भगवान की हँसी (Kahani)

February 1997

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एक जासु ने सन्त तिरुवल्लुवर से पूछा-”गुरुदेव! भगवान भी कभी हँसता है?”

सन्त मुस्कराए और बोले-”हाँ दो अवसरों पर।”

आगन्तुक की जिज्ञासा और बढ़ी उसने पूछा-”कब-कब?”

सन्त कहने लगे-”पहली बार भगवान तब हँसता है जब इनसान बल और बुद्धि के गुमान में अपनी ही मूलसत्ता ईश्वर को नकारने लगता है। वह भूल जाता है कि वह कहाँ से आया है, यह वैभव-सम्पत्ति सदा रहने वाली नहीं है और मरने के बाद इसे कहीं जान भी है। इनसान के इस भुलक्कड़पन पर भगवान को हँसी आ जाती है।

दूसरी बार भगवान को हँसी तब आती है, जब दो सहोदर भाई किसी जमीन के टुकड़े को नापते हुए कहते हैं, उधर की जमीन मेरी इधर की तेरे। इस मेरी-तेरी में भी बात नहीं बनती तो आपस में लड़ते-झगड़ते, मरने-मारने पर उतारू हो जाते हैं। उन्हें इस बात की याद नहीं रहती कि जिस जमीन के टुकड़े के लिए वे लड़ रहे हैं, उसी की धूल में उन्हें मिलना है। उनके न रहने पर भी जमीन का टुकड़ा वैसा ही रहेगा, जैसा कभी उनके रहने से पहले था।”


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