अध्यात्म-चेतना का ध्रुव केन्द्र है- देवात्मा हिमालय

February 1997

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भूगर्भशास्त्रियों एवं नृतत्व-विज्ञानियों के अनुसंधान के अनुसार, हिमालय मानव प्रजाति का पिता है।

एक अध्ययन के अनुसार हिमालय पर्वत शृंखला का पहला बड़ा उभार आज से 7 करोड़ वर्ष पहले शुरू हुआ। उसी के समशीतोष्ण भू-भाग में सबसे पहले वनस्पतियाँ उत्पन्न हुईं या औषधीः पूर्वा जाता (ऋग्वेद 10-97-1)। इसके बाद यहीं मानव ने अपना जन्म पाया। धरती माता की गोद और हिमालय पिता के संरक्षण में उसने अपनी सभ्यता का विकास किया। प्रकृति के रहस्यों एवं जीवन की दिव्यताओं की खोज उसने इसी के शुभ्र शिखरों की छाया में पूरी की। इसीलिए विश्व के आदि ग्रन्थ ऋग्वेद में आर्य ऋषियों ने

‘यस्य हेमवन्तो महित्वा आहुः हिमेनाग्नि हिमेवाससो, हिम्वानान् हविष्मान गिरिर्यस्ते पर्वता हिमवन्तारण्यते

प्रथिवी स्यानमस्तु’ कहकर हिमालय की स्तुति की है।

यह स्थान सिर्फ पर्वत शिखरों का पुँज नहीं, बल्कि विश्व की आध्यात्मिक सत्ता का केन्द्र है।

ऋषित्ताएँ एवं देव शक्तियाँ यहीं रहकर विश्वभर में उन्नत प्रेरणाओं एवं उच्चस्तरीय विचारों का संचार करती हैं। श्रीमद्भागवत के बारहवें स्कन्ध में दूसरे अध्याय के तीसरे श्लोक में महर्षि व्यास ने इसी सत्य का प्रतिपादन करते हुए हिमालय में दिव्य सिद्ध पुरुषों की उपस्थिति बतायी है और उनके एकत्रित होने के केन्द्र को ‘कलाप’ कहा है। 10 वें स्कन्ध के 87 वें अध्याय के 5.6.7 श्लोकों में भी ऐसा ही वर्णन है। भारतवर्ष के वैदिक अथवा पौराणिक साहित्य में ही नहीं, बल्कि जहाँ कहीं भी आध्यात्मिक चेतना ने अपना विकास पाया है, वहीं इस स्थान के महत्व को स्वीकारा गया है। रूस के प्रख्यात सन्त गुरजिएफ ने हिमालय की महिमा और यहाँ रहने वाली विशिष्ट आत्माओं से अपने संपर्क की बात स्वीकार की है। जापान की महिला सन्त हातोसाना के अनुसार, हिमालय दिव्य आत्माओं की निवास भूमि है। यहाँ 15,000 से भी अधिक ऋषित्ताएँ निवास करती हैं। इसका कार्य सृष्टि चक्र के संतुलन में भगवान की सहायता करना है।

थियोसॉफी सम्प्रदाय की संस्थापक मैडम ब्लावतस्की एवं उनकी शिष्या एनीबेसन्ट ने भी यहाँ पर रहने वाली सिद्ध पुरुषों की पार्लियामेंट का वर्णन किया है, जो अध्यात्म क्षेत्र के महत्वपूर्ण निर्णय करती है।

स्वामी योगानन्द ने अपने विश्व विख्यात ग्रन्थ ‘ओटोबायोग्राफी ऑफ ए योगी’ में ऐसे अनेक प्रसंगों को वर्णन किया है जिसमें हिमालय के सिद्ध योगियों के चमत्कारी कर्तृत्व का विवरण है। सुविख्यात मनीषी

पाल ब्रण्टन एवं टी. लोबसाँग राम्या जैसे अन्वेषकों ने इस क्षेत्र में समर्थ सिद्ध पुरुषों का अस्तित्व पाया है। दो सौ साल से अधिक समय तक जीवित रहने वाले स्वामी कृष्णाश्रम जी महाराज के ऐसे अनेक संस्मरणों को लेखन यशपाल जैन तथा अन्य जिज्ञासुओं ने किया है, जिनसे उस क्षेत्र की दिव्य रहस्यमयता उजागर होती है। महामना मदनमोहन मालवीय स्वयं कृष्णाश्रम जी के भक्त थे ओर उनके भक्ति पूर्ण आग्रह से विवश होकर ही उन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की आधारशिला रखी थी। स्वामीजी नग्न अवधूत की तरह हिमप्रदेश में निवास करते थे।

