यह नोबुल पुरस्कार एक महाक्रान्ति का शंखनाद है

November 1998

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आर्थिक जगत का वर्तमान युग संक्रमणकाल की प्रक्रिया से गुजर रहा है। वैश्विक स्तर पर अर्थतंत्र में बड़ा तीव्रगति से परिवर्तन हो रहा है। ऐसे में जब पूरी विश्व अर्थव्यवस्था पर पश्चिम का ही आधिपत्य हो एक एशियाई नागरिक उस पर भी भारतीय का अर्थशास्त्र का नोबुल पुरस्कार १९९८ वर्ष का पाना एक मायने रखता है। प्रोफेसर अमर्त्यसेन नोबुल पुरस्कार से सम्मानित होने वाले छठे भारतीय हैं एवं अर्थशास्त्र का यह पुरस्कार पाने वाले पहले एशियाई नागरिक है। रॉयल स्वीडिश अकादमी ऑफ साइंसेज के अनुसार कलकत्तावासी चौसठ वर्षीय प्रोफेसर सेन को कल्याणकारी अर्थशास्त्र में उनके योगदान के लिए यह पुरस्कार विगत अक्टूबर को दिया गया है एशियाई विकास बैंक की मानव दरिद्रता का सूचकाँक तैयार करने संबंधी योजना के मुख्य सूत्रधार प्रो. सेन को विश्व का सर्वोच्च सम्मान मलना उनके कार्य की शक्ति और गहराई को दर्शाता है प्रो. सेन ने सामाजिक चयन के सिद्धांत कल्याण और गरीबी की परिभाषा तथा अकाल के अध्ययन के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। उनने निर्धनता और भूख के आर्थिक तंत्र का इतनी गहराई से अध्ययन किया है। कि उन्हें इस क्षेत्र का विशेषज्ञ माना जाता है।

आज आर्थिक समानता का प्रबल पक्षधर एवं पोषण करने वाला साम्यवाद धुर्रियाँ बिखर जाने से मृतप्राय है आकर्षण का दूसरा तंत्र पूँजीवाद भी आर्थिक एकाधिकारवाद के रूप में सिमट गया है अब एक प्रकार से नव साम्राज्यवाद के प्रचार प्रसार का तंत्र चल पड़ा है उसने विश्व में खुली अर्थ व्यवस्था उदारीकरण भूमण्डलीकरण आदि की नयी चकाचौंध तो उत्पन्न की है परंतु उसी को जन्म देने वाले देश अपने में आर्थिक मंदी एवं बेरोजगारी जैसी समस्याओं से ग्रसित देखे जा रहे है। जापान, इंडोनेशिया, रूस, मलेशिया, कोरिया, ताईवान, सिंगापुर से लेकर ब्राजील तक सभी ओर मंदी व मुद्रा अवमूल्यन देखा जा सकता है ऐसे टूटते समय में सारे संसार की नजर भारतीय अर्थ - व्यवस्था पर लगी हुई है यदि यह भविष्यवाणी की जाती रही है कि भारत इक्कीसवीं सदी की एक महान आर्थिक महाशक्ति के रूप में उभरकर आ रहा है तो कुछ गलत नहीं है प्रायः सभी के इस मत को कि भारत ही समूचे विश्व को आधुनिक स्थायी एवं सुदृढ़ अर्थतंत्र प्रदान करेगा प्रो. अमर्त्यसेन को मिले नोबुल पुरस्कार से पुष्टि मिली है।

प्रसंग कुछ ऐसा है कि अर्थशास्त्र और अध्यात्मशास्त्र दोनों के नियम एक जैसे होने के कारण आज की युगसंधि की वेला में यह पुरस्कार और भी महत्वपूर्ण हो गया है। अध्यात्मशास्त्र के नियम भी अर्थशास्त्र की तरह ही है। उनका निष्कर्ष है कि (१) व्यक्तित्व प्रतिभा और सामर्थ्य को निखारा-निरंतर बढ़ाया जाए (२) संपत्ति और विभूतियों को सत्प्रयोजनों में लगाया जाए (३) ज्ञान और तप से जो लोग ऊँचे उठे उनकी उपलब्धियों होने दिया जाए। यदि अध्यात्म का शास्त्र द्वारा निर्धारित इन अनुशासनों का ध्यान न रखा जाए तो आत्मबल अवांछनीय-आसुरी दिशा में भी लग सकता है। रावण-हिरण्यकश्यप भस्मासुर जैसे तपस्वी धनसंपन्न के बली भी विनाशकारी विभीषिकाएँ उत्पन्न कर सकते है। इसीलिए मात्र साधना उपासना तपस्या आदि आत्मिक उपार्जनों पर ही ध्यान केंद्रित न कर ऋषिगणों ने यह भी देखा है कि इस भावनात्मक उत्पादन का प्रयोग-उपयोग कि प्रयोजन के लिए किया जा रहा है। इसीलिए भारतीय दर्शन इतना व्यावहारिक व हर देश-काल परिस्थिति के लिए उपादेय माना जाता रहा है।

