जीवनपर्यंत मानव जीता है चारों युगों में

February 1997

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युगों की दृष्टि से काल को चार भागों में बाँटा गया है-सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग। यों मनुष्य की भी शैशव, कैशोर्य, यौवन और बुढ़ापा-यह चार अवस्थाएँ हैं, पर यह जीवन का सुविधा और अवस्थानुसार विभाजन है, विशिष्टतानुसार नहीं।

वैशिष्ट्य के हिसाब से जिन्दगी का यदि वर्गीकरण करना हो, तो उसका तरीका कुछ भिन्न होना चाहिए। शैशवावस्था, किशोरावस्था, यौवन और वृद्धावस्था-यह चार तो आम स्थितियाँ हैं, जो हर एक के जीवन में आती है। अतः इन्हें साधारण ही कहना पड़ेगा। व्यक्तित्व की स्थिति एवं दशा का परिचय इनसे नहीं मिलता। उसके लिए यह देखना पड़ेगा कि वह कितना सक्रिय अथवा निष्क्रिय भूमिका में पड़ा हुआ है। इस आधार पर ही उसका वास्तविक विभाजन सम्भव है। ऐसा इसलिए भी आवश्यक महसूस होता है, क्योंकि कई बार युवक और अधेड़ जैसे लगने वाले लोग भी किशोरों जैसी समझ रखते और गतिविधियाँ अपनाते देखे जाते हैं ऐसे में उन्हें परिपक्व कहना एकदम निर्भ्रान्त नहीं होगा। उनकी अवस्था एक स्थिति का बोध कराती है, जबकि क्रियाकलाप सर्वथा दूसरी का। इससे भ्रम पैदा होना स्वाभाविक हैं। इसीलिए ऋषियों ने व्यक्तित्व का एक दूसरा विभाजन भी आवश्यक समझा। यही सही अर्थों में जीवन का यथार्थ वर्गीकरण है-एक ऐसा वर्गीकरण, जिसके आधार पर यह अनुमान लगाया जा सकना सहज सम्भव हो सके कि मनुष्य चेतना के किस चरण में अवस्थान कर रहा हैं। इस आधार पर समग्र व्यक्तित्व को युगों जैसे ही चार नाम देते हुए चार खण्डों में विभाजित कर दिया गया।

कलियुग व्यक्तित्व का वह हिस्सा है, जिसमें आदमी निद्राग्रस्त जैसी मनोदशा में पड़ा रहता है। वह वासना, तृष्णा, अहंता के दलदल में इस बुरी तरह धँसा होता है कि स्वार्थसाधन के अतिरिक्त उसे कुछ सूझता नहीं। नीति-अनीति का विचार किये बिना जैसे और जितना बन पड़ें, उसे बटोर लेना एवं अपने तथा अपनों का कोठार भरना-यही उसका एकमात्र लक्ष्य होता है। जहाँ प्रत्येक व्यक्ति का चिन्तन इसी परिधि में घूमे और वृत्ति कूपमण्डूकों जैसी बनी रहें, वहाँ श्रेष्ठ आचार एवं उत्तम विचार की अपेक्षा कैसे की जा सकती है? वहाँ सुव्यवस्था एवं स्वच्छ प्रशासन कैसे आ सकते हैं? वहाँ शान्ति और प्रगति की आशा करना दुराशा मात्र होगी। दार्शनिकों ने इसी को ‘तमसाच्छन्न’ स्थिति कहा है और ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ जैसे सूत्रों द्वारा इससे उबारने व ऊँचा उठाने की प्रार्थना की है। अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाँजन शलाकया, चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः। यह श्लोक भी उपरोक्त भाव को ही संजोये हुए सद्गुरु से अज्ञान के अन्धकार से पार लगाने की कामना करता है। यह अज्ञान वस्तुतः है क्या? साधारण भाषा में कहें, तो इसे लोभ और मोह कहना पड़ेगा। हथकड़ी और बेड़ी भी कह सकते हैं। यह दो ऐसे पाश है, जिनके कारण मनुष्य क्षुद्रता के दायरे से बाहर नहीं निकल पाता। एक उसे स्वार्थी बनाता है, तो दूसरा संकीर्ण। इन दोनों का युग्म ही किसी व्यक्ति को पतनोन्मुख बनाने के लिए पर्याप्त है। चेतना की दृष्टि से पतित होना और निद्राग्रस्त बने रहना लगभग एक जैसी अवस्थाएँ हैं, कारण कि दोनों ही उसकी निम्न और अधोमुखी गतियाँ हैं सोये और बेहोश व्यक्ति में कोई विशेष अन्तर नहीं। इस दशा में वह कहाँ, कैसे, किस प्रकार पड़ा हुआ है? इसका उसे तनिक भी भान नहीं होता। नीच लोगों के सिर जब क्षुद्रता सवार होती है, तो वे कितनी और कैसी हीन हरकतें कर बैठते हैं, इसका ही होश उन्हें कहाँ रहता? अतः दोनों की स्थितियाँ करीब-करीब एक जैसी ही कहनी पड़ेंगी। इसीलिए ऐतरेय ब्राह्मण के ऋषि कहते है-’कलिः शयानो भवति’ अर्थात् निद्रालु अथवा हेय मनोदशा में पड़ा रहना ‘कलिकाल’ है। इसे व्यक्तित्व की कलि दशा अथवा वर्तमान सामाजिक अवस्था भी कह सकते हैं।