हिमालय में जितने छोटे-बड़े तीर्थ स्थान है, उतने अन्यत्र मिलने कठिन है। हरिद्वार इस देवभूमि का द्वार है। यहाँ से आगे बढ़ते ही ऋषिकेश से बद्रीनाथ जाने के रास्ते में देवप्रयाग, नन्दप्रयाग कर्णप्रयाग, रुद्रप्रयाग आदि कितने ही प्रयाग तथा उत्तरकाशी, गुप्तकाशी, दिव्यकाशी आदि कितने ही तीर्थ मिलते हैं। इनकी प्रख्याति भले अमरनाथ, ज्वालामुखी, बद्रीनाथ, गंगोत्री जितनी न हो पर दिव्यता को कोई अनुभवी समझ सकता है। ऐसे अनेक छोटे-छोटे तीर्थों की शृंखला यहाँ बिखरी पड़ी है। जिसका सान्निध्य व्यक्ति के अधोमुखी मन को सहज ऊर्ध्वमुख बना देता है। शिव और शक्ति के विभिन्न रूपों के देवस्थान थोड़ी दूर पर गाँवों के समीप एवं पर्वतीय घाटियों में सर्वत्र पाए जाते हैं। सती के आत्मविसर्जन का, पार्वती की साधना का यही स्थान है। शिव ताण्डव भी यहीं हुआ था। उसी अवसर पर उपयोग में लाया गया त्रिशूल उत्तरकाशी के एक प्राचीन स्थान में स्थापित बताया जाता है। जमदग्नि और परशुराम की तप-साधना उत्तरकाशी में ही सम्पन्न हुई थी।

ज्ञान-विज्ञान के अनेकों अनुसंधान इसी देवभूमि के दिव्य अंचल में सम्पन्न होते रहें हैं। रसायन विद्या, आयुर्वेद विचारो की खोज योग विज्ञान के महत्वपूर्ण प्रयोग यहीं की उपज है। सप्तऋषियों की महामनीषी देवमानवों का कार्यक्षेत्र यही भूमि रही है। प्राचीन भारत के स्वर्णिम भाग्य का निर्माण करने वाले गुरुकुल एवं आरण्यकों की परम्परा ने यहीं से जन्म पाया था। राजतन्त्रों के सूत्र संचालक महर्षि वसिष्ठ जैसे धर्माध्यक्षों की तपस्थली यही थी। महाभारत जैसे विश्वकोष स्तर के ग्रन्थ की रचना महर्षि व्यास ने बद्रीनाथ के पास व्यास गुफा में ही बैठकर की थी। लगभग सभी महत्वपूर्ण ऋषिकल्प देवात्माओं की तरह-तरह की गतिविधियाँ हिमालय की सुरम्य घाटियों एवं कन्दराओं में सुविकसित होती रही हैं। उन्हीं प्रयागों से लाभान्वित होकर भारतवर्ष के 33 करोड़ नागरिक कोटि देवता कहलाए। भौतिक एवं आत्मिक प्रगति की उच्चस्तरीय विभूतियों से भरी-पूरी होने के कारण भारतभूमि स्वर्गादपि गरीयसी कहलाती रही है। इसकी स्वर्गीय परिस्थितियाँ एवं विभूतियाँ सभी के आकर्षण का केन्द्र बनीं थी। इसे यह वरदान हिमालय ही देता रहा है। जलधारा वाली भागीरथी ही नहीं देवलोक की ज्ञानगंगा का अवतरण एवं प्रवाह भी इसी क्षेत्र से आरम्भ होता रहा है।

बात स्वर्ग की चली, तो इतिहासकार एवं भूगोलवेत्ता दोनों ही इस दृष्टि से एक मत हैं कि प्राचीन समय का स्वर्ग कोई ऐसा स्थान होना चाहिए, जहाँ लोगों का आना जाना बिना किसी खास कठिनाई के होता रहता हो। जहाँ भौतिक समृद्धि एवं आत्मिक विभूतियों की प्रचुरता हो। पौराणिक साहित्य में दशरथ, नारद, नहुष आदि के ऐसे अनगिनत कथानक हैं जिनमें स्वर्ग जाना और वापस आना कुछ उसी तरह बताया है जैसे हम लोग सामान्य स्थानों पर बिना किसी खास कठिनाई के चले जाते हैं। पाण्डवों के स्वर्गारोहण की तुक इसी प्रकार बैठती है कि वे जिन्दगी के अन्तिम समय में उसी शान्तिमय क्षेत्र में रहने के लिए चले आए थे। पाण्डवों ने अन्त समय स्वर्ग के जिए जहाँ से प्रयाण किया था, वह स्वर्गारोहण पर्वत अभी भी वसोधारा पठार के आगे विराजमान है। यह स्वर्ग क्षेत्र उस प्रदेश में था जिसे बद्रीनाथ और गंगोत्री का मध्यवर्ती भाग कह सकते हैं यह हिमालय का हृदय है।

दिव्यदर्शी, समाधिलीन योगियों का मत है कि ब्रह्माण्ड की सघन अध्यात्म चेतना का धरती पर विशिष्ट अवतरण इसी क्षेत्र में होता है। भौतिक शक्तियों के धरती पर अवतरण का केंद्रबिंदु विज्ञानवेत्ता ध्रुव प्रदेश को मानते हैं। अध्यात्मवेत्ताओं की वैसी ही मान्यता इस हिमालय के हृदय के सम्बन्ध में है। यह स्वर्ग क्षेत्र ब्रह्माण्डव्यापी दिव्य चेतनाओं का अवतरण केन्द्र है। जहाँ शोध करते हुए, तप करते हुए महामनीषी अपने देवशक्तियों से सुसज्जित करते हैं। अभी भी उस क्षेत्र में स्थूल और सूक्ष्म शरीरधारी दिव्य सत्ताओं के आस्तित्व पाये जाते हैं। वे अपने क्रियाकलाप से समस्त भूमण्डल को प्रभावित करते हैं।

देवराज इन्द्र की सहायता के लिए महाराज दशरथ अपना रथ लेकर गए थे। पहिया गड़बड़ाने लगा तो महारानी कैकेयी ने उस विपत्ति का समाधान अपने का जोखिम में डालकर किया था। कुछ इसी तरह का आख्यान अर्जुन के बारे में है। जब वे इन्द्र के यहाँ गए थे, तो उर्वशी ने उन्हें सम्मोहित करने की कोशिश की थी, जिसे उन्होंने अस्वीकार कर दिया था। जहाँ मनुष्य आ जा सके, वह स्थान धरती पर ही सम्भव है। चन्द्रमा और इन्द्र का मिलजुल कर ऋषि गौतम की पत्नी अहिल्या से छल करना धरती पर ही सम्भव है। दधीचि का देवताओं को अस्थि दान आदि अनेकों पौराणिक आख्यान ऐसे हैं जिसमें देवों और मनुष्यों के सघन सहयोग की चर्चा है। इन पर विवेकपूर्ण ढंग से सोचें तो इसी नतीजे पर पहुंचेंगे कि स्वर्ग कहीं इस धरती का कोई भूभाग है और देवता मनुष्यों का ही कोई वर्गविशेष। इसका समाधान उत्तराखण्ड को ही देवभूमि स्वर्ग मान लेने से हो सकता है। इस क्षेत्र में अभी भी भ्रमण करके ऐसे अनेकानेक प्रमाण उठाए जा सकते हैं जिनके आधार पर पौराणिक स्वर्ग की संगति इस प्रदेश के साथ बिठाई जा सके।

देवार्चन हर मनुष्य का अनिवार्य कर्तव्य था। गीता में भी यज्ञ से देवों की पुष्टि की बात कही गयी है। इसे सर्वसाधारण द्वारा देव प्रयोजनों के लिए विविध-विधि अनुदान प्रस्तुत करना समझा जाना चाहिए। यज्ञ का सीधा मतलब अर्थदान एवं त्याग बलिदान है। देव प्रयोजनों के लिए श्रम, समय, मन, धन आदि से सहयोग करते रहना है। यज्ञ से पूजित देवता मनुष्यों पर सुख-शान्ति बरसाते हैं और यज्ञ न करने वाले विपत्ति में फँसते हैं। गीताकार का यह कथन जन सामान्य देववर्ग को, देवकर्म को समुचित सहयोग प्रदान करते रहने की अनिवार्य आवश्यकता का उद्बोधन कराता है। यह देवगण और कोई नहीं उस समय स्वर्ग क्षेत्र में निवास करने वाले, धर्म प्रेरणाओं एवं भावात्मक परिष्कार के अनगिनत आधारों का निर्माण करने वाले तपस्वीगण ही थे। समस्त विश्व में स्वर्गीय परिस्थितियों का निर्माण करने के लिए उनका महाप्रयास जनसाधारण को देवार्चन एवं देवपूजन के लिए अनायास प्रेरित करता था।

स्वर्गीय विभूति कहे जाने वाले कैलाश और मानसरोवर भारतीय हिमालय क्षेत्र में तब भी थे और आज भी है। कैलाशवासी भगवान शंकर कि सिरे से गंगा प्रवाहित होती है, इसकी संगति तिब्बत के कैलाश से मेल नहीं खाती। क्योंकि वहाँ गंगा का गोमुख तक आना भौगोलिक स्थिति के कारण किसी भी तरह सम्भव नहीं है। गंगोत्री से जेलूखागा घाटी होते हुए कैलाश की दूरी लगभग 300 मील है। फिर बीच में कई आड़े पहाड़ आए हैं, जिसकी वजह से कोई जलधारा या हिमधारा वहाँ तक नहीं पहुँच सकती । असली शिवलोक इस धरती के स्वर्ग में ही हो सकता है। शिवलिंग पर्वत के समीप ही गंगा ग्लेशियर है। स्वर्ग गंगा उसी जगह है। गौरी सरोवर की मौजूदगी भी वहीं है। इस तरह गंगा धारण करने वाले महादेव शिव का कैलाश यह हिमालय का हृदय ही हो सकता है। यदि प्राचीन कैलाश यहाँ न रहा होता तो भगीरथ यहाँ तपस्या करने की बजाए शायद तिब्बत चले जाते। इस पुण्यभूमि में शिवलिंग, केदार शिखर और नीलकण्ठ शिखर तीनों ही भगवान शिव के निवास हैं। मानसरोवर की उपस्थिति भी इस देवभूमि में स्वाभाविक है। सुरालय, हिमधारा, सत्पथ हिमधारा तथा वरुण वन नामों से इस क्षेत्र का देवभूमि होना प्रमाणित होता है। अष्ट वसुओं ने जो जगह अपने निवास के लिए चुनी वह वसुधारा भी अलकापुरी के पास ही है। इन सब तथ्यों पर विचार करने से वास्तविक कैलाश एवं मानसरोवर की उपस्थिति इसी प्रदेश में सिद्ध होती है।

इन दिनों तिब्बत वाला कैलाश चीन के प्रतिबन्धों के कारण यात्रा की दृष्टि से सुविधाजनक नहीं है। सरकार जिस यात्रा का प्रबन्ध करती भी है, उसका व्यय भार उठाना औसत नागरिक के बूते की बात नहीं। फिर वहाँ न अपनी भाषा है, न संस्कृति। वहाँ पहुँचकर विदेश जैसा अनुभव होता है। सम्भव है जब कभी भारतीय संस्कृति वहाँ रही हो वह स्थान भी उपयुक्त तीर्थ रहा होगा। पर शिव का वास्तविक निवास, गंगा का असली उद्गम और सच्चे मानसरोवर का दर्शन करना हो तो हमें हिमालय के इसी हृदय क्षेत्र में खोज करनी पड़ेगी। सत्यान्वेषी जिज्ञासु चाहें तो तिब्बत वाले कैलाश और इस हिमालय के हृदय वाले कैलाश यात्रा करके स्वयं निर्णय कर सकते हैं उन्हें स्वयं अनुभव होगा कि यह स्थान कितने दिव्य वातावरण से परिपूर्ण है। तथ्य तो यही है कि असली कैलाश एवं मानसरोवर इसी क्षेत्र में है। वहाँ किसी विदेशी ताकत की छाया भी नहीं पड़ सकती।

हिमालय की यही स्वर्ग भूमि भारतीय संस्कृति की उदय भूमि रही है। इस सत्य की स्वीकारोक्ति श्री साहनी ने ‘मैन इन हिस्ट्री ऑफ वर्ल्ड’ में की थी। इतिहासकार भी अब मानने लगे हैं कि आर्यों का आदि निवास हिमालय में ही था। स्वर्गलोक का जो विवरण पुराणों में मिलता है वह प्रायः कवित्वपूर्ण होने के कारण जहाँ एक ओर उदात्त दृष्टिकोण लिए हैं, वही उत्कृष्ट भाव अभिव्यंजना सजाए है। यह शैली उपयुक्त भी है। लेकिन इसके आधार पर यदि उसका भौगोलिक स्वरूप ढूँढ़ना हो और सौंदर्य पूर्ण वातावरण तलाशना हो तो वह किसी अन्य ग्रह में नहीं बल्कि इसी हिमालय में परिलक्षित होता है।

महाभारत में एक कथा आती है कि अर्जुन द्रौपदी से आग्रह करते हैं कि वह कोई उपहार माँग ले। उत्तर में संकोचपूर्ण स्वर में द्रौपदी कहती है कि मेरे लिए नन्दन वन के पारिपाज पुष्प ला दें, जो जल में नहीं पत्थरों में खिलते हैं। जिनका सौंदर्य स्वर्गीय दिव्यता की अनुभूति करा देता है। कथा के अनुसार अर्जुन, हिमालय पहुँच कर नन्दन वन गए। उन्हें वहाँ के रक्षकों से युद्ध करना पड़ा ओर वहाँ से एक पारिजात पुष्प द्रौपदी के लिए ले आए।

यह नन्दन वन हिमालय क्षेत्र के पुष्पोद्यान का नाम है। यह स्थान गोमुख के आगे तपोवन पार करने पर मिलता है। शिवलिंग पर्वत के पास ही यह क्षेत्र फैला है। यहाँ वर्षा ऋतु के बाद ही बसन्त छा जाता है और सारा फूलों के गलीचे की तरह अपरिमित सुषमा से भर जाता है। ऐसा ही एक बगीचा यातायात के दृष्टि से सुलभ स्थान पर भी है। यह फूलों की घाटी के नाम से मशहूर है। समुद्र तल से 13200 फीट की ऊँचाई पर अवस्थित वह उद्यान विश्वविख्यात है। दस-पन्द्रह मील के इस इलाके में प्राकृतिक रूप से उगने वाले हजारों प्रकार के चित्र-विचित्र पुष्प अनायास ही खिलते हैं। संसार में ऐसा सुंदर और अद्भुत क्षेत्र अन्यत्र कहीं नहीं है। इसे देखने के लिए हर साल हजारों-हजार देशी-विदेशी पर्यटक हर साल पहुँचते हैं।

प्रकृति की इस अनुपम छटा के बारे में विशेषज्ञों का अनुमान है कि यह उत्पादन प्रकृति का नहीं, विचारशील व्यक्तियों द्वारा अतीत में किया गया शुभारम्भ है। यह पौधे सुनियोजित ढंग से विकसित किये गए हैं। सम्भव है यहाँ कोई महर्षि का तपोवन अथवा फिर कोई राजोद्यान रहा हो एवं भूगर्भ वैज्ञानिकों को इस पूरे क्षेत्र में यज्ञों के उपकरण, बहुमूल्य धातुपात्र, आभूषण अस्त्र आदि भी मिल हैं। जिनसे स्पष्ट होता है इस क्षेत्र में कभी सुसभ्य लोग रहते थे।

जोशीमठ ही नहीं अब बद्रीनाथ तक पक्की सड़क बन गयी है। जोशीमठ से बद्रीनाथ जाने वाली सड़क पर बीच में गोविन्द घाट उतरना पड़ता है, वहाँ से 7 मील पैदल चलकर घाघरिया एक स्थान है। यहाँ से फूलों की घाटी तक एक घण्टे को रास्ता है। कामेट झरना यहाँ का बहुत बड़ा दर्शनीय स्थल हैं यहीं पास के क्यूड़ गाँव से फूलों की घाटी की शुरुआत हो जाती है। जो दस-पन्द्रह मील के बड़े दायरे में फैली हुई है। घाटी की दाहिनी ओर ‘कुबेर भण्डार’ पर्वत है। लोक मान्यता है कि यहीं कहीं देवलोक के कोषाध्यक्ष कुबेर की प्रचुर सम्पदा अभी भी दबी पड़ी है।

गंगा ग्लेशियर से आगे गहन हिमधारा व वरुण वन है। कहते हैं यह पूरा क्षेत्र वरुण देवता का कार्यक्षेत्र रहा है। यहाँ से सुमेरु पर्वत को भली प्रकार देखा जा सकता है। सुबह-शाम के सूर्योदय और सूर्यास्त में इसकी स्वर्णिम आभा इसे सचमुच के स्वर्ण शिखर का रूप देती है। स्वर्णिम सूर्य रश्मियाँ बर्फ से ढकी चोटियों पर जब प्रतिबिम्बित होती है, तब यह पर्व ऐसा लगता है माना सोने का बना हो। पुराणों से इसी सुमेरु को देवताओं का निवास और स्वर्ण विनिर्मित बताया गया है यह उपमा प्रातः और सायंकालीन सुमेरु को देखकर अभी भी चरितार्थ होती है। स्वर्ग में सुमेरु होने की पौराणिक मान्यता से इसी क्षेत्र का स्वर्ग होना सिद्ध होता है।

