीं जो उसकी अंतश्चेतना में भारभूत बनकर व्याधि का रूप धारण कर चुकी है।

मनोवेत्ताओं के अनुसार मनुष्य की दमित इच्छाएँ और वासनाएँ मन की गहरी परतों में दबी पड़ी रहती है। चूँकि इन इच्छाओं की पूर्ति में सामाजिक बंधन और मर्यादाएँ आड़े आती है अतः वे अतृप्त रह जाती है। इनका सार्वजनिक प्रकाशन भी संभव नहीं कारण कि इसमें लज्जा भय संकोच और सामाजिक प्रतिष्ठा में आँच आने का खतरा बना रहता है। स्वप्नों के माध्यम से भी उनका सम्पूर्ण प्रकाशन नहीं हो पाता। इस दशा में दमित वासनाओं के लिये निष्कासन का एक ही मार्ग शेष रह जाता है, वह है काया। वह इसी में से अपनी अभिव्यक्ति करना प्रारंभ कर देती है। यही रुग्णावस्था है। बाढ़ का पानी नदियों में किसी प्रकार अवरुद्ध हो जाय तो वह जल प्रलय की-सी स्थिति उत्पन्न कर देता है इसलिये इस दौरा प्रशासन अत्यधिक सतर्क और सचेष्ट रहता है ताकि उसका प्रवाह रुके नहीं और निर्बाध गति से बहता चला जाय। अतृप्त इच्छाओं का उद्दाम वेग भी ऐसा ही प्रचंड है। सब ओर से अपना रास्ता बन्द पाकर वह शरीर के मार्ग से प्रकट प्रत्यक्ष होने लगता और तरह तरह की मनोकायिक व्यथा की सृष्टि करता है।

रिग्रेशन थेरेपी में इस अवरोध को मिटाया जाता है ओर रोगी के अन्तराल में व्याप्त वासनाओं के घटाटोप को अभिव्यक्त होने का पूरा अवसर दिया जाता है ताकि अवचेतन परत उसके उस बोझ से मुक्त हो सके जिसे वह अब तक ढोती आयी है इसके लिये पीड़ित व्यक्ति को अनेक बार उस जन्म की यात्रा करायी जाती हैं जहाँ से उसका अवचेतन स्तन कुण्ठाग्रस्त होना हुआ था। इस प्रकार की कई यात्राओं के पश्चात मन एकदम हलका हो जाता है और उसी के साथ उसकी व्यथा भी दूर हो जाती है।

इसके लिये सम्मोहन का सहारा लिया जाता है। रोगी व्यक्ति को सम्मोहित कर विगत के अनुभवों से गुजरते हुये उस जन्म तक पहुँचा जाता है जहाँ की कटु अनुभूतियाँ मन की गहन परतों पर बोझ की तरह लदी होती है। इन्हें बार बार कुरेदा जाता है पुनः पुनः उनके स्मरण से अन्तश्चेतना की ग्रन्थि समाप्त हो जाती है और व्यक्ति स्वस्थ हो जाता हैं इस पद्धति से अनेक आश्चर्यजनक सफलताएँ मिलती देखी गई। ऐसे ही एक मामले का वर्णन इंग्लैण्ड के प्रसिद्ध सम्मोहन चिकित्सक जेफरी इवर्सन ने अपनी कृति "मोर लाइन्ज देन वन" में किया है।

घटना एक ईराकी महिला की है। फातिमा नामक महिला को उच्च रक्तचाप की शिकायत थी। उसने उसका काफी इलाज करवाया पर कोई लाभ न हुआ अच्छी से अच्छी दवाइयाँ निष्प्रभावी साबित हो रही थी। वह बहुत परेशान थी। हारकर उसने रिग्रेशन चिकित्सा पद्धति की मदद ली। जब उसे सम्मोहित किया गया और पिछले जन्मों को ओर ले जाया गया तो उसने अपने किसी विगत जीवन की एक रोमांचकारी आपबीती सुनायी।

ब्बीलोन में भयानक मार काट मची थी। सैनिक सड़कों पर गश्त लगा रहे थे। पुरुषों का चुन चुनकर वध किया जा रहा था। सर्वत्र लाशें पड़ी थी। जमीन रक्तरंजित हो उठी थी। पुरुषों का जब सफाया हो गया तो औरतों का कत्लेआम शुरू हुआ। मैं अपनी एक सहेली के साथ बच निकलने की कोशिश करने लगी। लुक छिपकर कुछ दूर बढ़ी पर अंततः सैनिकों के हाथ लग गई। एक ने मेरे पेट में छुरा घोप दिया। मैं लहूलुहान होकर सड़क पर गिर पड़ी और बेहोश हो गई। मेरी सहेली का क्या हुआ, मुझे कुछ भी नहीं मालूम। शायद उसकी भी हत्या हो गई।