जाग पड़ना-यह द्वापर के समान है। खुमारी टूटना, मूर्च्छा हटना व्यक्तिगत जीवन में अत्यन्त महत्व के माने गये हैं। इनके रहते करते-धरते कहाँ कुछ बन पड़ता है? महत्वपूर्ण निर्णय पूर्ण चैतन्यता की स्थिति में लिये जाते हैं। मूल्य और महत्व इसी का है, अन्यथा मद्यपी शराब पीकर न जाने क्या-क्या बकते-झकते रहते हैं, उनकी कौन सुनता है। कभी वे स्वयं को मंत्री, कभी पुलिस, कभी राजा, कभी चोर बताते, कभी किसी को गाली देते, तो कभी किसी का उपहास उड़ाते हैं। समझदार व्यक्ति उन्हें एक कान से सुनते और दूसरे से निकाल देते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि जो कुछ कहा या किया जा रहा है, वह मूर्च्छना की अर्द्धचेतनावस्था में हो रहा है, इसलिए महत्वहीन है। इसी कारण सचेत करते हुए ऋषि कहते हैं कि जागे बिना अब काम चलने वाला नहीं, जागरण ही सब की नियति है। मूर्च्छा तो मौत के समतुल्य है।

यहाँ जागरण का अर्थ उस सद् चिन्तन से लिया जाना चाहिए, जिसके न बन पड़ने पर उदात्त व्यक्तित्व की न तो नींव रखी जा सकती है, न लोकमंगल जैसे कार्य सम्पन्न किये जा सकते हैं। इसके लिए सर्वप्रथम उस दिशा में सोचना-विचारना पड़ता है, उसके लाभ-हानि का लेखा-जोखा लेना और उस क्षेत्र के अनुभवियों से परामर्श करना पड़ता है, तब कहीं जाकर इस बात का पक्का निर्णय हो पाता है कि यह घाटे का सौदा नहीं। यही वह अवस्था है, जब मन बार-बार उस ओर आकर्षित होता और उससे मिलने वाली उपलब्धियों की कल्पना कर गदगद होता रहता है। फिर लोभ-मोह और वासना-तृष्णा की हेय लिप्सा मनःस्थिति को अपने खिंचवा में बाँधे रख पाने में सफल नहीं हो पाती। सच्चे अर्थों में यही जाग्रति हैं। इसे ही ‘द्वापर’ कहा गया है। इसी भाव को स्वयं में सँजोये यह आप्त वचन है-संजिहानस्तु द्वापरः’-निद्रा से उठ बैठना द्वापर है।

