कल्कि अवतार और उनकी युगनिर्माण प्रक्रिया

November 1998

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

“एक था राजा हिरण्यकश्यप। वह बड़ा दंभी, अहंकारी और अनीश्वरवादी कहा जाता था। उसके राज्य में सर्वत्र हिंसा,लूटपाट,भ्रष्टाचार,सैनिक - सत्ता अन्याय,अत्याचार का जोर था। यज्ञ जप,स्वाध्याय,सत्संग,परलोक,कर्मफल,परमात्मा से संबंध सारी आस्थाओं का अंत हो चुका था तब “

उनका पुत्र प्रहलाद, जन्म से ही धार्मिक संस्कार लेकर आया उसके जीवन की सरलता, निष्कपटता, धर्मपरायणता हिरण्यकश्यप को सह्य नहीं हुई सो उसने न केवल धार्मिक प्रजा को वरन् प्रहलाद को भी प्राणघातक यातनाएँ दी। कुटिलता के इस कुहासे में धर्म और अध्यात्म का प्रकाश नष्ट हो जाने को हो था कि एक प्रखर सूर्य की भाँति नरसिंह अवतार हुआ और उन्होंने हिरण्यकश्यप के सारे कपट- जाल को कुछ ही दिनों में नष्ट करके रख दिया। प्रहलाद की रक्षा के साथ - साथ धर्म अध्यात्म,सामाजिक अनुशासन और व्यवस्था की प्रतिष्ठापना करनी थी सो परमात्मा ने एक अवतार नृसिंह के रूप में लिया।,,

एक बार फिर वैसी ही विद्रूप स्थिति पृथ्वी के राजाओं ने कर दी थी। राजनीति की जो दुर्दशा अब है ठीक वैसी ही परिस्थिति तब भी थी जब भगवान परशुराम ने जन्म लिया और सत्ताधारियों के रूप में पनप रहे धर्माडम्बर पाप और अत्याचार को उन्होंने ने घूम-घूमकर अपने कराल फरसे की धार से काट गिराया।”

“तदनंतर भगवान राम का जन्म हुआ। दंभी, पाखण्डी और आसुरी वृत्तियों के प्रतीक रावण को परास्त कर सर्वत्र धर्म-संस्थापन की एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया की पूर्ति उन्होंने की संपूर्ण रामायण उसी का अद्यावधि इतिहास है।”

“ऐसी ही एक आवश्यकता द्वापर युग में प्रतीत हुई थी। जब एक बार फिर दुर्भावनाओं का जाल कुछ ऐसा बिछा कि भाई-ही-भाई का गला काटने को तत्पर हो गया। एक ओर छल कपट पाप अत्याचार की १. अक्षौहिणी जनराशि और दूसरी ओर सत्य, शील, धर्मपरायण कुल पाँच पांडव। तब उनकी रक्षार्थ भगवान कृष्ण का जन्म हुआ था। उन्होंने न केवल कौरवों का विनाश करा दिया वरन् पाप-वृत्ति में डूबे अपने ही यादव कुल में समूल-पर्व रच दिया था।

भगवान किसी व्यक्ति के लिए-वृत्ति के लिए जन्म लिया करता है। महाभाग शौनको। भगवान ने स्वयं कहा था-

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदाऽऽत्मनं सृजाम्यहम्॥

हे अर्जुन। जब-जब पृथ्वी पर धर्म का नाश और अत्याचार की बाढ़ आती है तब-तब मैं मानवीय रूप में अवतरित होकर सृष्टि में व्यवस्था स्थापित करता हूँ, अधर्म का अंत करके धर्म-संस्कृति-सदाचरण की स्वर्गीय वृत्तियों का अवतरण और जनमानस में आच्छादन करता हूँ।

इतनी कथा सुनने के उपरांत ज्ञान की अन्यतम जिज्ञासा वाले शौनक मुनियों ने महर्षि लोमहर्शण के पुत्र श्री सूतजी से प्रश्न किया-भगवन्।द्वापर तक की कथा हो चुकी अब आप कृपया यह बताइए कि कलियुग में भगवान का जन्म किस रूप में होगा उस समय ऐसा कौन-सा दुष्ट और अत्याचारी राजा होगा जिसे मारने के लिए भगवान अवतरित होंगे।

वह सब कथा भी हमें विस्तारपूर्वक सुनाइए जिससे हमारा कल्याण हो।”

