सच्चा सत्संग

February 1997

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सत्संग का मतलब है- उत्कृष्ट विचारों और उदात्त भावनाओं का सान्निध्य । सान्निध्य और संपर्क के प्रभावों से प्रायः हम सभी का परिचय है। हालाँकि यह परिचय आस-पास के परिवेश के उथले और हल्के दायरे तक ही सीमित है। आग के पास बैठने पर गर्मी, बर्फ के समीप जाने पर सर्दी का अनुभव सभी को होता है। शहर, गाँव में आईफ्लू, हैजा, कालरा या प्लेग जैसी महामारी फैलने पर उसके संपर्क में आने वालों का बचना भी कठिन है। इस तरह के रोगियों के संपर्क में आने वाले एक के बाद दूसरा-तीसरा व्यक्ति चपेट में आता चला जाता है और यदि उचित रोकथाम न की गई तो यह सिलसिला बढ़ता ही रहता है। संग अच्छा हो या बुरा अपने अनुरूप प्रभाव छोड़े बगैर नहीं रहता।

जो वस्तुएँ अथवा स्थान बाहर से नजर में आते हैं, उनके गुण-दोषों की विवेचना करना सरल है। यदि वे दोषयुक्त है तो उनसे आसानी से बचा जा सकता है। महामारी के कीटाणुओं से इसलिए बच पाना मुश्किल होता है क्योंकि वे दिखाई नहीं देते। वातावरण में घुले इन कीटाणुओं ने जिस व्यक्ति में अपना घर बना लिया है, यदि उसे ठीक से न पहचाना गया तो खतरा हो जाता है। विचार और भावनाएँ कीटाणुओं से कहीं अधिक सूक्ष्म हैं और कहीं अधिक प्रभावी भी। इनका असली परिचय जानना, इनके हितकारी या अहितकारी स्वरूप को समझना थोड़ा मुश्किल काम है। क्योंकि कभी कभी हितकारी विचार और भावनाएँ दवा की तरह कड़वे भी होते हैं और हानिकारक विचारों का स्वाद हमारा घटिया आदतों को जायकेदार नजर आता है। लेकिन एक की परिणति हमारा उज्ज्वल एवं उत्कृष्ट जीवन होता है और दूसरे की परिणति हमारे जीवन का पतन के अन्धेरों में समा जाना है।

विचारशीलता और बुद्धिमत्ता का तकाजा, परिणाम को ध्यान में रखकर राह चुनना है और इसी कारण प्राचीनकाल से अब तक दुनिया के हर देश में, विश्व की हर जाति में, संसार के हर धर्म में सत्संग की महत्ता प्रतिपादित की जाती रही है। वैदिक धर्म में तो इसकी महत्ता का ही नहीं, अनिवार्यता का भी प्रतिपादन किया है। कथा-कीर्तन , यज्ञायोजन इसी के विभिन्न रूप रहे हैं। बात अकेले अपने देश की नहीं है। जहाँ कहीं भी, जिस किसी जगह इनसान ने बसेरा किया, इसका अस्तित्व किसी न किसी रूप में रहा है। पश्चिम की दुनिया में जब वहाँ इनसान कबीलों और कस्बों में रहते थे। तब उस समुदाय में कोई प्रबुद्ध व्यक्ति शामेन या मेडिसिन मैन कहा जाने वाला व्यक्ति होता था। वह उस समूह का सम्मानित व्यक्ति होता था, जिसके विचारों में सभी को आस्था होती थी। ये व्यक्ति प्रायः प्रतिदिन समूह में सत्संग किया करते थे। वास्तव में ये सत्संग ही उस समूह की संस्कृति का आधार होते थे।

प्राचीन यूनान में भी सत्संग का प्रचलन था। प्लेटो की पुस्तकों का आधार प्रायः महात्मा सुकरात के प्रवचन रहे हैं। एपीक्यूरस-डेमोक्रिटस, डायोजिजिस आदि सभी के दार्शनिक सत्र प्रायः उनके द्वारा सत्संग में दिए गए उद्बोधन मात्र हैं। ग्रीक सन्तों को फिलासफर्स कहा जाता था। जिसका अर्थ होता था सत्य के प्रेमी । सुकरात के सत्संग ने अनेकानेक लोगों के जीवन में ऐतिहासिक परिवर्तन लाकर एथेन्स में क्रान्ति ला दी थी। ईसामसीह के सत्संग में अनपढ़ मछुआरों, उच्चवर्ग द्वारा उपेक्षित गड़रियों को युगपुरुष , महामानव बना दिया। बाइबिल में इस तरह के परिवर्तन की अनेक कथाएँ पढ़ी जा सकती हैं। भगवान बुद्ध के सत्संग से बर्बर डाकू अंगुलिमाल का परिवर्तित होकर संवेदनशील भिक्षु बनने की कथा से सभी परिचित हैं। उन्होंने लगभग पचास सालों तक भ्रमण करते हुए स्थान-स्थान पर सत्संग आयोजित किये। बौद्ध ग्रन्थों का विशालकाय कलेवर महात्मा बुद्ध द्वारा इन सत्संगों में दिए गए उद्बोधनों से ही अस्तित्व में आया है।

संसार के सभी धर्म-सम्प्रदायों का आधार महापुरुषों द्वारा किया गया सत्संग ही रहा है। सभी सम्प्रदायों की नींव इसी के आधार पर रखी गयी । प्रत्येक धर्मग्रन्थों महान आत्माओं द्वारा दिए गए सत्संगों का संग्रह ही तो है। आप किसके साथ रहते है? प्राचीनकाल से ही इसके महत्व को समझा जाता रहा है। संस्कृत में एक कहावत है-

वरं पर्वन दुर्गेषु भ्रान्तं वनचरैः सह। न मूर्खजनः सर्म्पकः सुरेन्द्र भुवनेष्तपि॥

अर्थात् एक विचारहीन के साथ स्वर्ग में रहने की अपेक्षा जंगलों में वन प्राणियों के साथ घूमना कहीं अच्छा है।

स्वामी विवेकानन्द ने अपनी पुस्तक मन रहस्य और निग्रह में कहा है कि मन का स्वभाव और स्वरूप को जानें बिना आप उसका संयम नहीं कर सकते। अतः आवश्यक है कि सात्विक मनुष्यों की संगति की जाय और नीच मनुष्यों की संगति से बचा जाय।

फूल जिस तरह अपनी सुगन्धि चारों ओर बिखेरते हैं उसी तरह मनुष्य भी अपने विचारों और भावनाओं के अनुरूप विद्युतकण बाहर फेंकते रहते हैं। ये विद्युतकण जैसे होते हैं, वैसा असर दूसरों पर डालते हैं। उत्कृष्ट विचार और उदात्त भावनाओं वाले व्यक्ति चूँकि स्वयं पवित्र होते हैं, अतः उनके आस-पास का क्षेत्र भी पवित्र होने लगता है। इसी वजह से भागवतपुराण में महर्षि व्यास ने कहा है-आत्मा की शुद्धि साधु सन्तों के साथ से बहुत तीव्र गति से होती है।

अच्छा संग न केवल व्यक्ति के चेतन, बल्कि अचेतन में भी परिवर्तन लाता है। कई नए आयाम व क्षितिज ,खुलते हैं , नई-नई प्रेरणाएँ मिलती हैं, जिससे हमारा समग्र दृष्टिकोण ही बदल जाता है। हम जीवन को नए अर्थों व नई सम्भावनाओं के साथ देखने लगते हैं, धीरे धीरे हमारी अपनी सत्ता , अपने अस्तित्व के प्रति सोच-समझ बदलने लगती है। जाग्रत-विवेक जीवन को नई व स्वस्थ दिशा देता है।

सत्संग की स्वाभाविक परिणति विवेक का जागरण है। गोस्वामी जी महाराज न भी कहा है, बिनु सत्संग विवेक न होई। सामान्यतया हमारा मन कई छद्म विश्वासों, मान्यताओं और ग्रन्थियों का पिटारा है। हमारे विचार मन के इन्हीं वर्तुलों में चक्कर काटते रहते हैं। इसी कारण हमारी चेतना इनसे उपजी अनगिनत ग्रन्थियों में बँधी रहती है। इनसे मुक्त होने के लिए हमें किसी आध्यात्मिक चिकित्सक , मानवीय प्रकृति के ज्ञान में निष्णात सन्त , योगी के संपर्क की आवश्यकता होती है। ऐसे महनीय व्यक्तियों द्वारा किए गए वचन , संप्रेषित विचार व भावनाएँ हमारे मन को जड़ता , प्रमाद व कुवृत्तियों से मुक्त करने में सहायक होते हैं। इनकी संगति से जहाँ पुराने विषम संस्कार दूर होते हैं, वहीं सात्विक संस्कार बढ़ते जाते हैं। मन शुद्ध व अन्तःकरण शीतल हो जाता है।

गोस्वामी जी की-सठ सुधरहिं सत्संगति पाई, काक होहिं पिक बकउ मराला’-जैसी उक्तियों का मर्म अनुभवी पाठक जानते होंगे। घोर नास्तिक डाकू रत्नाकर द्वारा देवर्षि नारद का सत्संग पाने के परिणामों से कौन नहीं परिचित है? इस सत्संग ने ही उन्हें महान ऋषि, विख्यात योगी एवं रामायण जैसे महाकाव्य का रचनाकार बनाया। वे आदि कवि कहलाए। जघाई-मघाई जैसे कुख्यात दुर्जन महाप्रभु चैतन्य की संगति पाकर सन्तों की श्रेणी में जा बैठा । भारतीय इतिहास व संस्कृति में ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं।

परन्तु सत्संग के प्रभाव भारत तक ही तो सीमित नहीं। इसी शताब्दी के रशियन सन्त गुर्जिएफ की संगति के प्रभाव को आँसपेन्सिकी सहित अनेकों बुद्धिजीवियों ने स्वीकारा है। एक बार एक फ्रिज पीटर नामक एक सैनिक सेकेंड वर्ल्डवार के अन्त में बहुत परेशानी , कष्ट व मानसिक तनाव की स्थिति में गर्जिएफ के पास पहुँचा। जैसे ही वह उनके पास बैठा, पीटर ने महसूस किया जैसे कोई शक्ति का प्रवाह उसके अन्दर आना शुरू हो गया। थोड़ी देर में वह अपने को स्वस्थ एवं तंदुरुस्त महसूस करने लगा। आफसपेन्सिकी द्वारा जिज्ञासा करने पर गुर्जिएफ ने बताया सत्संग में विचार के साथ भाव भी प्रधान होते हैं। विचारों को पुस्तक अथवा कैसेट से भी पाया जा सकता है लेकिन भावों के संपर्क के लिए प्रत्यक्ष सान्निध्य चाहिए अथवा फिर दोनों का पूर्व परिचय अथवा भावनात्मक संपर्क हो , ताकि भावनाओं को संप्रेषित किया जा सके।

इस भाव शक्ति को गुर्जिएफ ने उच्चभाव ऊर्जा (हायर इमोशनल एनर्जी) का नाम दिया। उनके अनुसार सन्त तपस्वी , योगी व्यक्ति ऐसी ऊर्जा का बहुत बड़ा ट्राँसफार्मर होते हैं। उन्हें यह ऊर्जा परमेश्वर से मिलती है। इस शक्तिधारा से वे किसी को भी जोड़ देते हैं इन जुड़ने वाले व्यक्तियों को उच्चस्तरीय चेतना के लाभ मिलने लगते हैं। परमेश्वर से जुड़े इन महान व्यक्तियों की प्राणिक और मानसिक शक्ति बहुत सूक्ष्म स्तर पर कार्य करती है। ये सूक्ष्म प्रकम्पन हमारे मन को परिवर्तित कर देते हैं व उसे शक्तिसम्पन्न बनाने में समर्थ होते हैं। उनका तेजोवलय हमारे प्राणिक वलय को रूपांतरित कर देता है। उनकी मानसिक शक्ति हमें मनोबल सम्पन्न बना देती है। हम इन परिवर्तनों के प्रति समग्र हों या न हों वे सहज व अनिवार्य रूप से घटते हैं किन्तु इस परिवर्तन के लिए आवश्यक है कि हम ग्रहणशील हों।

जिस भी सन्त-महात्मा के सान्निध्य में हमें अच्छा लगता है, शान्ति महसूस होती है वही हमारे लिए अनुकूल है। दूसरे सन्त भी महान होते हैं किन्तु हमारी प्रकृति के अनुकूल न होने से हम उनके प्रति ग्रहणशील नहीं होते और उनके शुभ प्रभाव को ग्रहण नहीं कर पाते। सत्संग के प्रभाव से ग्रन्थियों के खुलने, मन के पवित्र व शक्तिसम्पन्न होने से हमारी अपनी चेतन सत्ता की गहराइयों से संपर्क स्थापित होता है और हम धीरे-धीरे अपनी आत्मसत्ता के करीब होते जाते हैं, ज्यादा से ज्यादा प्रकाशवान बनते जाते हैं।

सत्संग की शुरुआत होती है ईश्वर का सान्निध्य पा चुके, सत् के स्वरूप से एकात्म हो चुके व्यक्तियों के संपर्क- सान्निध्य से । लेकिन धीरे-धीरे स्थूल संपर्क की आवश्यकता समाप्त हो जाती है। एक दूसरे से दूर रहकर यहाँ तक कि शरीर न रहने पर भी सत्संग चलता रहता है। यह मानसिक एवं चेतनात्मक स्थिति पर बना रहता है। चूँकि सन्तों का मन अपनी आत्मा-परमात्मा से जुड़ा रहता है, अतः उनसे मानसिक सम्बन्ध हमें अपनी अन्तरात्मा से जुड़ने , एकात्म होने में सहयोग देता है। उससे संपर्क होते ही सब कुछ ज्योतिर्मय हो जाता है।

सत्संगति की महिमा से परिचित होने के बाद यह जिज्ञासा सहज है कि सत्संगति कैसे पाएँ? सुविख्यात अध्यात्मवेत्ता महर्षि रमण ने इसके लिए तीन उपाय सुझाए हैं। उनके अनुसार पहले दर्जे का सत्संग है-निर्विकल्प समाधि में सत्यस्वरूप परमात्मा का संग । लेकिन यह सत्संगति कुछ इने-गिने महायोगियों को ही सुलभ है। दूसरे दर्जे का सत्संग है- ऐसे महान व्यक्तियों का संग, जो ईश्वर से एकात्म है। यानि कि महर्षि रमण, स्वामी विवेकानन्द, महर्षि अरविन्द आदि योगीजनों का स्तर । परन्तु ऐसे योगियों की प्राप्ति भी कम दुर्लभ नहीं। सच्चे योगी प्रायः लोक संपर्क से दूर रहते हैं। उनके स्थान पर ठग-लुटेरे, ढोंगियों की ही भीड़ देखने को मिलती है। ऐसी दशा में तीसरे दर्जे का सत्संग है, ऐसे महान योगियों के वचनों का भावपूर्ण स्वाध्याय।

महापुरुषों के विचारों को यदि पूरी श्रद्धा, विश्वास एवं हृदय की गहराइयों से पढ़ा जाय, तो धीरे-धीरे हमारी चेतना उस महान व्यक्तित्व से जुड़ने लगती है। फिर तो वह महान व्यक्तित्व ही हमारी उँगली पकड़कर उस परमसत्ता तक पहुँचा देता है। ऐसे अनेकों उदाहरण मिलते हैं, जहाँ सत्य तथ्य बनकर प्रकट हुआ है। स्वामी विवेकानन्द ने अपनी देह छोड़ने के वर्षों बाद श्री अरविन्द को अतिमानस के रहस्य से अवगत कराया था । ईसामसीह के देह छोड़ने के लगभग ढाई सौ वर्ष बाद सेण्टपाल ने उनके विचारों को पूरी श्रद्धा से अपनाकर प्रभु यीशु का सान्निध्य पाया था।

प्रज्ञा अभियान, युग निर्माण आन्दोलन के संचालक का प्राण-प्रवाह अखण्ड ज्योति के पृष्ठों एवं युग साहित्य के नाम से जानी जाने वाली हजारों पुस्तकों में अनुभव किया जा सकता है। इसमें निहित विचारों को भावनाओं को गहराई से अपनाकर पाठक न केवल विचारों की बौद्धिक गहनता से परिचित हो सकते हैं, बल्कि उस ऋषि-चैतन्य से संपर्क स्थापित कर सकते हैं, जिसका यह विचार प्रवाह है। यह सान्निध्य ही सच्चा सत्संग होगा। सत्संग का यह स्वरूप वैयक्तिक स्तर पर तो रोज ही किया जाना चाहिए। लेकिन सामूहिक रूप से इसका साप्ताहिक क्रम बनाया जाय तो इसमें भागीदार होंगे वहाँ और उनमें युग स्तरीय चेतना के दिव्य अस्तित्व की अनुभूति किया जा सकेगा।


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