व्यक्ति का जब चेतनात्मक विकास आरम्भ होता है, तो एक के बाद एक कई सोपान पार करने पड़ते हैं, तब कहीं जाकर अन्त में जीवन के चरम लक्ष्य पर अवस्थिति हो पाती है। यह अवस्थिति सरलता से नहीं मिल जाती। इसके लिए कठिन संघर्ष करना और परिस्थितियों से लोहा लेना पड़ता है। इतना सब क्रियान्वित कर सकने जितनी सामर्थ्य होने पर ही बात कुछ बनती और सफलता हस्तगत होती है। इसीलिए इस राह पर चल पड़ने के लिए कमर कस लेने वर फिर पीछे मुड़कर नहीं देखना चाहिए, न बढ़े कदम वापस खींचने चाहिए, कारण कि इस मार्ग का एक-एक कदम भारी अवरोध के समान है, उसे पार करना हिमालय जैसे दुर्लघ्य को लाँघने जैसा है। उस दिशा में अग्रसर एक भी पग गर्व ही नहीं, गौरव भी प्रदान करता है। अतएव ऋषि-निर्देश है कि निद्राग्रस्त यदि जाग पड़ा हो, तो अगले चरण में उसे उठ खड़े होने की तैयारी करनी चाहिए। इससे कम में उस प्रगति को जारी नहीं रखा जा सकेगा, जो मोहनिद्रा त्याग कर आरम्भ की गई थी। इसे सम्पादित करना ही विकास की तीसरी अवस्था-त्रेता है।

उत्तिष्ठंस्त्रेता भवति’। शास्त्र-उद्घोष है कि उठ खड़े होना ही त्रेत हैं। खड़े होने से तात्पर्य यहाँ सत्कार्यों के लिए योजनाएँ बनाना, प्रारूप तैयार करना तथा औरों को इस काम के लिए सहमत करना और उनका सहयोग प्राप्त करना है। इसके बाद मिलजुल कर यह सुनिश्चित करना पड़ता है कि किस प्रकार इस प्रक्रिया को गति दी जा सके और सफलता के मार्ग में आने वाली बाधाओं को निरस्त किया जा सके, क्योंकि यही वह महत्वपूर्ण पड़ाव है, जिसमें मनोबल गिरने, असहयोग मिलने, अवरोध अड़ने तथा विरोध होने को प्रबल सम्भावनाएँ होती हैं। यदि इसे ठीक-ठाक पार कर लिया गया, तो फिर पटरी पर गाड़ी के लुढ़क चलने में कोई अड़चन शेष नहीं रहती। यही कारण हैं के इस मनः स्थिति को ‘त्रेता’ के समकक्ष खा गया है।

जो उठकर दृढ़तापूर्वक खड़ा हो या, उसका चल पड़ना अवश्यम्भावी है, कारण कि दुनिया में स्थिर कुछ भी नहीं, व चलायमान है। साँसें चल रही है, जीवन चल रहा है, हर अंग-अवयव क्रियाशील-गतिशील है। काया भी अपने ढंग से गतिमान है। उसकी चार अवस्थाएँ इसी की परिणतियाँ हैं। जिस दिन उसमें स्थिरता आ गई, उसी क्षण मनुष्य एक जैसी अवस्था में पड़ा रह जायेगा, उसकी प्रगति अवरुद्ध हो जायेगी। शिशु सदा शिशु ही बने रहेंगे। वे कदाचित् ही प्रौढ़ बन पायें। शायद तब मृत्यु भी न आयेगी, क्योंकि दैहिक गत्यात्मकता ही मरण की हेतु है और मौत यदि जीवन का अनिवार्य अंग न हो, तो आदमी के लिए मुसीबत पैदा हो जाय। कभी न समाप्त होने वाली लम्बी जिन्दगी उसके लिए नीरस-निरानन्द बन जाएगी। इसी कारण काम के पश्चात् जिस प्रकार विश्राम की व्यवस्था है, उसी तरह भगवान ने मौत देकर जीवात्मा के विश्राम का सुयोग बनाया है। पुनः जन्म, उसके बाद फिर मरण-यही उसकी गति-प्रगति है। पदार्थ भी अचल कहाँ हैं? नदियाँ प्रवाहित हो रही हैं, सरिताएँ बह रही हैं, प्रतिपल बदल रही हैं। इसके बिना दूसरा कोई उपाय नहीं। अस्तु, व्यक्ति यदि खड़ा हो गया, तो उसका चल पड़ना असंदिग्ध है। केवल निश्चल बना एक स्थान पर वह रह नहीं सकता। उसे चलना ही पड़ेगा, बढ़ना ही पड़ेगा, बदलना ही पड़ेगा। यही सतयुग है। इसी निमित्त ऋषि कथन है- ‘कृत संपद्यते चरन्’ -चल पड़ना ही सतयुग है। इसलिए वे आगे कहते हैं- ‘चरैवेति, चरैवेति’- चलते रहो, चलते रहो। यही व्यक्तित्व का चरम विकास है।