शौनकों के प्रश्न करने पर श्री सूतजी बोले-मुनीश्वर ब्रह्माजी ने अपनी पीठ से घोर मलीन घातक को उत्पन्न किया। उसका नाम रखा गया-अधर्म। अधर्म जब युवक हुआ तब उसका मिथ्या से विवाह कर दिया गया। अधर्म व मिथ्या के संयोग से महाक्रोधी पुत्र दंभ का जन्म हुआ उनके माया नाम की एक कन्या उत्पन्न हुई। फिर दंभ और माया के संयोग से लोभ नामक पुत्र और निकृति ने क्रोध को जन्म दिया। क्रोध की संयोनि हिंसा हुई। इन दोनों के संयोग से काली देह वाले महाभयंकर कलि का जन्म हुआ।

काकोदर, विकराल, चंचल, भयानक, दुर्गंधयुक्त शरीर, धूत मद्य, स्वर्ण और वेश्या में निवास करने वाले इस कलि की बहिन दुरुक्ति हुई। इन दोनों ने परस्पर विवाह कर लिया, जिससे भयानक नामक पुत्र और मृत्यु नामक कन्या हुई। भयानक और मृत्यु के निरत और यातना नामक पुत्र-पुत्री उत्पन्न हुए। इन दोनों के संयोग से हजारों अधर्मी पुत्र पैदा हुए जो आधि व्याधि बुढ़ापा दुख-शोक आदि में रहकर यज्ञ, स्वाध्याय दान, उपासना आदि का नाश करने लगे।”

सारी पृथ्वी में आई अधर्म व दुखों की बाढ़ और उसकी बौछारें स्वर्गलोक तक पहुँचती देखकर देवगण बड़े चिंतित हुए। वे पृथ्वी को आगे करके प्रजापति ब्रह्मा के पास गए और बोले-भगवान कलियुग के अधर्मों के कारण पृथ्वी बुरी तरह भयभीत हो रही है। वहाँ सीधे सज्जन व भावनाशील लोगों को बुरी तरह कष्ट मिल रहा है। अब कुछ ऐसा कीजिए कि पृथ्वी सर्वनाश से बच जाए। तब प्रजापति विधाता पृथ्वी और देवताओं को लेकर विष्णुलोक गए और भगवान श्रीहरि से देवताओं की सारी विनती कह सुनाई। तब भगवान ने प्रसन्न होकर पृथ्वी पर आने और अवतार लेने का वचन दिया। -(कल्किपुराण २/१/७)

ऊपर की पंक्तियों में चल रहा आख्यान वस्तुतः कोई नामधारी राजा के वंश का वर्णन न होकर कलियुग के आविर्भाव का भाव-चित्रण मात्र है। उसे इतनी कुशलता से और सूक्ष्म बुद्धि से उपस्थित किया गया है कि वर्तमान युग की व्याख्या में किसी को संदेश न रह जाए।

यह कलियुग है सही, पर न तो आजकल किसी के क्रोध, हिंसा, यातना, दंभ लोभ, निकृति आदि नाम होते हैं और न ही अभी सामाजिक परंपराएँ इतनी विकृत हुई कि सगे भाई-बहिनों में संबंध होने लगे। व्याख्यान पूरा-का-पूरा भाववाचक है और दुर्गुणों की क्रमिक वंशावली का कलात्मक प्रतीक है। यह एक प्रकट तथ्य है कि मनुष्य कोई पाप करता है तो उसे तुरंत छिपाने की आवश्यकता पड़ती है तब वह झूठ बोलता है। पाप और झूठ के संयोग से ही दंभ बनता है। मायाचार उसका दूसरा रूप है। यही दीं व माया जहाँ मिलते है वही लोभ की उत्पत्ति होती है। इस तरह यह वंशावली बढ़ते-बढ़ते हजारों प्रकार की पाप-वासनाओं-बुराइयों-विकृतियों के रूप फैल जाने का नाम युग की विकृति या कलियुग है। कलियुग का नाम लेते ही एक ऐसे युग का बोध होता है जिसमें पाप अधर्म अत्याचार हिंसा सर्वनाश की विभीषिकाएँ यातनाएँ रोग वृद्धावस्था दैन्य दारिद्रय का सर्वत्र बाहुल्य हो उठे। यह सब परिस्थितिवश हुआ, इसके लिए किसी एक व्यक्ति को दोष नहीं दिया जा सकता। ब्रह्माजी का एक नाम विधि भी है। उसका अर्थ है कि कालक्रम में इस तरह की परिस्थितियों का आविर्भाव भी होता ही रहता है।