यह लोमहर्षक उल्लेख करते समय यों फातिमा की आँखें बन्द थी और वह अर्धमूर्छा की स्थिति में थी इतने पर भी उसका चेहरा भय से पीला पड़ गया था आवाज काँप रही थी और शरीर एवं हाथ पैरों में एक विचित्र प्रकार की छटपटाहट थी मानो वह हत्यारों के हाथ से बच निकलने के लिये संघर्ष कर रही हो। थोड़ी देर उपरांत उसे सम्मोहन से सामान्य स्थिति में वापस लाया गया अब वह काफी स्वस्थ अनुभव कर रही थी। साधारण चेतना की दशा में लौटकर उसने बताया कि वह जिस कार्यालय में कार्यरत है उसका अधिकारी अत्यन्त क्रोधी स्वभाव का है बात बात पर उग्र हो उठता है जिसके कारण वह अत्यधिक सहमी हुई रहती है। पति और बच्चों के साथ भी उसके सामंजस्यपूर्ण संबंध नहीं है। कदाचित अपने कठोर अधिकारी और हठी पति के रूप में उसका अंतर्मन पूर्वजन्म के हत्यारों की छवि देखता था। जब उक्त चिकित्सा के दौरान उसे अनेक बार इस मर्मान्तक आपबीती की स्मृति दिलायी गई तो उसकी रक्तचाप संबंधी शिकायत पूर्णरूपेण ठीक हो गई।

प्रसिद्ध फ्रांसीसी विद्वान ए.ए. लीबिआल्त ने उपर्युक्त चिकित्सापद्धति पर आधारित उपचार पर फ्राँस से बाहर दूसरे देशों में व्यापक सर्वेक्षण कार्य किया। उसके बाद एक पुस्तक लिखी हिप्नोटिज्म फैक्ट और फैंटेसी। इसमें उनने इस बात को स्वीकार किया है कि यदि मन की वास्तव में कोई सत्ता है तो उसकी अनेक परतें होनी चाहिए। बाह्य परतों से दैनिक गतिविधियों का संचालन होता है जबकि गहनतम स्तर में अतीत की स्मृतियाँ सुरक्षित रहती है। इस बात को अधिक स्पष्ट करने के लिये उनने मन की तुलना जल से करते हुये कहा है कि जिस प्रकार उसमें हलकी वस्तुएँ ऊपर तैरती रह जाती है और भारी तली में बैठ जाती है उसी प्रकार पुरानी स्मृतियाँ गहन अस्तित्व प्रच्छन्न रूप से बनाये रहती है। सम्मोहन इस गहराई तक उतरने की विधा है। वहाँ दबी छुपी स्मृतियों को कुरेदकर जब निकाल दिया जाता है तो वह स्तर उनकी विषाक्तता से मुक्त हो जाता है रिग्रेशन प्रणाली इसी सिद्धान्त पर आधारित है।

अपने सर्वेक्षण में उनने लगभग दो हजार ऐसे मरीजों का अध्ययन किया जिन्हें उक्त प्रणाली से लाभ पहुँचा था इनमें करीब ७. प्रतिशत लोग ऐसे थे जो पूर्वजन्म में अपनी जन्म की कोई रोमांचकारी घटना की स्मृति मात्र ने स्वस्थ बना दिया था।

पश्चिमी दुनिया में इस पद्धति द्वारा उपचार करने वाले लोगों में जिनकी सबसे ज्यादा धूम मची थी वे थे आर्नल ब्लाॅकहाॅम। जीवन भर वे इस क्षेत्र में अनुसंधान करते रहे। इस दौरान उनने अनेक ऐसी जटिल व्याधियों का इलाज किया। जिनसे ग्रस्त लोग जीवन से लगभग निराश हो चुके थे। उसे एगेरोफोबिया अर्थात् सामाजिक भय था वह हमेशा अपनी एकांत कोठरी में उदास पड़ी रहती। दूसरों के बीच जाने में उसे भय महसूस होता था ब्लाॅक्सहॅम ने जब उसे सम्मोहित किया तो वह बारहवीं सदी की यहूदी रिबेका बन गई। सम्मोहन के प्रभाव में आकर उसने जो वृतान्त बताया, वह उसके भय के कारण को स्पष्ट करता था। कार्डिफ में उन दिनों यहूदियों का जो कत्लेआम मचाया गया था, उस कत्लेआम को उसने स्वयं अपनी आँखों से देखा था। वह किसी प्रकार स्वयं की जान बचाने में सफल रहीं ब्लाॅक्सहाॅम की चिकित्सा के बाद जेन एकदम निरोग हो गई। अब उसे कही आने जाने में कोई डर नहीं लगता था।

'एनकाउण्टर्स विद द् पास्ट" नामक ग्रन्थ में इसी प्रकार की एक फोबिया भय के मरीज का वर्णन करते हुये ग्रंथकार पीटर माँस लिखते है कि हेलेना नामक उक्त नारी को आग से भय लगता था। धुँआ अथवा अग्नि को देखते ही उसे मूर्च्छा के दौर पड़ने लगते। मोमबत्ती जलाना भी उसके लिये मुश्किल साबित होता। लम्बे समय तक चली मनः चिकित्सा से भी जब उसे कोई फायदा नहीं हुआ, तो उसकी रिग्रेशन थेरेपी आरंभ की गई। सम्मोहित कर उसको जब सैकड़ों वर्ष पीछे के कालखण्ड में लाया गया तो उसने एक बहुत रोमांचक व्यथा कथा सुनाई

मैं हाथ पाँव बाँधकर चिता में लिटा दिया गया।। इस दण्ड पर लोग मोद मना रहे थे। चारों ओर विशाल भीड़ थी। मेरा अपराध सिर्फ इतना था कि मैंने एक ऐसी स्त्री से दवा ली थी,जिससे लोग घृणा करते थे और जिसका लोगों ने एक प्रकार से सामाजिक बहिष्कार कर रखा था। उस औषधि से मेरा गर्भपात हो गया, यद्यपि मेरा इस तरह को कोई विचार नहीं था। लाख मनुहार करने के बावजूद भी लोगों का दया नहीं आई। चिता में आग लगा दी गई। थोड़ी देर में अग्नि ने मेरा स्पर्श कर लिया। मेरे कपड़े जलने लगे। त्वचा झुलस गई। मैं चीखने चिल्लाने लगी। कुछ ही घंटों में मेरा शरीर जलकर भस्म हो गया। इस बीच मैं तड़पती रही।

हेलेना जब उक्त विवरण सुना रही थी तो उसका सम्पूर्ण शरीर पसीने से तर हो रहा था, चेहरे पर भीषण अकुलाहट थी जैसे मृत्यु की पीड़ा वह साक्षात् अनुभव कर रही हो किन्तु जब सम्मोहन से जगी तो काफी स्वस्थ महसूस कर रही थी। अब वह माचिस भी जला लेती थी और सहज ढंग से भोजन भी पकाती थी। आग का डर लगभग दूर हो चुका था। इस प्रक्रिया को कई बार दुहराने के बाद वह बिल्कुल ठीक हो गई।

इस चिकित्सा प्रणाली के विशेषज्ञों का कहना है कि इससे केवल मानसिक रोगों का ही नहीं वरन् दमा त्वचा पेट गठिया रक्तचाप जैसे अनेक प्रकार के शारीरिक रोगों का भी सफल इलाज किया जा सकता है। कई प्रकार का सिर दर्द में भी यह उपचार रामबाण सिद्ध हुआ है। कतिपय मिर्गी के मरीजों को भी इससे राहत मिली है।

कैलीफोर्निया से निकलने वाली पत्रिका जर्नल ऑफ रिग्रेशन थेरेपी में डॉ. मिलर ने एक ऐसी मरीज की चर्चा की है जिसके जोड़ जोड़ में दर्द था वह बुरी तरह कराहती थी दर्द बराबर बना रहता था। जब उसे पिछले जन्म में धकेला गया। तो बताने लगी कि सोलहवीं सदी में इटली में वह एक डॉक्टर थी पर स्त्री नहीं पुरुष। एक बार उपचार के लिये उसके यहाँ एक बालिका आई। उसकी हाथ की हड्डी टूटी हुई थी। उसे भली प्रकार बैठाने के लिये उसने एक झटका देकर उसे ऐंठ दिया। लड़की दर्द से चीख पड़ी। यद्यपि उसको तकलीफ पहुँचाए बिना भी ऐसा कर पाना संभव था, किन्तु उसने ऐसा नहीं किया शायद इसलिये कि डॉक्टर और उसकी पत्नी के बीच मनमुटाव रहता था। पत्नी बच्चों से घृणा करती थी जबकि उसे उनसे प्यार था। इसलिये यदा कदा बच्चों को देखकर उसे पत्नी पर क्रोध आ जाता, जिसका शिकार बच्चों को ही होना पड़ता था। उस दिन भी यही हुआ।

बालिका की तड़पन भर चीख उसके मन में गहराई तक उतर गई। उसके पीछे छिपी पीड़ा का अनुभव उसे होने लगा। बाद में यही गठिया के विकृत रूप में परिवर्तित हो गई। तब से लेकर अब तक हर जन्म में वह गठिया का शिकार रही। इसकी स्मृति से उसे काफी आराम मिला।

