ऐसे मिलते हैं सत्पात्र

November 1998

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बरसात के दिन थे। आकाश की नीलिमा घने बादलों से ढकी हुई थी। ऋषिवर धौम्य आनन्दविभोर होकर अपने आश्रम में शिष्यों को विद्यादान कर रहे थे। प्राचीन भारत में विद्वान नगर के बाहर आश्रम बनाकर निवास करते थे। वहीं रहकर वे कठोर तप साधनाएँ करते और अपने शिष्यों को विद्याध्ययन कराते थे। शिष्य भी सदा उन्हीं के आश्रम में निवास करते थे। और पढ़ने-लिखने के साथ-साथ भक्तिभाव से गुरुजनों की सेवा-शुश्रूषा करते थे। आश्रम की खेती बाड़ी का काम भी संभालते थे। ऋषिवर अयोद धौम्य ऐसे ही गुरु थे। उनके आश्रम में निवास करने वाले शिष्यों की संख्या सैकड़ों तक जा पहुँची थी।

महर्षि की तपस्या एवं अपूर्व विद्वता की ख्याति समूचे आर्यावर्त में परिव्याप्त हो चुकी थी। श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ होने के सभी मानक उनमें प्रत्यक्ष थे। समस्त विद्याएँ एवं ऋषियों सिद्धियाँ उनमें प्रतिष्ठित थी। समूचे देश के जिज्ञासु उनका सान्निध्य पाने को लालायित रहते थे। आने वाले प्रत्येक बाल युवा मन की एक ही कामना थी कि महर्षि उसे अपने तप एवं ज्ञान का उत्तराधिकारी समझे। वह उनके अनुग्रह एवं आशीष से कृतकृत्य हो सकें। ऋषिवर की खोज भी कुछ ऐसी ही थी। वह भी योग्य सत्पात्र की खोज में संलग्न थे, जिसके वे शिक्षक ही नहीं सद्गुरु बन सकें। अपने पास ज्ञान की कामना लेकर आने वाले प्रत्येक की आँखों में झाँककर वे पात्रता की खोज किया करते। आज भी वे विद्यादान करते हुए कुछ ऐसा ही ढूँढ़ रहे थे।

तभी सहसा बादल घने हो गये। आकाश में बिजली चमकने लगी। बादलों की तीव्र गड़गड़ाहट के साथ ही बूँदा-बाँदी प्रारंभ हुई और फिर मूसलाधार पानी बरसने लगा। बात की बात में जहाँ देखो वहाँ पानी ही पानी फैल गया। महर्षि चिंतित होकर बोले “ऐसा पानी तो कभी नहीं बरसा। यदि खेत का बाँध पक्का न किया गया तो उसकी सारा फसल बह जाएगी”।

“ मेरी कुटी रिसती है जाकर देखूँ उसमें पानी न भर जाए।” एक शिष्य बोला और वहाँ से चला गया।

“मेरी कुटी का पिछला भाग टूट गया है। अब उसकी क्या दशा होगी। चलकर देख भाल करूँ। “ दूसरा शिष्य बोला और अपनी कुटी की ओर चल दिया।

“मेरी वल्कल वसन तो बाहर ही पड़े हैं, कहीं वह न जाएँ। तीसरा शिष्य बोला और वह भी जल्दी -जल्दी वहाँ से निकल गया।

उसी तरह एक न एक बहाना बनाकर लगभग सभी शिष्य खिसक गये। लेकिन आरुणी शांत न रह सका। वह उठकर खड़ा हुआ और बोला-मुझे आज्ञा दीजिए भगवन् मैं जाता हूँ और बाँध मजबूत किए देता हूँ।”

महर्षि धौम्य ने कहा-ठीक है बेटा! तुम्हीं जाओ, परन्तु इतना याद रखना कि बाँध कच्चा न रहने पाये परिश्रम भले ही अधिक करना पड़ेगा “गुरु के शब्द सुनते ही आरुणी दौड़ते-दौड़ते खेत पर पहुँचा, तो देखा की बाँध एक ओर से टूट गया है और उसके रास्ते खेत का पानी सर्राटे से बाहर जा रहा है। बस, आरुणी एक क्षण के लिए भी नहीं रुका, बाँध को मिट्टी से भरने की चेष्टा करने लगा और इसके साथ ही मानो उसके तथा वर्षा के बीच युद्ध छिड़ गया। पानी का वेग निरंतर बढ़ता जा रहा था, साथ ही आरुणी के प्रयत्न भी उसी गति से तीव्र होते जा रहे थे। जब तक वह मिट्टी का एक ढेर रखता और दूसरा बनाने लगता, इतने में पहले वाला ढेर बह जाता।

अब आरुणी क्या करे? कैसे गुरु की आज्ञा का पालन करे? कैसे खेत का पानी रुके? क्या वह वर्षा से हार मान ले, परंतु आरुणी हार मानने वाला नहीं,जीत पर मरने वाला शिष्य था। जब उसे कुछ न सूझा, तब उसने वर्षा पर विजय पाने के लिए एक बिल्कुल नया अनोखा उपाय खोज निकाला। वह स्वयं टूटे हुए स्थान पर जा लेटा। अभिप्राय यह की मिट्टी के बाँध के स्थान पर हाड़ -माँस का बाँध बना डाला और हाड़ -माँस के इस बाँध के सामने वर्षा को हार माननी पड़ी-खेत के बहते हुए पानी को रुकना पड़ा।

जब दूसरे दिन महर्षि शिष्यों को पढ़ाने बैठे, तब उनमें आरुणी को न देख चिंतित स्वर में बोले -”आज आरुणी दिखाई नहीं देता। कहाँ गया वह?”

“कल संध्या समय खेत की ओर जाता दिखाई दिया था।” एक शिष्य बोला।

महर्षि खेत की ओर चल दिये और पहुँच कर बड़े ही विकल स्वरों में उन्होंने पुकारा -आरुणी! आरुणी!! बेटा आरुणी!!!

जब कहीं से कोई उत्तर न मिला, तब ऋषिवर धौम्य व्याकुल होकर खेत के चक्कर काटने लगे। अन्त में वे ठीक स्थान पर जा पहुँचे, तो देखा कि बेसुध आरुणी ने टूटे हुए बाँध को घेर रखा है। उसके शीत से जकड़े हुए शरीर पर गीली मिट्टी की तहें जम गयी है और वह धीमे-धीमे साँस ले रहा है।

असली बात समझने में उन्हें विलम्ब न लगा। उनकी आँखों से भाव बिंदु टपकने लगे। वे उसे तुरंत आश्रम उठा लाये। थोड़ी देर बाद आरुणी होश में आ गया। महर्षि धौम्य की प्रसन्नता शब्दों में छलक पड़ी। “बेटा! तुम्हारी गुरु भक्ति पर हमें अभिमान है। बहुत दिनों से चल रही मेरी खोज आज तुम्हें पाकर पूरी हुई। मैं आशीर्वाद देता हूँ कि समस्त विद्याओं के साथ तुम अध्यात्म विधा के अधिकारी बनोगे।” आरुणी भी अपने गुरुवर को आज सतगुरु के रूप में पाकर कृतकृत्य हो गए।


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