ज्ञान-संपादन-यज्ञ आदि परमार्थी वृत्तियाँ नष्ट हो जाने के कारण सारी पृथ्वी के लोग दुःख पाने लगते है। तब कुछ विचारशील लोग पीछे लौटते है और सृष्टि प्रक्रिया पर ध्यान देकर देखते है कि यदि धरती पर कभी सुख समृद्धि रही है तो वे परिस्थितियाँ कौन-सी थी। उनसे निष्कर्ष निकल सकना संभव नहीं होता तो वे किन्हीं समर्थ-व्यक्तियों की संरक्षता में एकत्रित होकर उन परिस्थितियों की छानबीन करते है और फिर उनको अवतरित करने की दिशा में कार्यरत भी होते है। अवतार का काम इन भावनाशील आत्माओं को जोड़ना और उनके द्वारा एक नये युग के निर्माण की सशक्त विचार-प्रक्रिया को क्रिया पद्धति में ढालना होता है।

कल्कि अवतार की भाव-भूमिका पर प्रकाश डालते हुए श्री सूतजी आगे लिखते हैं कि देवता धरती को आगे करके ब्रह्माजी के पा गये और उनके समक्ष धरती से अपने दुःखों का वर्णन करवाया। ब्रह्माजी देवताओं को लेकर विष्णुलोक गये। भगवान विष्णु ने पृथ्वी की सुनी और आश्वासन दिया कि हम तुम्हारे कष्ट दूर करने के लिए अवतार लेने आ रहे हैं। फिर देवताओं से कहा- तुम लोग मेरी सहायतार्थ जाकर पृथ्वी में स्थान-स्थान पर जन्म लो।

उपर्युक्त आख्यान से भी वही बात स्पष्ट है। पृथ्वी स्थूल पदार्थों का जड़ पिंड है, वह न तो अपनी कक्षा को छोड़कर किसी लोक निर्माण कर सकती है और न किसी से कुछ निवेदन कर सकती है। संपूर्ण कथानक का आशय यही है कि जब पृथ्वी अज्ञान, अधर्म और पाप - वासनाओं के अंधकार में बुरी तरह घिर गई, तो प्रजापति अर्थात् विधि-व्यवस्था ने एक अतिसार्वभौमिक मानवीय सामर्थ्यों से संपन्न सत्ता का प्राकट्य किया। वह सत्ता जन्मी अकेले पर उसका साथ देने वाले भावनाशील देवपुरुषों की पंक्तियों की पंक्तियाँ उठ खड़ी हुई और देखते-ही-देखते अधर्म का विनाश करने वाली प्रक्रिया प्रचण्ड रूप में सुदर्शन चक्र की भाँति सारे संसार में घूमने लगी। इस तमाम घटनाचक्र के संचालन का श्रेय किसी भी व्यक्ति को मिले वह अलग बात है पर संपूर्ण अवतारों की कथाएँ और श्री सूतजी द्वारा वर्णित कल्कि अवतार का कथानक इसी बात का संकेत करता है कि अब पाप और अधर्म, द्वेष और दुष्प्रवृत्तियाँ जन-जन के मन-मन में घुस गई है। उनको काटने के लिए एक तीक्ष्ण विचार-प्रणाली और संघशक्ति के रूप में ही कल्कि का अवतरण होना चाहिए। जो लोग इन पुनीत उद्देश्य में सहायक होंगे वही देवताओं के अंशावतार व भगवान कल्कि के साथी, सहयोगी, शिष्य भक्त देवात्माएँ होगी।

युगनिर्माण योजना का जन्म ऐसी ही भी भावनाशील आत्माओं का गठबंधन और कर्तृत्व है। कुछ ही दिन में इन्हीं देवात्माओं के कर्तव्य-कंधों पर विराजमान कल्कि के दर्शन करने को मिल जाएँ, तो उसे अतिशयोक्ति न माना जाए। कल्कि पुराण इस बात का प्रत्यक्ष साक्षी है कि युगनिर्माण योजना विशुद्ध रूप से ईश्वरीय प्रेरणा, उन्हीं की इच्छा की पूर्ति है। हम जो कर रहे है उसमें उन्हीं की प्रेरणा एवं इच्छा प्रमुख रूप से काम कर रही प्रतीत होती है।

