क्या सही है चमत्कारों का विज्ञापन और प्रदर्शन

November 1998

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मनुष्य की आत्मशक्ति का अंत नहीं। ईश्वर की समस्त शक्तियाँ और विशेषताएँ उसके अंगपुत्र में बीज रूप से विद्यमान है। वह चाहे तो उन्हें विकसित कर सकता है और ईश्वर की हर कृति में जो उसका अद्भुत चमत्कार दीख पड़ता है उसी प्रकार उसके कर्तृत्व भी एक से एक बढ़कर सराहनीय अभिनंदनीय और अनुकरणीय हो सकते है।

ऋषि, योगी, तपस्वी, ज्ञानी सिद्धपुरुष और महामानव इसी चमत्कारी स्तर के हुये है। उनका जीवनक्रम इतनी उच्चकोटि का रहा है। कि उसे सामान्य नर पशुओं की तुलना में उच्चकोटि का कह सकते है। उनने मानवजाति के लिये जो त्याग और बलिदान किये हैं, अनुदान छोड़े है उनका स्मरण करके उनके देवोपम अस्तित्व के सम्मुख नतमस्तक होना पड़ता है। बुद्ध, महावीर, गाँधी समर्थ गुरु रामदास, रामकृष्ण परमहंस विवेकानंद, अरविंद आदि महामानवों को चमत्कारी सिद्धपुरुषों के कर्तृत्व की पीछे उच्चस्तरीय परंपराएँ ही सन्निहित रहती है।

असल की नकल बनाने में कुशल इस दुनिया में बहुत हैं। नकली दाँत नकली आँख, नकली घी, नकली हीरा, नकली सोना जो चाहिए सो मिल जायेगा। असली चीज महंगी और कष्टसाध्य होती है, नकल आसानी से उतारी जा सकती है। असली गाय आठ सौ रुपये की आती है। पर मिट्टी की गाय दस पैसे की मिल जाती है। बालबुद्धि के लोग अक्सर सस्ते से ही मन बहलाना चाहते है इस मानवी दुर्बलता को चतुर लोग जानते है और नकली चीजों से बाज़ार पाट देते हैं, वे बिकती भी खूब हैं।

नकली अध्यात्म भी फैला पड़ा है। असली हीरे जितने बिकते है उससे हजारों गुने अधिक नकली बिकते है। असली आत्मबल कठिनाई से संचित होता है। उसके लिये संयम तप साधना और व्यक्तित्व का समग्र निर्माण करने जैसे कठिन मार्ग पर चलना पड़ते है। चतुर कठिन मार्ग पर चलना पड़ता है। चतुर लोग इस झंझट में पड़कर अपनी विलासी और महत्त्वाकाँक्षी प्रवृत्ति कैसे छोड़ सकते है? वे नकलीपन का आश्रय लेते हे। ऐसे संत महात्मा और सिद्ध योगियों की कमी नहीं जो हाथ ऊपर करके आसमान में से इलायची माँगते और भक्त द्वारा रुपया बनाने जैसे खेलों की भौंड़ी नकल है। पर संत का बाना पहने के कारण लोग उन्हें बाजीगर नहीं मानते और उस अचंभे जैसी बाजीगरी को सिद्धि चमत्कार मान लेते है और उन धूर्तों से बेतरह ठगे जाते है।

