क्यों इतराते हैं अपने बुद्धि-कौशल पर आप?

February 1997

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

मनुष्य अपने बुद्धि-कौशल पर गर्व करता हुआ कितना ही इतराता क्यों न फिरे, फिर भी विश्वभर में फैली हुई कितनी ही रहस्यात्मक रचनाएँ ऐसी हैं जिन्हें वह आज तक नहीं समझ पाया है। इस विलक्षणता की कहानी निर्जन स्थानों में, समुद्र तटों पर, बीहड़ वनों में मनुष्य या प्रकृति द्वारा खड़े किये गये नानाविधि महाकाय पाषाण खण्ड कह रहे हैं। इस कहानी को सुनने वाले पुरातत्ववेत्ताओं एवं वैज्ञानिकों का कहना है कि यह निओलिथिक कम्प्यूटर प्राचीनकाल के तथाकथित धर्म गुरुओं ने चन्द्र, सूर्य एवं नक्षत्रों की सूक्ष्म काल गणना हेतु विनिर्मित किये थे। इनके इष्टदेव सूर्य को बताया जाता है। यूरोप एवं मय सभ्यता के शिलाखंडों में काफी अनुरूपता है। इस तरह की अनेकानेक विचित्र, प्राकृतिक संरचनाओं का वर्णन ‘ग्रेट मिस्ट्रीज ऑफ द वर्ल्ड’ एवं ‘वर्ल्ड्स लास्ट मिस्टीरियस लैण्ड’ जैसे ग्रन्थों में विस्तारपूर्वक किया गया है।

विकासवादी वैज्ञानिकों की मान्यता के अनुसार, मनुष्य का उद्भव कुछ हजार वर्ष पूर्व का है। इंग्लैण्ड के आर्कबिषप उषर द्वारा की गयी बाइबिल की एक व्याख्या के अनुसार तो पृथ्वी पर मानव का सर्वप्रथम प्रादुर्भाव 23 अक्टूबर, 404 ईसा पूर्व हुआ था। अतः इस मान्यता के अनुसार तो इससे पूर्व मनुष्य के कोई अवशेष होने तक की कल्पना नहीं की जा सकती थी, लेकिन वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विकास के फलस्वरूप बहुत पहले से ही भूस्तरीय अनुसंधान करने पर मिलने वाले अवशेषों की छानबीन से यह तथ्य उजागर होने लगा था कि पृथ्वी पर, मानव जीवन का अस्तित्व हजारों वर्षों पूर्व से रहा है। परन्तु पश्चिमी देशों में पायी जाने वाली परम्परा और लिखित प्रमाण इस प्रकार के थे कि पूर्व के देशों मिश्र, मेसोपोटामिया आदि देशों की तरह वहाँ किसी प्रकार की उच्चमानव सभ्यता विकसित होने की कल्पना तक नहीं थी। इसलिए इन देशों में यह मान्यता बना ली गयी थी कि मानव संस्कृति का विकास ईजीप्षियन सागर से लेकर मालटा, स्पेन, पुर्तगाल, फ्राँस, ब्रिटेन और स्केन्डिनेवीआ में हुआ था, जिसे ‘फैलाव का सिद्धान्त’ नाम दिया गया। अतः फ्रांस और ब्रिटेन मेँ पाये जाने वाले महाकाय पाषाण-’मेगालिथिक स्टोन’ मिश्र आदि की संस्कृतियों से कही घटिया, कोई जंगली आदिम जाति की संस्कृति का प्रतीक मान लेना स्वाभाविक था।

लेकिन ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के वरिष्ठ प्राध्यापक अलेक्जेन्डर थोम की खोजों ने तथाकथित विकासवादी वैज्ञानिकों को अपने दृष्टिकोण बदलने के लिए विवश कर दिया। हुआ यों कि सन् 1934 के ग्रीष्म ऋतु में एक दिन वे स्काटलैंड के पश्चिमी तट पर नौका विहार करने निकले थे। चाँदनी रात का समय था। नाव को लंगर डालने के लिए किसी आधार की तलाश कर रहे थे कि अचानक ‘कलानिस’ नामक मेगालिथ पत्थर समूहों पर उनकी नजर पड़ी ।इन रहस्यमय शिलाखंडों के मध्य खड़े होने पर उत्तरी ध्रुव के साथ ही तारामण्डल का स्पष्ट नजारा सामने आया। उनके मन में बिजली सी कौंध गयी मानव के विकास सम्बन्धी सभी पूर्वाग्रह मानो तिरोहित हा गये। इस सम्बन्ध में आम मान्यता को परिवर्तित करने हेतु प्रमाण जुटाने के लिए कष्टसाध्य एवं समय-साध्य कार्य करने का संकल्प मन में उदित हुआ। लगातार तीस वर्ष तक वह इस कार्य में जुटे रहे। उनकी पुस्तक ‘मेगालिथिक साइट्स इन ब्रिटेन’ ने यूरोप के प्रागैतिहासिक काल की इन धारणाओं को आमूलचूल परिवर्तित कर दिया है कि यहाँ के रोमन साम्राज्य से पूर्व के निवासी मध्यपूर्व के निवासियों की तुलना में पिछड़े हुए जंगली स्तर के थे। इस तरह की अनेक मान्यताओं को उपलब्ध प्रमाणों ने उलट कर रख दिया है। उनका कहना है कि विश्व में बिखरे ऐसे अनेकों प्रमाण है जो दर्शाते हैं कि मानव की उत्पत्ति लाखों वर्ष पूर्व इस धरती पर हुई है और वे अपेक्षाकृत कहीं अधिक बुद्धिमान थे।