कल्कि पुराण में प्रतिपादित विश्व व्यवस्था के दो प्रमुख आधार-उपासना और यज्ञ, यही दो आधार युगनिर्माण योजना के भी है। उपासना के दो भाग हैं-१ धर्म या अध्यात्म अर्थात् अपने आपको तत्त्वदर्शन धार्मिक विज्ञान) के द्वारा सृष्टि के मूल परमात्मा, जगतनियंता या विश्व-व्यवस्था के साथ जोड़ना, (२) संस्कृति अर्थात् मानवीय जीवन के अज्ञान और आसक्ति को कम करते हुए, प्रक्षालित करते हुए स्वर्ग और मुक्ति की ओर अग्रसर होना। प्रथम में जप, तप, योग आदि आते हैं, दूसरे में स्वाध्याय, सत्संग, संस्कार, सामाजिक सभ्यता और शिष्टाचार की वह सब बातें आती हैं, जो अपनी प्रसन्नता के लिए हम औरों से चाहते है।

यज्ञ भी उसी प्रकार स्थूल व सूक्ष्म दो भागों में बटा है। (१) स्थूल यज्ञ-आकाश जो पृथ्वी को परिमण्डलाकार घेरे हुए है उसकी शुद्धि विषैले तत्वों को मारने के लिए अग्निकुण्ड में शुद्ध वस्तुओं का हवन (२) सूक्ष्म दूषित चिंतनप्रणाली को विचारमंथन की अग्नि में जलाकर उसमें सद्विचारों और सत्कर्मों की निरंतर आहुतियाँ, जिससे विचार और कर्म में सत्प्रवृत्तियाँ का समावेश हो जाए। कल्कि पुराण के अनुसार भगवान कल्कि की कार्यप्रणाली ऐसी ही है।

सूतजी बोले-हे शौनको। जब कल्कि भगवान कुछ बड़े हुए तब उनके पिता विष्णुशर्मा ने कहा-

तात ते ब्रह्मसंस्कारं यज्ञसूत्रमनुत्तमम्ः। सवित्री वाचयिश्यामि ततो वेदान्पठिश्यसि॥ कल्कि पुराण २/३१

वत्स। अब तुम्हारा ब्रह्म संस्कार, उपनयन और सावित्री का श्रवण कराऊँगा फिर तुम वेदाध्ययन करना।

इस पर कल्कि पूछते है-

को वेदःका च सावित्री केन सूत्रेण संस्कृता। ब्राह्यणा विदिता लोके तत्तत्वं वद तात माम्॥

हे तात। यह वेद क्या है? सावित्री क्या है? किस सूत्र से संस्कारित पुरुष ब्राह्मण कहलाता है? इतना पूछने पर विष्णुशर्मा ने इसी अध्याय के ३६से ४.वें श्लोकों में बताया-वेद भगवान विष्णु की वाणी और सावित्री ही प्रतिष्ठा अथवा वेदमाता है। त्रिगुण-सूत्र को त्रिवृत्ताकार करके धारण करने पर मनुष्य पवित्र ब्राह्मण ही ब्रह्मवर्चस के अधिकारी होते हैं उन्हें दस संस्कार दस यज्ञ शुद्ध करते है। तब वे यज्ञ ध्यान, जप, तप, स्वाध्याय, संयम और भक्ति करते हुए ब्रह्म विभूति प्राप्त करते है।

तत्पश्चात वे कल्कि भगवान का उपनयन संस्कार कराकर गायत्री महाशक्ति की उपासना की शिक्षा देते है। कल्कि भगवान इसी गायत्री तत्व और संस्कारों द्वारा जनमानस को संशोधित करने और उन्हें यथार्थ में ईश्वर-बोध कराने की प्रतिज्ञा करते है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि गायत्री उपासना और समाज में ब्राह्मणत्व के सच्चे आविर्भाव के लिए जो लोग प्रयत्न व परिश्रम करेंगे वह कल्कि की इच्छा की पूर्ति वाले उनके सहायकगण वह देवात्माएँ ही होती है जो एक निश्चित संकल्प लेकर अवतार के साथ जुड़ी हुई जन्म लेती है।