यदि लोग थोड़ी समझदारी से काम लें तो वे इस तथ्य पर विचार कर सकते है कि इस प्रकार चमत्कार दिखाने की इन्हें फुरसत कैसे मिली और क्या आवश्यकता प्रतीत हुई? जिनमें आत्मबल होता है वे उसके महत्व को समझते और उसका भोंड़ा प्रदर्शन नहीं करते। नोटों की गड्डी और जेवर जवाहरातों की पोटली कोई बाज़ार में उछालता नहीं फिरता और न यह ढोल पीटता है कि लोगों आओ, देखो मेरे पास कितनी दौलत है। संपन्न व्यक्ति अपने धन को सुरक्षित रखते है और उसे मजबूत तिजोरी में रखते है। अविश्वस्त व्यक्तियों को उसका विवरण भी नहीं बताते। पूछने पर चुप हो जाते है या टाल देते है। कारण स्पष्ट है बहुमूल्य उपलब्धियाँ यदि खुली पड़ी रहे तो उनके खोने चोरी जाने का पूरा खतरा है। वास्तविक आत्मबल सम्पन्न न कभी अपना विज्ञापन कर सकते है। और न चमत्कारों का प्रदर्शन। वे उसे केवल आत्मकल्याण और लोकमंगल जैसे महान प्रयोजनों में ही प्रयुक्त करते है। जहाँ अलौकिक चमत्कारों का विज्ञापन और प्रदर्शन किया जा रहा है। वहाँ पूरा खतरा है। यह हर समझदार आदमी को जान लेना चाहिए।ऐसे प्रसंगों में ढोंग, चालाकी और हाथ की सफाई के अतिरिक्त और कुछ हो ही नहीं सकता। जो इनके फेर में पड़ेगा वह बुरी तरह पछताएगा। चमत्कारी लोगों के वेश में अक्सर ठग और जेबकट ही इस प्रकार के प्रदर्शन करते है।

बाजीगरी में अपेक्षाकृत ईमानदारी है। वे संत बाबाओं की तरह अनैतिक प्रतिपादन नहीं करते। वे अपनी चतुरता का ही दावा करते है और हाथ की सफाई की बात कहकर अपना गुजार करते है। यह मनोरंजक व्यवसाय है। जादूगर को चतुर भर कहा जा सकता है। उसे ठग कहने की गुंजाइश नहीं है। लेकिन जहाँ कोई अपनी अलौकिकता की बात करे समझना चाहिए कि यही ठगी आरंभ हो गई।

यद्यपि आमतौर से जादूगर अपने कार्यों में चतुरता भर होने की बात स्पष्ट कर देते है तो भी लोग उनके खेलों के पीछे कोई अलौकिकता या सिद्धि चमत्कार हो ने की बात सोचते रहते है। जब तक बात प्रकट नहीं होती तब तक ऐसी ही रहस्यवादी चर्चाएँ होती रहती है और लोग आश्चर्य अनुभव करते रहते है। पर कई बार कुछ गलती हो जाने से उनकी चतुरता का भेद खुल में उन्हें भारी संकट सहना पड़ता है। तब कहीं लोग असलियत समझते है और अनुभव करते है कि सिद्धियों की बात निरर्थक है। जहाँ सिद्धि है वहाँ प्रदर्शन पर कठोर प्रतिबंध रहता है। जहाँ बाजीगरी है वहाँ चालाकी भर है। बुद्धि भ्रम उत्पन्न कर देने का नाम ही जादू है जो इस तथ्य को समझते है वे चमत्कारों की बात से ही अपने मन को विरत कर लेते हैं। उन्हें विवेक की कसौटी पर असली और नकली सिद्धि में भेद करना कुछ भी कठिन प्रतीत नहीं होता।

जादू के चमत्कारों की पोल खोल देने वाली कुछ घटनाएँ इस प्रकार है

सन् १९१८ की बात है। उन दिनों चीनी जादूगर "चुँग लिंग शू" की सारे इंग्लैण्ड में धूम थी।वह ऐसे अद्भुत जादू के खेल दिखाता था कि एक ही प्रकार के खेलों को देखने के लिये दर्शक बार बार आने का लोभ संवरण न कर पाते थे। उसके खेल वस्तुतः ऐसे ही थे।

चुँग अपनी पत्नी को एक विशाल समुद्री सीप के मुँह में धकेल कर उसे बंद कर देता।खोलने पर वह गायब हो जाती और फिर दर्शकों की गैलरी में हँसती हुई प्रकट होती। इसी प्रकार व स्टेज पर एक बड़ी तोप मंगाता। उसमें अपनी पत्नी को ठूँस देता। नीचे बारूद ऊपर लोहे का गोला बीच में चुँग की पत्नी सुईसीन। तोप चलती, गोला दूर न जाकर स्टेज पर ही लौट आता और सुई अन्यत्र प्रकट होती।

बंदूक की गोली चलती सुई की छाती को चीरती हुई पार निकलती। सुई मर जाती। पीछे वह फिर जी उठती।