यहाँ एक बात स्पष्ट है कि मानव सत्कर्म की केवल योजनाएँ-ही-योजनाएँ बनाता रहे, उनका क्रियान्वयन न करे, ऐसा कभी हो नहीं सकता। जो अच्छा सोचेगा, वह अच्छा करेगा भी-यह स्थिर सत्य है। समाज रूपी मन्दिर में यही भगवान की सर्वोपरि सेवा है। इसमें यह तुच्छ जीवन समर्पित हो जाय, इससे बढ़कर उदात्त व उत्कृष्ट और क्या हो सकता है? संसार में यदि कुछ सुखद, सुन्दर एवं श्रेष्ठ है, तो वह परमसत्ता के प्रति निष्ठावान बनने व बनाने की प्रक्रिया के अतिरिक्त दूसरा कुछ हो नहीं सकता। इस विश्व में परम आनन्द की, स्वर्ग-मुक्ति जैसी कोई अवस्था पड़ेगी, जिसे पाकर जीवात्मा धन्य बनती और परमात्मा का आशीर्वाद पाती है। इसी हेतु इस व्यक्तित्व खण्ड को सतयुग-स्वर्णयुग कहकर अभिहित किया गया है।

इस प्रकार उपरोक्त विवेचन से व्यक्तित्व की सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग सम्बन्धी अवधारणा स्पष्ट हो जानी चाहिए। इन्हें यदि शरीर की चार अवस्थाओं में ही घटित करना हो, तो शैशव को सतयुग, किशोरावस्था को त्रेता, यौवन को द्वापर एवं बुढ़ापा को कलियुग कहना पड़ेगा, कारण कि शिशु जब जन्म लेता है, तो उसकी मनोभूमि एकदम निर्मल, निर्विकार होती है। जीवन के दूसरे पड़ाव में आकर वह सच-झूठ, सही-गलत, भला-बुरा, लाभ-हानि, स्वार्थ’-परमार्थ कुछ-कुछ समझने और करने लगता है। फलतः यह त्रेता के समतुल्य है। आयु के तीसरे चरण में यह सब जीवनचर्या का अभिन्न अंग बन जाता और सत्य का अल्पाँश ही शेष रहता है, इसी से यह द्वापर हुआ। चौथेपन में तो बुद्धि का सठियाना प्रसिद्ध ही है। बची-खुची अच्छाई स्वार्थहित में गँवाकर आदमी सब कुछ स्वाहा कर लेता है। अस्तु, इसे आज की परिभाषा में कलियुग मानना ही समीचीन होगा।

लचीले गद्दे पर बैठने से वह नीचे दब जाता है, परन्तु उठने के साथ ही फिर पहले की तरह हो जाता है। इसी तरह साँसारिक लोग जब तक धर्म की बातें सुनते हैं, तब तक उनके विचार धार्मिकता से पूर्ण रहते हैं लेकिन साँसारिक व्यवहारों में लगने के साथ ही वे इन श्रेष्ठ विचारों और ऊंचे आदर्शों को भूलकर पूर्ववत् अपवित्र विचार और आचरण करने लग जाते हैं।

सम्पूर्ण व्यक्तित्व की यह दार्शनिक व्याख्या हुई। यहाँ यह कहना ठीक नहीं कि कलियुग, सतयुग जैसी स्थितियाँ शास्त्रों में निर्धारित काल के गमनागमन पर ही अवलम्बित हैं वास्तव में यह हर व्यक्ति की अपनी-अपनी इच्छा और रुचि पर निर्भर है। वह चाहे तो जीवन भर कलिकाल जैसी हेय अवस्था में पड़ा रहे और चाहे तो तत्क्षण अपनी दशा श्रेष्ठ और समुन्नत स्तर की सतयुगी बना ले। त्रेता, द्वापर दोनों की मध्यावस्थाएँ हैं। अतएव उपरोक्त विभाजन को काल के संदर्भ में समझने की अपेक्षा व्यक्तित्व के सम्बन्ध में समझना ज्यादा उचित, न्यायसंगत और समयानुकूल होगा।


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