प्राध्यापक थोम पेशे से एक इंजीनियर हैं। उनका मत है कि विशाल पाषाण खंड-मेगालिथ निर्माता निश्चित ही अति कुशल इंजीनियर रहे होंगे। युक्लिड-जिसे ज्यामिती का पिता माना जाता है, उससे भी हजारों वर्ष पूर्व इन शिलाखंड निर्माताओं ने ऐसे-ऐसे अमिट अवशेष छोड़े हैं जिन्हें देखकर यदि युक्डि होते तो दाँतों तले अँगुली दबा लेते। उदाहरण स्वरूप ‘एवबरी’ नामक स्थान में महाकाय पाषाण खण्डों को स्थापित करने में जिस कुशलता का परिचय मिलता है, उसे देखकर यह जाना जा सकता है कि यह कार्य किन्हीं प्रतिभावानों का है। ऐसे निर्माण अति कुशल और सूक्ष्म साधनों से युक्त प्रतिभावान व्यक्ति ही कर सकते हैं। प्राध्यापक थोम के अनुसार ये निर्माण ग्रह-नक्षत्रों के अध्ययन के लिए एक यंत्र की तरह थे जिनसे ज्यामितीय, गणितीय शिक्षण की पराकाष्ठा परिलक्षित होती है। इसकी विस्तृत जानकारी उनने अपनी दूसरी कृति-’मेगालिथिक ल्युनर आपरेशन्स’ में दी है। इन पुस्तकों में दी गयी जानकारियाँ इतनी सूक्ष्मतम, प्रामाणिक व अकाट्य हैं जिनने आधुनिक विकासवादियों को नये सिरे से सोचने के लिए विवश कर दिया है। इन खोजों की सच्चाई जाने के लिए कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी के मूर्धन्य वैज्ञानिक डेविड केण्डल को नियुक्त किया गया, जिन्होंने कम्प्यूटर के माध्यम से उक्त पाषाण खण्डों की जाँच-पड़ताल की और निष्कर्ष प्रस्तुत किया कि प्राध्यापक थोम की जानकारी शत-प्रतिशत सही है।

आज के प्रगतिशील मनुष्य ने चन्द्रमा की सैर भले ही कर ली हो या अन्यान्य ग्रह-नक्षत्रों की ओर अपने कदम बढ़ा लिये हों, परन्तु वह उक्त निर्माताओं से अपने को श्रेष्ठ नहीं कह सकता। यद्यपि न निर्माणों के समय का आकलन नहीं हो सका है कि वे किस काल में बने और उनका उद्देश्य क्या था, फिर भी समय-समय पर इस सम्बन्ध में प्रयास होते रहे हैं। चार्ल्स द्वितीय के शासनकाल में जॉन ओबेरी नामक वैज्ञानिक को इस कार्य के लिये नियुक्त किया गया था, जिसने सर्वप्रथम इस उत्कृष्ट इंजीनियरिंग के लिए पूर्वजों की सराहना की थी। उनने इस दिशा में जो कार्य किया था, उसका अनुसंधानपूर्ण विवरण डॉ0 विलियम सकले ने अपनी पुस्तक-’स्टोनहेन्ज ए टेम्पल रिस्टोर्ड टू द ब्रिटिश ड्रयूईड्स’ में प्रकाशित किया है। उसके अनुसार इन पाषाण खण्डों का निर्माण ईसा से 460 वर्ष पूर्व हो सकता है। किन्तु शिकागो विश्वविद्यालय, अमेरिका के रसायन-शास्त्री बिलियर्ड लिबी ने रेडियो-एक्टिव कार्बन-14 का उपयोग करके-कार्बन डेटिंग द्वारा मापन करके यह बताया है कि इन विशाल पाषाणों का निर्माण ईसा से चार हजार से साढ़े चार हजार वर्ष पूर्व हुआ है। ये मिश्र में पाये जाने वाले पिरामिडों से भी पुराने हैं।