काँटा बंसी लेकर वह हवा में से जीवित मछलियाँ पकड़कर दिखाता। इसी तरह उसका एक खेल था। छाती पर चीनी की प्लेट रखना और उस पर बन्दूक से गोली रोकना।

२३ मार्च १९१८ की रात का वह प्लेट पर गोले रोकने का खेल दिखा रहा था कि गोलियाँ उसके सीने में पार निकल गई और वह स्टेज पर ही ढेर हो गया।

भूतों के करिश्मे दिखाने में पारंगत अमेरिकी जादूगर राॅबिनसन ऐसे करतब दिखाता था। जिनमें भूतों के अस्तित्व और क्रिया−कलाप को प्रत्यक्ष देखा जा सके पर वह अन्त में यह बता भी देता था कि यह विशुद्ध बाजीगरी है उसके खेलों का असली भूतों से तनिक भी तनिक भी संबंध नहीं है।

प्रिंस में जादूगर चिंग लिंग फू का प्रसिद्ध खेल था। शून्य आकाश में से पानी का भरा घड़ा उत्पन्न करना तथा पक्षियों को पकड़ना। वस्तुतः घड़ा उसकी लम्बाई में पीछे की ओर छिपा रहता था और उसी में पक्षी भी दबे रहते थे। उस दिन गलती से घड़ा फूट गया और भीगे हुये पक्षी बेतरह चिल्लाने लगे। जादूगर की खिल्ली उड़ गई। खेल कई दिन चलने का प्रोग्राम था, पर हॉल के मैनेजर ने उसे दूसरे ही दिन भगा दिया।

३. अक्टूबर १९६६ के धर्मयुग में श्री तिलकचन्द श्रीवास्तव का एक विवरण छपा है कि वे एक बार अपने गाँव गये तो वहाँ देखा कि दूरवर्ती पीपल के पेड़ पर से आग के अंगारे झर रहे हे और सारा गाँव उसे भूत प्रेतों की करतूत समझकर भय और आश्चर्य से उस दृश्य को देख रहा है। इस कुतूहल को गाँव में बाहर से आये हुये एक हट्टे अतिथि ने आश्चर्यजनक ढंग से भंग कर दिया। वे सज्जन इस तरह की घटनाओं के पीछे भूतविद्या के नाम पर उल्लू सीधा करने वाले ओझाओं की करतूत से परिचित थे सो टार्च हाथ से लेकर उस पेड़ के पास निर्भय होकर गये और ऊपर चढ़ गये और आग बरसाने वाले भूत को पकड़कर साथ ले आये।

कहा यह गया था कि डेढ़ फीट लम्बी तथा दो इंच चौड़ी कपड़े की एक पतली थैली बनाई गई थी उसमें एक तह बालू की एक तह लकड़ी के बुरादे की जमाकर भर दी गई थी। उसे मिट्टी के तेल में भिगोया गया था। थैली के निचले सिरे आग लगाकर उसे पेड़ की ऊँची डाली पर टाँग दिया गया था। मिट्टी के तेल में डूबा हुआ बुरादा जलता और नीचे गिरता। बालू की परत कुछ देर के लिये उस अग्निवर्षा को रोक देती और जैसे ही बालू नीचे गिर जाती फिर बुरादे की परत नीचे गिरने लगती और अग्निवर्षा दिखाई पड़ती।

लोगों ने इस करतूत को भली प्रकार देखा और समझा कि भूतविद्या के नाम पर लोगों को डराने और पैसा ऐंठने वाले लोग भोले लोगों को किस प्रकार भ्रम में डालकर व्यवसाय चलाते हैं। जादूगर डेविड डेवाँट की उन दिनों इंग्लैण्ड में बहुत ख्याति थी। रुपये बनाने वाला जादूगर के रूप में उसे बच्चा बच्चा जानता था। जब वह खेल दिखाता तो देखने वाले हैरत में रह जाते। हवा में हाथ मारता और रुपया पकड़ लेता। इस तरह वह डिब्बे भर भरकर रुपये बनाता। और देखने वालों को स्तब्ध कर देता।