परमपूज्य गुरुदेव ने फरवरी १९७३ की अखण्ड-ज्योति में एक लेख में भूमि श्रम, पूँजी, संगठन साहस इन पाँच साधनों को प्रधान उत्पादक उपकरण माना है। उनने लिखा है कि उनका उपयोग कहाँ किस तरह हो रहा है इस पर भी कड़ी दृष्टि रखी जानी चाहिए अन्यथा इनका दुरुपयोग विघातक उत्पादन भी खड़े कर सकता है और सारे विश्व-समुदाय को विपत्तियों की विभीषिकाओं को सहन करने के लिए विवश होना पड़ सकता है। पूज्यवर ने लिखा है कि विलासी प्रसाधनों पर नियंत्रण रख जो उपयोगी है-श्रम की वृत्ति के साथ संस्कारों का भी संवर्द्धन कर विश्वकल्याण को ध्यान में रख उत्पादित किया जाए-उसी को वरीयता मिलनी चाहिए।

यदि उपर्युक्त बातों पर ध्यान देकर हम आज की परिस्थितियों का मूल्यांकन करें व ग्लोबल अर्थव्यवस्था पर चिंतन करे तो प्रोफेसर अमर्त्यसेन के कुछ निष्कर्ष हमें हम सब पर पूरे राष्ट्र व विश्व पर लागू होते प्रतीत होंगे। अपनी पहली प्रेसवार्ता में डॉ. सेन ने कहा है कि अर्थ-व्यवस्था के वैश्वीकरण का बुनियादी आधार मानव-संसाधन का विकास है। इनमें सबसे महत्वपूर्ण है शिक्षा-साक्षरता विद्या−विस्तार एवं समग्र स्वास्थ्य-संवर्द्धन। किसी को भी संदेह नहीं होना चाहिए। कि ये दो मूलभूत आधार सशक्त हो तो किसी भी समाज की श्रमशीलता संदेह के घेरे में नहीं आ सकती।भारत ने निश्चित ही विगत पचास वर्षों में इन दो क्षेत्रों की उपेक्षा की है। इसी कारण आर्थिक उद्भव की समस्त परिस्थितियाँ होते हुए भी इस महान राष्ट्र को अकाल-भुखमरी-आर्थिक वैषम्य की स्थिति का सामान करना है। उदाहरण केरल का ही ले जहाँ पर शिक्षा स्वास्थ्य की सुविधाएँ आदर्शतम स्तर पर है वहाँ की प्रति व्यक्ति आय औसत भारतीय की आय से कही अधिक है। शिक्षा और स्वास्थ्य शासन पर निर्भर होंगे तो कुछ अधिक सुधार होने की अपेक्षा न कर एक व्यापक गैरसरकारी तंत्र सारे भारत व दक्षिण एशियाई स्तर पर सक्रिय होना चाहिए। इस संबंध में विख्यात चिंतकों का भी यही मत है कि गैरसरकारी स्तर पर ही ऐसे तंत्र को मजबूत किया जा सकता है एवं उदारमना व्यक्तियों के साधनों का नियोजन उसमें होने पर अपेक्षा की सकती है कि राष्ट्र श्रमदेवता के अनुदानों से आत्मावलम्बी हो आर्थिक प्रगति के चरमोत्कर्ष को पहुँच सकते है।

वस्तुतः समुचित श्रम की न्यूनाधिकता ही कायिक और मानसिक स्वास्थ्य संतुलन को नष्ट करने का प्रधान कारण है अध्यात्मशास्त्र,दर्शनशास्त्र एवं अर्थशास्त्र का यदि समुचित समन्वय किया जा तो एक निष्कर्ष निकलता है कि हर व्यक्ति को अपने कायिक और मानसिक क्षेत्र को उर्वर भूमि मानकर उसमें सद्भावों की सत्कर्मों की कृषि करना चाहिए। मात्र धन ही संपदा नहीं है। प्रतिभाशाली स्किल्ड व्यक्ति का उत्पादन ही वास्तविक दौलत है। प्रतिभा,समर्थता और गरिमा को बढ़ाने के लिए भी उसी लगन और तत्परता के साथ पुरुषार्थ किया जाना चाहिए जिस मनोयोग से कि धन कमाने के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहा जाता है। व्यक्ति परिवार और समाज देश को समुन्नत बनाने के लिए धन से भी बढ़कर प्रतिभाशाली और उच्च चरित्र वाले नागरिकों की आवश्यकता पड़ती है। इनका अकाल होगा तो अर्थ - आधिक्य होते हुए भी तरह - तरह के घोटाले होंगे व वे पूरे जमाने की फिजा बिगाड़ कर रख देंगे।

