अनगढ़ व चंचल मन को एकाग्र कैसे करें?

February 1997

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

मानव-जीवन के विकासक्रम में अंतर्मन की पवित्रता एवं वृत्तियों के परिशोधन-परिष्कार का महत्त्वपूर्ण स्थान है। अध्यात्म साधना में मन की गति को समझने की इतनी महत्ता, उपयोगिता नहीं, जितनी कि वृत्तियों की समझी जाती है। महर्षि पातंजलि ने योगदर्शन-सूत्र-5 में मन की पाँच वृत्तियों का प्रमुख रूप से उल्लेख किया है- (1) सम्यक् ज्ञान, (2) असम्यक् ज्ञान, (3) कल्पना-शक्ति, (4) निद्रा, (5) स्मृति। उनने मन और शरीर की अभिन्नता को दर्शाते हुए ‘साइकास्मा’ अर्थात् मनःशारीरिक शब्द की व्युत्पत्ति की है। शरीर के पास क्रिया के पाँच उपकरण पाँच इन्द्रियों के रूप में विद्यमान हैं, तो मन की वृत्तियाँ भी क्रिया के पाँच रूप हैं। मन के पास सम्यक् ज्ञान की अकूत-असीम सामर्थ्य है जो अंधकार से प्रकाश की ओर, अज्ञान से ज्ञान की ओर-अमृतत्व की ओर ले जा सकती हैं। असम्यक् ज्ञान का स्रोत भी मन के पास है, जिसे ‘विपर्यय’ के नाम से संबोधित किया गया है। वह जीवन को सघन अन्धकार में डुबोकर पतन-पराभव के गर्त में धकेलता और व्यक्ति को व्यर्थ-निरर्थक बनाकर छोड़ता है।

कल्पना-शक्ति मन की तीसरी वृत्ति है। यह सुन्दर भी हो सकती है और असुन्दर भी। व्यावहारिक और अव्यावहारिक भी। सृजनात्मक एवं ध्वंसात्मक भी। इसकी सही-सार्थक दिशाधारा सुनिश्चित होने पर साहित्य, संगीत और कला जैसी प्रतिभाएँ निखरती और लोकश्रद्धा का पात्र बना देती हैं। अनुपयुक्त एवं अनुपयोगी दिशा होने पर लोक-भर्त्सना का भाजन भी बनना पड़ता है, साथ ही साथ जीवन प्रवाह अधोगामी बन जाता है। पाश्चात्य मनोवेत्ता फ्रेडरिक नीत्से द्वारा की गयी ‘सुपरमैन’- अतिमानव की कल्पना ही तो थी, जिसने हिटलर जैसे क्रूर, हिंसावादी तानाशाह को जन्म दिया। बुद्ध, गाँधी व ईसा जैसे महामानव भी मन की कल्पना-शक्ति की उपज हैं, जो करुणा, सत्य और अहिंसा के पुजारी बनकर समूची मानव जाति के लिए सत्य और प्रेम का मार्ग प्रशस्त करने में जीवनपर्यन्त लगे रहे।

मन की चौथी वृत्ति निद्रा हैं। स्वास्थ्य की दृष्टि से नैसर्गिक निद्रा को ही अधिक उपयोगी माना गया है। यदि नींद के समय मन को सचेत रखा जा सके तो समाधि का स्वरूप बन सकता है। गीता में इसी तथ्य की पुष्टि इस प्रकार की गई है कि योगी सोता है तो भी सचेत रहता है। शरीर और मन तो निद्रा में डूब जाते हैं, पर उसे आत्मबोध बना रहता है। इस तरह की योगनिद्रा का अभ्यास करने से शुभ मनोवृत्ति बनती और अनेकानेक तरह की जीवनोपयोगी उपलब्धियाँ, क्षमताएँ हस्तगत होती चली जाती हैं। मन की अन्तिम वृत्ति स्मृति हैं इसकी दिशा सार्थक भी हो सकती है और निरर्थक भी। बुद्ध ने सम्यक्-स्मृति को ही अधिक उपयोगी बताया है, जो जीवन की सच्चाई में उतरती और जागरुकता का आभास निरन्तर कराती रहती है।

महर्षि पातंजलि ने चित्तवृत्तियों के परिष्कार-परिशोधन एवं निरोध के लिए योग को प्रमुखता देते हुए कहा है-’योगष्चित्तवृत्ति निरोधः’। अध्यात्म-वेत्ताओं ने भी मन को वशवर्ती बनाने एवं वृत्तियों को परिशोधित करने के लिए दो प्रमुख आधार-अवलम्बन बताये हैं। वे हैं-जप और ध्यान। इसी आधार पर उसका उदात्तीकरण सम्भव हो पाता है। मन का अर्थ ही है-मनन वाला। पाँडित्य पूर्ण विचार में हम एक विषय को अनेकानेक पहलुओं पर ध्यानाकर्षित किया करते हैं। ठीक उसी प्रकार जैसे कुशल जौहरी एक हीरे को विभिन्न दृष्टिकोणों से खरीदता है। इसमें भी वही समीपता का काम करता है, अन्तर मात्र इतना भर है कि अभ्यस्त एवं परिष्कृत मन प्रयोजन केन्द्रित उड़ाने भरता है और अनभ्यस्त-अनगढ़ मन निष्प्रयोजन। सधे निग्रहित मन और बिना सधे मन में जमीन-आसमान का अन्तर होता है। मन को दीक्षित करने के लिए शिक्षा की, आत्मनियंत्रण की, उच्च आदर्शों की, व्यस्त दिनचर्या की आवश्यकता पड़ती है। इन सबके द्वारा व्यक्ति के अन्तराल को कुरेदा जाता है।

कुछ मर्मस्पर्शी गीत अथवा प्रेरक वाक्य व्यक्ति को इतने प्रिया होते हैं कि वह इन्हें गुनगुनाता या विचारता रहता है। ऐसे वाकया या गीत अन्तराल को छू लेते हैं औ भावनाओं को उभारते, आन्दोलित करते हैं। भावनाएँ व्यक्ति के आचार-विचार को प्रभावित करती हैं-ज्ञात-अज्ञात दोनों ही स्थितियों में। यदि ऐसे भावोत्पादक अंशों का चयन व्यक्ति स्वतः कर ले और उ सका गुँथन उसी प्रकार करता जाय तो वे योजनाबद्ध होने के कारण स्थायी लाभ प्रदान करते हैं। ध्यान सहित जप की मनोवैज्ञानिक आधारशिला यही है। योगाभ्यास से जहाँ शारीरिक-मानसिक क्रियाकलाप व्यवस्थित होते हैं, वहीं जप और ध्यान से वृत्तियों के परिशोधन-परिष्कार में सहायता मिलती है।

इंग्लैण्ड के वैज्ञानिकों में टिण्डल का नाम विख्यात है। उनमें प्रतिभा तो थी, किन्तु व्यवस्था न थी। इस कमी की ओर किसी शुभचिन्तक ने अंगुलि-निर्देश किया। अब तो टिण्डल को एक ही रट थी-व्यवस्था-व्यवस्था-व्यवस्था। यह व्यवस्था उनके भीतर इतनी गहरी चुभी कि उन्हें एक प्रसिद्ध वैज्ञानिक बनाकर छोड़ी।

सामान्यतया जप में शब्द, वाक्य अथवा वाक्यांश की पुनरावृत्ति मन से करते रहना मन को एक दिशा में दौड़ाना है। मन तो बेलगाम घोड़े की तरह भागने वाला है, उसे एक ही क्षेत्र में स्वतः सीमित करना उसकी स्वाभाविक प्रवृत्ति के प्रतिकूल चलाना है। जप चंचलता पर अंकुश लगाता है। इधर-उधर जब मन भटकता है तो उसे बार-बार इच्छापूर्वक-संकल्पपूर्वक वापस लाया जाना जप प्रक्रिया में होता रहता है। यह प्रकारान्तर से अनगढ़ मन को वर्ष में करना ही कहा जाएगा। मन को वशवर्ती बनाने, वृत्तियों को परिशोधित-परिष्कृत बनाने वाले साधनों में जप एवं ध्यान की महत्ता सर्वोपरि है। इस तथ्य को यदि समझा जा सके तो अन्तर्निहित क्षमताओं, भौतिक सिद्धियों एवं आत्मिक विभूतियों से व्यक्तित्व को सम्पन्न बनाया जा सकता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118