एक दिन डेवाँट कही चले जा रहे थे। रास्ते में अकेले पाकर उन्हें हट्टे कट्टे आदमी ने पकड़ लिया और कहा आजकल मैं बहुत तंगी में हूँ। मेरी टोपी रुपयों से भर दीजिये। इतने से ही मेरा काम चल जायेगा।

डेवाँट ने उस टालने बहलाने की कोशिश की पर वह तो अड़ ही गया और मरने मारने पर उतारू हो गया। डेवाँट को लगा कि यदि रुपये न दिये गये तो जान ही चली जाएगी। जादूगर महोदय सिटपिटाए उनने यह कभी सोचा तक न था कि कला कभी उनके लिये इस प्रकार प्राणघातक भी बन सकती है कुछ सूझ न पड़ रहा था कि क्या किया जाय? उनकी जेब में सिर्फ छह शिलिंग थे। एक शिलिंग बनाकर देते और फिर उसे बातों में उलझा देते। इस प्रकार उसने पाँच शिलिंग बनाकर दे दिये। एक ही बचा था, वे इस ताक झाँक में थे कि उधर से कोई मुसाफिर आ निकले तो उसकी सहायता से अपने प्राण बचाए। छठा शिलिंग बनाकर देने को ही थे कि उधर से राहगीरों का एक जत्था आ गया। मालूम पड़ा कि वे घर से भागे हुये इसी विक्षिप्त को खोज रहे थे। वे उसे पकड़कर ले गये और इस प्रकार डेवाँट की जान जाते जाते बची।

फ्रांसीसी जादूगर वूय तिये दे कोलता ने कपड़े से ढ़ककर वस्तुएँ गायब करने का जादू चलाया था। उसी विधि को अंग्रेज जादूगर चार्ल्स कारट्राम ने विकसित किया। वे भरी सभा में कपड़े से ढ़ककर एक समूची महिला को गायब कर देते थे।

डेविड ने भी यही कला सीखी। एक दिन वे महिला उड़ाने का खेल दिखा चुके तो उनके घर एक व्यक्ति आया और कान के पास मुँह ले जाकर बोला आप मेरी बताई एक महिला को इस तरह उड़ा दीजिये कि वह फिर कभी प्रकट न हो। आपको मुँह माँगी फीस दूँगा। डेविड ने मुसकराते हुए कहा मेरा जादू उड़ाने भर में समर्थ है। उड़ाई हुई महिला को वापस न आने की गारन्टी नहीं कर सकता। तो भी आप बताइये आखिर वह महिला कौन है। उस व्यक्ति ने गंभीर स्वर में दीनता प्रकट करते हुये कहा वह है मेरी अक्खड़ सास जो मुझे आये दिन सताती है और तरह तरह की धमकी देती है।

जादूगर जहाँ अपनी चतुरता से लोगों को चकित करके वाहवाही लूटने तथा धन कमाने का लाभ प्राप्त करते हैं वहाँ कई बार उनकी यह चतुरता खतरनाक खेल दिखाते समय उनके लिये जीवन संकट भी उत्पन्न कर देती है। बंदूक से चली हुई गोली पकड़ने का खेल ऐसा ही है। जिसे दिखाने के उत्साह में कई बाजीगरों को जान से हाथ धोना पड़ा है।

सन् १७८५ में जादूगर फिलिप यस्टली की एक पुस्तक प्रकाशित हुई नेचुरल मैजिक इसमें उसने गोली चलने पर भी मृत्यु न होने के प्रयोग का वर्णन किया है। उन दिनों लोग शत्रुता होने पर एक दूसरे को द्वन्दयुद्ध के लिये ललकारते थे और जो चुनौती स्वीकार न करे उसे कायर मानते थे। किसी प्रसंग पर दो सैनिकों ने ऐसे ही द्वन्दयुद्ध की परस्पर चुनौती दे डाली। उसे रोका तो नहीं जा सका। पर उपर्युक्त जादूगर ने वह चतुरता बरती जिससे एक दूसरे पर गोली दाग देने पर भी किसी की मृत्यु नहीं हुई।हुआ यह था कि गोली भरते समय जादूगर उपस्थित था और उसने असली गोलियाँ की जगह नकली गोलियाँ बदल दी। वे ही बंदूकों में भरी गई और आवाज मात्र होकर बात समाप्त हो गई कोई मरा नहीं। तब से यह खेल दूसरे जादूगरों ने भी अपनाया और जहाँ बहुतों ने बहुत धन और यश कमाया वहाँ कइयों ने अपनी जान भी गँवाई।

राम स्वामी संप्रदाय के एक भारतीय जादूगर ने योगविद्या के नाम पर लंदन में इस खेल से धूम मचा दी। सन् १८१८ में वे डबलिन आयरलैण्ड में यह खेल दिखाने गये। दाँत से छूटी हुई बंदूक की गोली पकड़ने वाला जादू यहाँ असफल रहा और जादूगर की स्टेज पर ही मृत्यु हो गईं नकली गोली पकड़ने के स्थान पर असली गोली का उपयोग हो जाने से यह दुर्घटना घटी। पोलैंड के जादूगर देलिन्स्की ने यह खेल आर्चस्टाउट के युवराज के राजदरबार में दिखाने का आयोजन किया, इसमें सफलता प्राप्त करने पर उन्हें बहुत धन और सम्मान मिलने वाला था। जादूगर की पत्नी मदाम लिन्स्की को स्टेज पर खड़ा होना था। युवराज के छह अंगरक्षकों को एक साथ उन पर गोली चलानी थी। मदाम को यह छहों गोलियाँ हाथ से पकड़कर दिखानी थी। यहाँ भी नकली कारतूसों की जगह एक कारतूस असली ही चढ़ गया और उसने उस सुकोमल महिला की रंग मंच पर ही जान ले ली।

फ्रांसीसी जादूगर रवेयार उदयाँ को स्ट्रासबर्ग नगर के एक कलामंच पर अपना जादू दिखाना था। लड़का जिडमानि एक सेब दाँतों के बीच दबाकर रखता था। सामने से पिस्तौल की गोली चलती थी और वह सेब के बीच में ही अटकी रह जाती थी। धातुओं के चूरे से बनी गोली देखने में असली जैसी लगती थी, पर वह पुरा पिस्तौल दागते ही इधर उधर बिखर जाता था और सेब में पहले से ही ठूँसी हुई गोली निकाल कर दिखा दी जाती थी। पर यहाँ भी वही भूल हो गई और नकली असली का अंतर उस झमेले में विस्मृत हो गया। लड़का आर्तनाद के साथ गोली खाकर गिर पड़ा और एक दो बार छटपटाकर वहीं ढेर हो गया। अपने ही पुत्र की मृत्यु का कारण बनने में जादूगर को कितनी मार्मिक वेदना हुई होगी। इसका उल्लेख शब्दों में नहीं हो सकता।

कलकत्ता के जादूगर राजा बोस को एक दिन हरीसन रोड पर एक ऐसे ही चमत्कारी से पाला पड़ गया, जो साधु के वेश में रहता था और करिश्मे दिखाकर लोगों को ठगता था। साधु ने बोस को कोई खाता पीता नागरिक समझा सो उसे रोका और कहा बेटा लो सिगरेट पीते जाओ। यह कहकर उसने अपनी दाढ़ी पर हाथ फेरा और सिगरेट निकालकर दे दी। इसके बाद कुछ और भी बहुत-सी दूसरी चीजें दाढ़ी में से निकाल कर दी। जादूगर बोस कुछ देर तो चुप रहे।, पीछे उनने भी साधु के विभिन्न अंगों में से कितने ही पैसे निकाल कर उसे दे दिये और जितना सामान साधु ने दिया और उसका मूल्य चुका दिया। साधु झेंपता हुआ एक और चला गया।

सिद्धि और चमत्कारों के पीछे दौड़ने वालों की आँखें उपर्युक्त उदाहरणों से खुल जानी चाहिए। बुद्धिमत्ता का एक ही निष्कर्ष है कि मनुष्य की आंतरिक महानता ही उसकी चमत्कारिता है। जो ईश्वर के मार्ग पर चलता है उसके जैसा बनता है वह ईश्वर के मार्ग पर चलता है उसके जैसा बनता है वह ईश्वरोपम गरिमा का अधिकारी बनता है। यदि चमत्कारों की बात में कुछ तथ्य है तो बस इतना ही हैं।


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