कोई भी नई प्रतिभा संघर्ष में जन्म लेती है। नन्हा-सा अंकुर भी पृथ्वी की छाती चीरता है, तभी बाहर आ पता है। पुत्रप्रसव में नारी को कितना कष्ट उठाना पड़ता है यह सब जानते है। समाज में फैली हुई अंधतमिस्रा को दूर करने वाले अतीत के महापुरुषों में से किसी का भी जीवनवृत्त उठाकर देख लिया जाए उन्हें अनिवार्य रूप से स्वीकार करना पड़ा। है यह सिद्धांत सभी युगों में एक समान रहा है।

कल्कि की युग-निर्माण प्रक्रिया भी इसी तरह संपन्न होने को है। कल्कि पुराण के अष्टम अध्याय में ४१से ४५ श्लोकों तक कथा आती है-अत्यंत विस्तार वाला बौद्धों लोग न देवताओं को मानते है न पितरों को और न परलोक को। देहात्मवादी कुलधर्म जातिधर्म न मानने वाले धन स्त्री और भोजनादि में अभेद अर्थात् कोई भेदभाव न करने वाले खाने-पीने में ही जो जुटे रहते है उन्होंने भगवान कल्कि का आगमन सुना तो वे अतिक्रुद्ध होकर संपूर्ण दल-बल के साथ उन पर आक्रमण करने लगे।

बौद्धों से बौद्ध धर्मानुयायियों का कोई संबंध नहीं है। वस्तुतः यह बौद्ध ने तो कोई विशेष धर्म-संप्रदायों के व्यक्ति है और न कीकटपुर नाम की उनकी कोई राजधानी है। बौद्ध का अर्थ आधुनिक सभ्यता से प्रभावित वह लोग है जो आज अपने को बुद्धिमान मानते हुए थकते नहीं। उनमें आज अक्षरशः वह गुण देखे जा सकते है जो ऊपर बौद्धों के कहे गये है। आज विज्ञान इतना बढ़ गया है तथापि उपासना देवार्चन यज्ञ ध्यान परलोक पुनर्जन्म आदि को कोई नहीं मानता। खाना पीना प्रजनन और पैसा जुटाना यही लोगों के लक्ष्य रह गये है। शील सच्चरित्रता नष्ट होते जा रहे है। इन बुद्धिवादियों को ठिकाने लगाने का एक महत्वपूर्ण कार्य युग-निर्माण प्रक्रिया का अंग है और वह धर्म के प्रबुद्ध स्वरूप के विस्तार द्वारा ही संभव है। लोहे को लोहा काटता है। विष को विष मारता है। विज्ञान की जिस मान्यता ने लोगों को कुमार्गगामी बनाया है उसकी दिशाएँ यदि अध्यात्म की ओर मोड़ दी जाएँ तो उससे आज के लोगों की इस देह को ही सर्वसुख मानने वाली धारणा को उसी प्रकार काटा जा सकता है जैसे कल्कि बौद्धों की सेना को काटते है।

कल्किपुराण के १६वे अध्याय में यज्ञानुष्ठानों की विस्तृत प्रक्रिया का वर्णन है। वे कृपाचार्य, परशुराम, वशिष्ठ, व्यास, धौम्य आदि ऋषियों के साथ राजसूय एवं वाजपेय यज्ञों का अनुष्ठान करेंगे। यज्ञ धर्म अर्थ काम की सिद्धि देने वाले कहे गये है पर यह अकेले राजसूय यज्ञों से संभव नहीं बाजपेय अर्थात् ज्ञानयज्ञ और अश्वमेध अर्थात् बुराइयों को काटने को अभियान-यज्ञ भी साथ-साथ चलेगा। उसी से आकाश की शुद्धि के साथ जन-मानस का भी परिष्कार संभव है।

समाज-सुधार और धर्म-प्रतिष्ठा के यह महत्वपूर्ण कर्म-कलाप कल्कि भगवान पूर्ण करेंगे वही यह युगनिर्माण मिशन कर रहा है। यह ईश्वरीय प्रेरणा ही है जो उसे समझकर जितना सहयोग देगा वह अवतार की उतनी ही समीपता और आशीर्वाद का अधिकारी होगा। कल्कि पुराण में इसी तथ्य का प्रतिपादन अलंकारिक किंतु प्रखरतापूर्वक भली-प्रकार देखा जा सकता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles