हम राजनीति में भाग क्यों नहीं लेते ? (2)

February 1997

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(जनवरी 97 में प्रकाशित लेख का उत्तरार्द्ध)

दिशा भूलने का, जनमानस में हजार वर्ष की कुसंस्कारी प्रक्रिया हटाने की उपेक्षा करने का जो परिणाम होना चाहिए था, वह सामने हैं इन परिस्थितियों में उत्कृष्ट राज नेतृत्व एवं आदर्श शासन तंत्र की आशा रखना व्यर्थ है। राजनेताओं का चुनाव होता है। चुनावों द्वारा प्रतिनिधि चुने जाते हैं और उनके चुनाव से सरकारें बनती है। जनता का जो स्तर है उसमें चुनाव जीतने के लिए पैसे को पानी की तरह बहाने की, जाति-पाति के नाम पर लोगों को बरगलाने की, व्यक्तिगत या स्थानीय लाभ दिलाने के सब्जबाग दिखाने की अनिवार्य आवश्यकता पड़ती है। जो यह सब तिकड़में भिड़ाने में समर्थ न हो, उसका चुनाव जीतना कठिन है। जनता का स्तर ही ऐसा है कि वह वोट का मूल्य और उसके दूरगामी परिणामों को अभी समझ ही नहीं पाई। झाँसे पट्टी और वास्तविकता का अन्तर करना उसे आया नहीं। इसलिए चुनाव में वे लोग जीत न सके जो रामराज्य स्थापित कर सकने में सचमुच समर्थ हो सकते थे। जनता ने अपने स्तर की सरकारें बनाईं, उन सरकारों के संचालकों ने वही किया जो जनता कर रही है या कर सकती है। जड़ के आधार पर पत्ते बनते हैं। धतूरे के बीज से उगे पौधे पर शहतूत कहाँ से लगें?

राज्य शासन के संचालन में जो व्यक्ति काम करते हैं, उनकी मनोभूमि एवं कार्यशैली ही शासन तंत्र के संचालन का स्वरूप निखारती हैं कानून कितने ही अच्छे क्यों न हो, नीतियाँ कितनी ही निर्दोष क्यों, न हो, योजनाएँ कितनी ही बढ़िया क्यों न हो, उनके संचालन का भार जिस मशीनरी पर है उसके पुर्जे यदि घटिया होंगे तो सारा गुड-गोबर होता रहेगा। सरकार कई योजनाएँ बनाती और चलाती है पर उसका स्वरूप जनता तक पहुँचते-पहुँचते विकृत हो जाता है। क्योंकि जिनके हाथ में उस प्रक्रिया के संचालन का भार है वे उतने शुद्ध नहीं होंगे जितने होने चाहिए। अपराधों को रोकने और अपराधियों को पकड़ने की जिम्मेदारी जिस मशीन पर हैं यदि वह ऊँचे स्तर की हो और भावनापूर्वक काम करे तो निस्सन्देह अपराधों का उन्मूलन हो सकता है। उपयोगी कार्यों के लिये ऋण या अनुदान बाँटने वाली मशीन यदि स्वच्छ हो तो वह धन खुर्द-बुर्द न होकर सचमुच सम्पत्ति और सुविधा बढ़ाने में समर्थ हो सकता है। शिक्षा देने वाली मशीन यदि भावनाओं से ओत-प्रोत हो तो छात्रों को ढालने में उन व्यक्तियों का जादू आश्चर्यजनक ढलाई का प्रतिफल प्रस्तुत कर सकता है। सरकारी कानूनों या योजनाओं में उतना दोष नहीं है जितना कि प्रस्तुत प्रक्रिया का संचालन करने वाली मशीनरी की आदर्शवादी भावनाओं का न्यूनतम रूप है।

प्रश्न उत्पन्न होता है कि यह शासन संचालन करने वाली मशीन कैसे उत्कृष्ट बने? तो फिर बात लौटकर वहीं आ गई। सरकारी कर्मचारी आकाश से नहीं उतरते। वे जनता के ही बालक होते हैं। उनने अपने घर-परिवार से सम्बद्ध समाज में जो कुछ देखा, सुना, समझा , अनुभव किया है उसी के आधार पर उनका मानसिक स्तर एवं चरित्र डाला है नौकरी पाते ही वे उन सारे संस्कारों को भुलाकर देवता बन जाये यह आशा करना व्यर्थ है। उसी प्रकार पैसे लेकर वोट बेचने वाली, जाति-पाँति का पक्ष-पात करने वाली , व्यक्तिगत या क्षेत्रीय लाभ के प्रलोभनों से आकर्षित होने वाली अदूरदर्शी जनता से यह आशा करना व्यर्थ है कि वह उन्हें चुनेगी, जो सुर्योय एवं आदर्शवादी तो है पर पैसा लुटाने या बहकाने वाले हसिकण्ड अपनाने में समर्थ नहीं। यह एक सच्चाई है कि प्रजातन्त्र में जनता के स्तर की ही साकार बनती हैं और उसी स्तर की सरकारी मशीन चलती है।

पार्टियों की सत्ता बदले, इससे कुछ बनता-बिगड़ता नहीं। पिछले तीन-चार वर्षों में काँग्रेस का एकाधिकार नहीं रहा। कई पार्टियों को अलग या सम्मिलित सरकारें बनीं । उनने भी कोई अलग आदर्श प्रस्तुत नहीं किया, जिस कीचड़ में काँग्रेस का छकड़ा घिसट रहा था उसी में वे खड़क्षड़िया भी धँस गई। सच्चाई यह है कि इन परिस्थितियों में कुछ हो नहीं सकता। प्रबुद्ध लोकमत जाग्रत हुए बिना-”आया राम गया राम” की हथफेरी रुक ही नहीं सकती। अल्पमत को बहुमत में और बहुमत को अल्पमत में बदलने के लिए प्रलोभन और आतंक का वर्तमान दौर अनन्त काल तक चलता रहेगा, यदि विधायकों को अपनी जनता के रोष एवं अवरोध का भय उत्पन्न न हुआ तो। इसी प्रकार जो भी सरकार सत्ता में आयेगी उसके मंत्री यदि अपने समर्थकों के, अपने च्ोत्र के लिये सरकारी मशीन से काम लेंगे तो उन पुर्जों से अपने स्वार्थ साधने की भी छूट देनी होगी। फिर प्रशासन शुद्ध कैसे होगा ?

मूल समस्या यही हैं किस पार्टी की सरकार बने, वह किन योजनाओं को कार्यान्वित करे, यह प्रश्न कम महत्व के है। अधिक महत्व के प्रश्न यह है कि व्यक्तियों को चुनने का जनस्तर कैसे बने ओर सरकारी मशीन में पुर्जे बनने वाले कर्मचारी घर से ही आदर्शवादी एवं भावना सम्पन्न बनकर वहाँ तक कैसे पहुँचे ? यह समस्या पर्दे के पीछे दीखती है पर है यही सबसे महत्वपूर्ण। इसे हल किये बिना तथाकथित प्रगति में खोखलापन ही बना रहेगा। प्रजातंत्र की जड़ जनता है। जहाँ जनता का स्तर ऊँचा होगा, वहीं प्रजातंत्र पसंद है तो उसकी सफलता की अनिवार्य शर्त जनता का भावनात्मक एवं चारित्रिक स्तर भी ऊँचा उठाना ही पड़ेगा अन्यथा शिकायतें करते रहने के अतिरिक्त और कुछ हाथ न लगेगा। स्वराज्य प्राप्ति के समय गाँधी जी इसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए चिन्तित थे और जोर दे रहे थे कि काँग्रेस शासन का अंग न बने वरन् लोकमानस शासन का अंग न बने वरन् लोकमानस का निर्माण करने के अधूरे किन्तु अतिमहत्वपूर्ण कार्य को सँभालने में ही एकचित होकर जुटी रहे पर क्या किसी ने उनकी सुनी ?

तथ्य तथ्य ही रहेगा। आवश्यकता, आवश्यकता ही रहेगी। एक उसे पूरा नहीं करता तो दूसरी को अपना कंधा लगाना चाहिए। यही रचनात्मक तरीका है। स्वतंत्रता संग्राम में 12 वर्ष तक निरंतर मोर्चे पर लड़ते रहने वाले सैनिक के रूप में अड़े रहने के उपरांत उस संग्राम की पूरक परिधियों के महत्व को हम समझते रहेंगे। हमारा विश्वास है कि बौद्धिक क्रान्ति, सामाजिक क्रान्ति एवं नैतिक क्रान्ति की त्रिवेणी बहाये बिना तीर्थराज न बनेगा और उसमें स्नान किये बिना हमारे पाप ताप न कटेगा। राजनैतिक स्वतंत्रता का लाभ तभी प्राप्त किया जा सकेगा, जब उसके साथ ही बौद्धिक सामाजिक एवं नैतिक क्षेत्रों के कालनेमि की तरह भ्रमे हुए पराधीनता पाश से मुक्त कराया जा सके। स्वतन्त्रता का एक चरण अभी प्राप्त हुआ हैं तीन मोर्चों पर लड़ा जाना अभी भी शेष है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए हम उसी प्रयत्न में निरन्तर प्रयत्नशील रहे है, दूसरे सैनिकों ने अपनी वर्दियाँ उतार दी और राज-मुकुट पहन लिये पर अपने लिए आजीवन उस चिंतन लक्ष्य की ओर चलते रहना ही धर्म बन गया है, जिसके ऊपर राष्ट्र की सर्वतोमुखी समर्थता निर्भर है। राष्ट्र की बात ही क्यों सोचें, विश्व कल्याण का मार्ग भी यही है। जनकल्याण का मार्ग भी यही है जनजागरण और लोक-मानस में उत्कृष्टता आदर्शवादिता का बीजांकुर बोया जाना वस्तुतः इस धरती पर स्वर्ग के अवतरण का अभिनव प्रयोग है। हम इसी दूरगामी परिणाम उत्पन्न करने वाली प्रक्रिया को हाथ में लेकर धर्म, साहस, निश्चय और प्रबल पुरुषार्थ के साथ आगे बढ़ रहे है एवं जहाँ तक हमारा प्रभाव क्षेत्र है उसे उसी दिशा में घसीटते लिए चल रहे हैं।

जैसा कि हम जानते हैं कि जन-मानस के अन्तरंग का स्पर्श करने और कोमल भावनाओं को संवेदनशील बनाने की क्षमता राजतंत्र में नहीं है। उसकी मूल प्रकृति और प्रवृत्ति दूसरी हैं कूटनीति राजनीति का पर्यायवाची बन गयी हैं उस स्तर जो कुछ होगा योग उसमें अकारण ही किसी कूटनीति या दुरभिसन्धि की गन्ध सूंघेंगे। इसलिये राजतंत्र के द्वारा इस प्रकार के प्रयत्न या प्रयोग जब कभी हुए है, उन्हें असफलता ही हाथ लगी हैं यह क्षेत्र वस्तुतः धर्म एवं दर्शन का है। बौद्धिक , सामाजिक एवं नैतिक क्रान्ति के लिए विचारणा का स्तर बहुत गहराई से बदलना होगा। उथला बदलाव कोई परिणाम उत्पन्न न करेगा। उस प्रयोजन की पूर्ति में केवल धर्मतंत्र ही समर्थ हो सकता है। राजनैतिक स्तर पर बालविवाह छुआछूत निवारण, दहेज उन्मूलन, व्यभिचार विरोधी कानून बने हुए है। पर उनको कितना मान मिला ओर कितना परिणाम निकला यह सबके सामने है। भौतिक सुधार करना राजतंत्र का क्षेत्र है। भावनात्मक सुधार के लिए प्रजातंत्र के वातावरण में केवल धर्मतंत्र ही समर्थ हो सकता है। प्रजातंत्र हटाकर अधिनायकवाद आना है तो आतंक के आधार पर विचार परिवर्तन भी सम्भव है पर वह प्रयोग महँगा है। व्यक्ति की विचार स्वतंत्रता अपह्नत हो जाने पर वह एक मशीन मात्र रह जाता है ओर साँस्कृतिक प्रगति की जिस महान प्रक्रिया ने मानव जाति को यहाँ तक पहुँचाया, उसका द्वार ही बन्द हो जाता है। हम प्रजातंत्र पसंद करते हैं। उसमें बहुत खूबियाँ और सम्भावनाएँ सन्निहित है। फिर प्रजातंत्र की परिधि में जनमानस का निर्माण करना धर्म एवं अध्यात्म का ही क्षेत्र रहता है

हम यही कर रहे हैं। धर्म और अध्यात्म को हमने मानव जाति की समग्र प्रगति के लिए नियोजित किया हैं पिछले दिनों उसमें जो अवाँछनीयताएँ घुस पड़ी थी उन्हें सुधारा है। धर्ममंच अब तक प्रतिगामियों का दुर्ग समझा जाता है। हमने उसे नई दिशा दी है और उसकी मूल प्रवृत्ति प्रगतिशीलता को उभारा है। धार्मिक प्रथा-परम्पराओं, रीति-रिवाजों व कर्मकांडों और मान्यताओं के बाह्य स्वरूप को यथावत रखते हुए उनकी दिशा और प्रवृत्ति में क्रांतिकारी परिवर्तन प्रस्तुत किया है। यही कारण है कि जिस क्षेत्र की ओर से नाक-भौं सिकोड़ी जाती थी और निराशाजनक माना जाता था अब उसे मानवीय प्रगति की निर्णायक भूमिका संपादन करने में समर्थ माना जाने लगा है। पिछले दिनों कुछ क्षुब्ध वर्ग तोड़-फोड़ में लग गये थे। वे दीर्घकालीन परम्पराओं को उखाड़कर आमूल-चूल परिवर्तन लाना चाहते थे। वे भूल जाते थे कि 80 प्रतिशत देहातों में बसे हुए और 77 फीसदी अशिक्षित देश के लिये धर्म परम्पराओं में क्रान्तिकारी तोड़-फोड़ सरल नहीं है। वे प्रयत्न भी लगभग असफल हो गये। अपनी सुधारात्मक प्रक्रिया आँधी-तूफान की तरह इसलिए सफल होती चली जा रही है कि हमने धर्म-प्रथाओं एवं कलेवरों के बाह्य स्वरूप में हेर-फेर किये बिना उनके मूल प्रयोजन में क्रान्तिकारी परिवर्तन कर दिया है।

इस प्रकार परोक्ष रीति से हम राजनीति में भाग ले रहे है और राजनैतिक शुद्धता एवं प्रखरता की पृष्ठभूमि तैयार कर हरे है। प्रत्यक्ष राजनीति में बहुत लोग घुसे पड़े है, वहाँ इतनी भीड़ है जिसे बढ़ाया नहीं घटाया जाना चाहिए। प्रजातंत्र की मूल-शक्ति जनता में निर्धारित रहती है। जनता अपना बौद्धिक सामाजिक एवं नैतिक स्तर ऊँचा उठाये बिना अपना बौद्धिक सामाजिक एवं नैतिक स्तर प्राप्त कर नहीं सकेगी।

हम राजनीति से अलग नहीं है, न उसका मूल्य कम रहे है, बात इतनी भर है कि हम जड़ में खाद, पानी लगाने वाले माली बने रहना चाहते हैं। फूल और फल का व्यापार दूसरे लोग करें इसमें न हमें कोई आपत्ति है और न ईर्ष्या । हम अनुभव करते हैं। कि उथले राजनीतिज्ञों की अपेक्षा हम अधिक हम अधिक ठोस अधिक महत्वपूर्ण राजनीति अपना रहे हैं और हमारे प्रयत्नों का फल किसी भी राजनैतिक पार्टी या उसकी सरकार को अपेक्षः सत्परिणाम उत्पन्न करेगा। गाँधी जी का जनमानस निर्माण का काम अधूरा रह गया, हमें शेष काम को पूरा करने वाले कुली, मजूर की तरह जुटे रहना मंजूर हैं दूसरे लोग उनके तप का प्रतिफल चखें-चखते रहे। अपने मुँह से उसके लिए लार टपकने वाली नहीं हैं हम स्वस्थ राजनीति के विकसित हो सकने की सम्भावना वाला भवन बनाने में नींव के पत्थर मात्र बनकर रहेंगे और जो भी हमारे प्रभाव-संपर्क में है, आगे आयेंगे, उन्हें इसी दिशा में प्रेरित आकर्षित करते रहेंगे।


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