दमा यों कायिक व्याधि है। अनेक बार उसके कारण शारीरिक होते है, पर कई मौकों पर उसके पीछे का निमित्त मानसिक भी देखा गया है। कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के मनःशास्त्री पॉल डेवेरोक्स अपने लम्बे अनुसंधान के उपरांत इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं। इण्उयाना यूनिवर्सिटी के मनोविज्ञानी एन.टी.मिरोव एक ऐसे अवसादग्रस्त रोगी का उदाहरण प्रस्तुत करते है जिसके सम्पूर्ण जीवन में अवसाद का कोई वास्तविक कारण दिखलाई नहीं पड़ता था फिर भी मरीज गहन अवसाद की चपेट में था। उसका बार बार सूक्ष्मतापूर्वक मनोविश्लेषण किया गया पर कारण विदित नहीं हो पा रहा था। ऐसा भी नहीं कि किसी एक मनः चिकित्सक ने ही उसका अध्ययन किया हो, अनेक मनः चिकित्सकों से निराश होकर वह अंततः डॉ. मिरोव के पास आया था। अंत में मिरोव ने उसे सम्मोहित कर उसके पिछले जन्मों में झाँकना चाहा तो ज्ञात हुआ कि वह प्रथम विश्वयुद्ध का एक सैनिक था और अग्रिम मोर्चे पर तैनात था उसने अपने सैकड़ों साथियों को मौत के मुँह में जाते देखा स्वयं तो किसी तरह बच गया पर रणभूमि में जा मौत का खेल देखा उससे वह बुरी तरह डर गया चूँकि उसमें वीरोचित् साहस का अभाव था, अतएव वह भय उसके अंतर्मन में प्रवेश कर गया। बाद के जन्मों में यही अवसाद बनकर प्रकट हुआ। डॉ. मिरोव के इलाज से वह स्वस्थ हो गया।

चिकित्सा विशेषज्ञों का कहना है कि आज मानवी जीवन इतना जटिल हो गया है कि इन दिनों पैदा होने वाली बीमारियाँ भी साधारण नहीं रही। सामान्य-सी लगनी वाली व्याधियाँ भी अब कठिनाई से ही ठीक हो पाती है कारण कि उनमें से करीब ६. प्रतिशत की प्रकृति मनः कायिक होती है शेष ४. प्रतिशत में वातावरण जिम्मेदार है। मानवी मन सम्प्रति कितना अशाँत और तनावग्रस्त है यह कोई छुपा तथ्य नहीं ऐसे में जो रोग पनपते है उनमें मनस् तत्व का भी कोई कम योगदान नहीं होता। चिकित्सक काया का इलाज करते है जबकि व्याधि मन में होती है इसलिये असफल रहते है। पश्चिमी देशों में चिकित्सा की शैली अब कुछ बदल रही है। वे उपचार से पूर्व रोगी का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण कर यह पता लगाने का प्रयत्न करते है कि प्रस्तुत व्याधि में मन की कोई भूमिका तो नहीं? इस प्रकार की तनिक भी संभावना दीख पड़ने पर वे इलाज उसी स्तर से आरंभ करते है फलतः उन्हें सफलता मिलती है। यह अधिक सूक्ष्म स्तर की प्रक्रिया है। अब कैंसर जैसी जानलेवा बीमारियों में भी इस संभावना की तलाश की जा रही है। यह तो आने वाला समय ही बतलायेगा कि दोनों में कितना और किस स्तर का संबंध है अथवा संबंध है या नहीं किन्तु इतना निश्चित है कि जटिल जीवन के साथ जो रोग पैदा होते है वे सरल नहीं होते, सरल जैसे दीखते भर है।

सिर पर यदि मन भर का बोझ लदा हो तो मनुष्य की साधारण गतिविधियाँ उससे प्रभावित होती है। वह बहुत थका थका और निस्तेज प्रतीत होता है तथा जो कार्य आसानी से अतिसाधारण लोग भी कर लेते है उनके संपादन में भी उसे भारी कठिनाई महसूस होती है। मन के साथ भी यही बात है। वह यदि द्वन्द्वों और ग्रंथियों के बोझ से मुक्त हलका फुलका रहे तो व्यक्तित्व भी स्वस्थ सुंदर और सरल बना रहेगा। ऐसा व्यक्ति ही प्रगति करता और जीवन में कुछ कहने लायक सफलता अर्जित करता है रिग्रेशनथेरेपी जीवन की गति को इसी धारा में चलाने और बनाये रखने वाली चिकित्सा पद्धति का नाम है।


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