श्री अरविंद के अनुवाद के अनुसार भारत के पास एक अच्छा-खाया बैक हे तकनीकी दृष्टि से प्रशिक्षित कारीगर स्तर के व्यक्तियों का जिनकी संख्या करोड़ों में है। उनने १९४८ में यह अनुमान लगा लिया था कि इस सदी के अंत तक पहुँचते - पहुँचते प्रायः ३५ करोड़ ऐसे व्यक्ति भारत में होंगे, फिर इस भारत को गरीब क्यों होना चाहिए? उनका मत था कि चरित्रनिर्माण की प्रक्रिया साथ-साथ की भावना विकसित होते रहने पर भारतवर्ष यह सामर्थ्य रखता है कि वह सारे विश्व का आर्थिक नेतृत्व कर सके। क्या यह भविष्यवाणी जो पूज्यवर गुरुदेव की भी है मात्र लिखने-पढ़ने की बात रह जाएगी अथवा वास्तविकता में भी बदलेगी। हमें राष्ट्रीयता के मूल्यों के प्रति निष्ठा बढ़ाने को एक धर्म मानकर श्रमदेवता की प्रतिष्ठा करनी ही होगी तब ही यह स्वप्न आगामी दस वर्षों में साकार हो सकेगा कि भार सारे विश्व का जगद्गुरु पुनः बने, प्रायः हर क्षेत्र में नेतृत्व करें। इसमें निश्चित ही उन प्रवासी भारतीयों का अभूतपूर्व योगदान होगा। जो प्रायः साढ़े चार करोड़ की संख्या में विश्वभर में फैले है एवं कम-से-कम आरामतलबी-हरामखोरी के रोग से अभी कोसों दूर है। धन की ही भाँति प्रतिभा ज्ञान और परमार्थ का उत्पादन निरंतर किया जाना चाहिए ऐसा ऋषिगणों का मत रहा है। यह आत्मिक क्षेत्र की सक्रियता का प्रतीक है। जैसे-जैसे हम इक्कीसवीं सदी में प्रवेश कर रहें है-सारे विश्व में वयोवृद्धों की संख्या में वृद्धि उनका काम से जी चुराना एक प्रकार का सामाजिक अपराध है। कम-से-कम औरों को साक्षर-संस्कारवान बना सकते है सेवा-सुविधा-वैकल्पिक चिकित्सा के साधन जुटाने में मदद कर सकते है। जो सशक्त और समर्थ है वे रिटायरमेंट के नाम पर निष्क्रिय होकर न बैठे समाज के सर्वांगीण उत्थान हेतु आगे आएँ समाजगत उन्नति को ध्यान में रखते हुए अपना श्रम-पुरुषार्थ उसी तरह जारी रखें जिस तरह समझदार कृषक या व्यापारी अभावग्रस्त होने पर भी अधिक वृद्ध हो जाने पर भी आजीवन कार्य-संलग्न रहते है। भारत के सपूत प्रो. सेन, जिनका नामकरण कवीन्द्र गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा अमर्त्य किया गया था को मिला यह विश्व का सर्वोच्च सम्मान समस्त भारतवासियों के लिए एक सम्मान का विषय तो है ही एक चुनौती भी है। यह चुनौती है जड़ता से-तमस् से मुक्ति पाने की। शेष राष्ट्र तो विश्वयुद्ध में भारी हानि सहकर ध्वस्त होकर पुनः खड़े हो गए। हम स्वतंत्रताप्राप्ति के बाद अनेकानेक प्रतिभाओं के जन्मदाता होने के बावजूद-ऋषिचेतना के यहाँ की वायु के कण-कण में समाए होने के बावजूद क्यों नहीं उस प्रसाद से मुक्ति पा सके है जो हमें विकासशील से विकसित राष्ट्र की श्रेणी में खड़ा कर दिखा दे। आध्यात्मिक स्तर पर अगले पाँच-छह वर्षों में ये प्रयास तीव्र होंगे और द्रुतगति से बढ़ते चले जाएँगे हमें मात्र चेतना ही है और अपनी कमियों से मुक्ति पाकर आत्मगौरव को निखारना भर है। संभावनाएँ असीम है। देश के एक प्रमुख अर्थशास्त्री डॉ. अमित मित्रा एवं प्रसिद्ध अर्थशास्त्र डॉ. दीपक बत्रा का मत कि यदि अभी भी चेता जा सके तो भारत सन् २.१. तक सारे विश्व का आर्थिक नेतृत्व कर सकेगा। सारे विश्व की अर्थव्यवस्था का अगले दिनों पुनर्गठन होगा। ग्राम आधारित अर्थतंत्र विकसित होगा, जिसमें सही अर्थों में वैश्वीकरण गाँधीवादी ग्रामस्वाराज्य पर टिका पुनः क्षितिज पर उभरता दिखाई पड़ने लगेगा। यह समय दूर नहीं है। भविष्य का भारत धर्म-अध्यात्म ही नहीं वरन् आर्थिक क्षेत्र में भी एक महाशक्ति बन सारे विश्व का सिरमौर बनकर रहेगा। डॉ. अमर्त्यसेन को अनेकानेक साधुवाद कि उनने उस संभावना की जो नवयुग के अरुणोदय के रूप में भवितव्यता बनकर आ रही है-प्रथम किरण के रूप में राष्ट्र को संधिवेला में यह उपहार दिया।


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