मेगालिथिक पाषाण खण्डों का निर्माण काल ज्ञात हो जाने पर भी यह प्रश्न अनुत्तरित ही रह जाता है कि किन उद्देश्यों की पूर्ति हेतु इन विशालकाय पाषाण खण्डों का इतनी कुशलता के साथ निर्माण किया गया था और अभी इनका क्या उपयोग हो सकता है? इनके निर्माण में कितना अधिक समय, श्रम और साधन लगा होगा? निर्माताओं ने इस कार्य को इतना महत्व क्यों दिया था? इन तथ्यों पर प्रकाश डालते हुए प्रोफेसर एटकिन्सन, जो अलेक्जेन्डर थोम के सहायक अनुसंधानकर्ता है, का कहना है कि एवबरनी खदान जो स्टोनहेन्ज से पन्द्रह मील की दूरी पर है, 81 मेगालीथ पहुँचाने में साढ़े पाँच साल लगे होंगे और इस काम में लगातार 1500 व्यक्तियों ने भाग लिया होगा। उसी समय में बनी सिलबरी हील के निर्माण में एक करोड़ 80 लाख मानव घण्टों की खपत हुई होगी। ये मेगालीथ कितने विशाल थे, इसका अन्दाज फ्रांस में ब्रिटनी में पाये जाने वाले ‘द ग्राण्ड मनेहीर व्रिस’ से लगाया जा सकता है। इन शिलाखंडों का वजन 380 टन है, जो 60 फीट तक ऊँचे हैं। दक्षिण ब्रिटनी के समुद्री तट पर 3000 से अधिक संख्या में करीब साढ़े पच्चीस फीट ऊँचे, 6 फीट चौड़े और सवा दो फीट मोटे शिलाखंड हैं, जो योर्कषायर में ब्रिडलीन्गटन के पास नोर्मन चर्च में खड़े हैं। कहा जाता है कि वे धरती के अन्दर भी बहुत गहराई में धँसे हुए हैं। माना जाता है कि यह सूर्योपासकों के उपासना केन्द्र रहे होंगे, जहाँ से वे ब्रह्माण्डीय ऊर्जा से सीधे संपर्क साधते रहे होंगे।

सुप्रसिद्ध विद्वान विलियम स्टेकली के अनुसार ड्रयूईड धर्मगुरु सूर्योपासक थे और इन निर्माणों द्वारा ग्रह-नक्षत्रों की सही जानकारी प्राप्त कर अपने उपासना कार्य में वे निरत रहते थे। उत्खनन कार्य में इन्हीं की समाधियाँ पायी गयी हैं, जिसमें ईसाइयों की मान्यताओं से विपरीत उनके शवों के पैर दक्षिण की ओर पाये गये हैं। अन्यत्र अग्निदाह संस्कार करने के प्रमाण भी उपलब्ध हुए हैं। कई सदियों से ड्रयूईड धर्मावलम्बी प्रतिवर्ष उत्तरायण और दक्षिणायन के दो सौर पर्व मनाते आये हैं। प्रतिवर्ष हजारों ड्रयूईड यात्री इन पर्वों पर स्टोन हेन्ज आदि स्थानों में एकत्र होते हैं और साइकिक हीलिंग जैसे चमत्कारिक उपचार करते देखे जाते हैं। अब तो वैज्ञानिक अनुसंधानों ने भी इस तथ्य की पुष्टि कर दी है कि इन स्थानों से एक विशेष प्रकार की ऊर्जा-’अर्थ एनर्जी’ निस्सृत होती है। इसकी जानकारी प्राप्त करने के लिए ‘डाउजर’-सगुनक दण्डों का प्रयोग किया जाता है। इस ऊर्जा मार्ग को ‘लेज’ नाम दिया गया है।

‘लेज हर्न्टस’ नामक पत्रिका में इस संदर्भ में विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला गया है। अनुसंधानकर्ता वैज्ञानिकों ने व्यापक परीक्षण करने पर पाया है कि इन स्थानों से एक प्रकार की अल्ट्रासोनिक-अश्रव्य ध्वनि तरंगें निकलती हैं और वह भी सूर्योदय से करीब आधा घण्टे पूर्व से प्रारम्भ होकर सूर्योदय के डेढ़ घण्टे बाद तक। कुल मिलाकर दो घण्टे तक ये अश्रव्य तरंगें निकलती रहती हैं, जिन्हें डिटेक्टर के माध्यम से पकड़ा जा सकता है। इतना ही नहीं, एक आश्चर्यजनक तथ्य यह भी है कि उतने समय तक आकाश में स्काई लार्क नामक पक्षियों का समूह भी उस स्थान पर मँडराता रहता है। वैज्ञानिक, इंजीनियर, सगुनक, तत्वदर्शी, मनोचिकित्सक, ज्योतिर्विद्, पुरातत्ववेत्ता आदि सभी आने-अपने ढंग से इन रहस्यों को जानने में अनुसंधानरत हैं। सम्भव है कुछ तथ्यों को रहस्योद्घाटन करने में वे सफल भी हो जाएँ, पर इतने भर से पूर्वजों की तुलना में अपने को अधिक बुद्धिमान नहीं मान बैठना चाहिए।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118