हिमप्रदेश में इन्द्रधनुषों की बाढ़ सी रहती है। झरनों में, उड़ती फुहारों में बादलों में घाटियों में नमी के कारण उन पर प्रतिबिम्बित होने वाली सूर्य किरणें चित्र-विचित्र रंग के इन्द्रधनुष बनाती हैं। लगता है देवों के ये सप्तवर्ण आयुध इस क्षेत्र में अपना और अपनी अधिपति देव सत्ताओं का आस्तित्व इस क्षेत्र में होने का प्रमाण देते हैं।

हिमालय प्रकृति-शोभी, वन, सम्पदा, बलिष्ठ-जलवायु एवं आध्यात्मिक वातावरण का ही धनी नहीं है, यहाँ प्राचीनकाल में सुविकसित राजसत्ताएँ भी पनपी हैं। पुरातनकाल में इस क्षेत्र के राजा इन्द्र की पदवी धारण करते थे। मध्यकाल में भी महाभारत के अनुसार द्विगर्त, विगत राज्य यहीं के थे। काश्मीर, नेपाल, गढ़वाल, हिमाचल जैसे प्रान्त एवं देश हिमालय की ही सीमा के अंतर्गत है। क्षेत्रफल की दृष्टि से यह भूमि समूचे भारत की एक चौथाई हिस्सा है। पंजाब एवं उत्तर प्रदेश के एक बड़े भाग को हिमालय की छाया में रहने का सौभाग्य प्राप्त है।

हिमालय की आत्मा आर्ष साहित्य में ऋषिगणों के माध्यम से मुखरित हुई है। प्रायः सभी पुराणों में इसकी महिमा का गान है। मेघदूत, हर्ष चरित, कुमार सम्भव आदि अनगिनत संस्कृत काव्यों में इसके सौंदर्य की छटा घटनाएँ ही प्राचीन भारतीय साहित्य का आधार है। हिमालय का अनुदान-अवतरण ही उत्तरी पूर्वी एवं पश्चिमी भारत को जल दान देता है। पंजाब-सिन्ध के लिए पंचनद। असम से लेकर वर्मा के लिए ब्रह्मपुत्र। उत्तर प्रदेश, विहार, बंगाल के लिए गंगा यमुना, सरयू आदि सभी हिमालय की देन हैं। बादल बरसते हैं यह ठीक है, पर वस्तुतः निरन्तर हिमालय ही बरसता है। उसके भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों ही महत्व हैं। भौतिक में वन-सम्पदा , वनस्पति, औषधि, पत्थर तथा खनिज। आध्यात्मिक में वातावरण जिसके प्रभाव से वहाँ का जनसामान्य अभी भी अपेक्षाकृत ईमानदार एवं सदाचारी है। देवताओं, ऋषियों, तपस्वियों का क्रीड़ाप्राँगण है। इसी से तो भगवान ने गीता में ‘स्थावरणाँ हिमालयः’ अर्थात् स्थावरों में हिमालय में स्वयं हूँ, कहा है।

देखने से निर्जीव पाषाण खण्ड प्रतीत होने वाला यह पर्वतराज प्रत्यक्ष देव है। यह अनन्त रहस्यों की दिव्य भूमि है। जीवन इसके कण-कण में है। आज भी इसकी छाया में अनेकों आश्चर्यजनक अनुसंधान चल रहे हैं, जिनके युगान्तरकारी प्रभाव इक्कीसवीं सदी में देखे जा सकेंगे। वहाँ के ऋषिगणों एवं देवशक्तियों की सतत् उपस्थिति के कारण आत्मसाधना की दृष्टि से इस क्षेत्र का सर्वोपरि महत्व प्राचीनकाल से लेकर अभी तक बना हुआ हैं। उन्हीं दिव्य सत्ताओं के प्रत्यक्ष आदेश से हिमालय की छाया और गंगा की गोद में शान्तिकुँज बनाया-बसाया गया था, ताकि जन-साधारण यहाँ साधना करके हिमालय के दिव्य अनुदानों का पा सकें और वहाँ के ऋषिगणों देवशक्तियों के सूक्ष्म संपर्क में आकर स्वयं को धन्य अनुभव कर सकें।


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