नशे की स्थिति में मनुष्य होश-हवास खो बैठता है। चिन्तन और आचरण में असभ्यता और उद्दण्डता की मात्रा बढ़ा लेता है। अपने लिए और दूसरों के लिए संकट खड़े करता है। शक्ति का अपव्यय होने पर जो रिक्तता आती है, उसे भरना भी कठिन हो जाता है। इन दुष्परिणामों को देखते हुए नशेबाजी का सभी विचारशीलों ने विरोध किया है और करने वालों को उद्धत और उद्दण्ड बताकर उन्हें हेय कहा और भर्त्सना का अधिकारी, असभ्य ठहराया है।
मानसिक क्षेत्र में भी एक भयंकर नशा अहंकार का है। यह दुकान पर जाकर खरीदना नहीं पड़ता, अपने ही दृष्टिकोण में विकृति भर जाने पर अनायास ही सड़ी कीचड़ में उपजने वाली दुर्गन्ध की तरह उभर पड़ता है। सड़े काठ में कुकुरमुत्ते बिना बोये ही उग पड़ते हैं। इसी प्रकार अदूरदर्शी मनःस्थिति के साथ सम्पदा, समर्थता और उद्दण्डता का समन्वय बन पड़ता है। वहाँ ऐसा कुछ होने लगता है जैसा कि बाएं का पानी तटबन्धों को तोड़ता हुआ समीपवर्ती खेत-खलिहानों और झोंपड़ी को अपने बहाव से कहीं से कहीं बहा लेता है। उपयोगी, अनुपयोगी का भी उसे ध्यान नहीं रहता है।अनेकों को जल देने वाले कुएँ और जलाशयों को भी कीचड़ से भरकर उनका स्वरूप बिगाड़ देता है। अन्धड़ भी यही करते हैं। जब तूफानी गति पकड़ते हैं तो मजबूत वृक्षों तक को उखाड़ फेंकते हैं। हलकी-फुलकी वस्तुओं को तो वे कहीं से कहीं पहुँचा देते हैं। उद्धत अहंकार भी एक प्रकार का उन्माद है। उसमें शक्ति प्रदर्शन ओर कर्तृत्व की विलक्षणता प्रदर्शित करने के अतिरिक्त और कुछ सूझता ही नहीं।
पिछली शताब्दियाँ तथाकथित प्रगतिशीलता के उफान की अवधि मानी जाती हैं। उसकी सबसे बड़ी देन है- विज्ञान का अभूतपूर्व उत्कर्ष। पदार्थ सम्पदा का उसके स्वाभाविक गुणधर्म से विरत करके वस्तुओं का मनचाहा उपयोग कर लेना। संक्षेप में इसी को विज्ञान का कौशल कहा जाता है। पर्यवेक्षण करने पर पता चलता है कि इस प्रकार के प्रयास में मानवी प्रयत्नों ने असाधारण सफलता पायी है। इसके द्वारा आविष्कृत-उत्पादित अनेकों उपलब्धियाँ ऐसी हैं जिन्हें अभूतपूर्व एवं चमत्कारी कहा जा सकता है। अनेकानेक सुविधा−साधन, वाहन, कारखाने, आयुध उसी की देन हैं। इनमें कुछ तो एक सीमा तक उपयोगी भी हैं, पर ऐसों का बाहुल्य रहा है जो न केवल अनावश्यक था, वरन् हानिकारक भी रहा। हर कर्म का परिणाम तत्काल तो प्रतीत नहीं होता। पर पीछे परिणाम सामने आने पर यह पता चलता है कि इसमें क्या उपयुक्त बन पड़, क्या अनुपयुक्त? क्या सही सोचा गया, क्या गलत? यह निष्कर्ष निकलने तक प्रायः बहुत देर हो जाती है और जो अनुचित बन पड़ उसका सुधार अत्यधिक कठिन हो जाता है। नशे की स्थिति में प्रायः यही होता है। अहंकारी भी प्रायः ऐसी ही अवाँछनीयता बरतते रहते हैं।
पिछली शताब्दियों में विज्ञान के क्षेत्र में यही होता रहा है। भौतिक क्षेत्र के आविष्कारों की एक होड़ चल पड़ी। प्रतिभाओं का ध्यान उस ओर गया तो उसी प्रकार की प्रतिस्पर्धा चल पड़ी। जो खोजा गया उसका तात्कालिक लाभ जब सामने आया तो धनपतियों से लेकर शासकों तक का ध्यान उनकी ओर गया। दोनों वर्गों ने सोचा कि उन उपलब्धियों का क्यों न भरपूर लाभ उठाया जाय और क्यों न अपनी सामर्थ्य को अधिकाधिक मात्र. में बढ़ाकर मनचाहा वैभव अर्जित किया जाय। लाभ सभी को सुहाता है, विशेषतया तब जबकि उसके उचित ही नहीं, अनुचित प्रकार के स्वार्थों की भी सिद्धि होती हो।
यों सर्वत्र ऐसा ही नहीं हुआ। बहुत कुछ ऐसा भी बन पड़ा है, जिसे सर्वसाधारण के लिए उपयोगी कहा जा सकता है। जिनने सर्वसाधारण की सुविधाओं में अभिवृद्धि की है, श्रम बचाया है और देर में बन पड़ने वाले कार्यों को जल्दी कर दिखाया है, ऐसे सुविधा-साधन भी उत्पन्न किये हैं जो पूर्वकाल में उपलब्ध नहीं थे। इस स्तर के प्रयासों की सराहना की जाएगी और उस सीमा तक विज्ञान को सराहा ही जायेगा। मानवी प्रयत्नों के सदुपयोग से प्रायः ऐसा ही बन पड़ता है जो सुखद भी हो ओर उल्लासवर्धक भी। हानि तो उस दुरुपयोग से होती है जिसमें उतावली और अदूरदर्शिता का समावेश भरा रहता है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण पिछले दिनों भी देखा जाता रहा है और इस समय तो और भी भयंकर रूप से सामने है।
प्रकृति ने अपने अनन्त भण्डार में से क्रमशः मनुष्य के सामने उतना ही उद्घाटित करने का क्रम जारी रखा है जितना कि वह हजम कर सके। सामर्थ्य से बाहर की वस्तुएँ बटोर लेने पर तो उसके भार से गर्दन ही टूटती है, सँभालने-सुरक्षित रखने में कठिनाई पड़ती है। पेट की सामर्थ्य से अधिक खाया हुआ अमृत भी विष बन जाता है। यही बात शक्ति और सम्पदा के सम्बन्ध में भी है। पात्रता और मात्रा के बीच संतुलन न बिठाया जा सके तो उससे अनाचार ही बन पड़ता है। होता भी ऐसा ही रहा है।
नवजात भौतिक विज्ञान की अपेक्षाकृत अधिक देखभाल और साज सँभाल रखी जानी चाहिए थी। बुद्धिमान अभिभावक ऐसी ही जिम्मेदारी का परिचय भी देते हैं, अन्यथा हरेक बच्चे का जन्मना ही समस्त प्रसन्नताओं का के.......... नहीं बन जाता? बीमार पड़ने पर व........... समुचित चिकित्सा और परिचर्या अभाव में अपंग भी हो सकता है और जन्मभर के लिए सभी के लिए भार बन सकता है, लाभ के स्थान पर उसे हानि ही हो सकती है। उदाहरण के लिए पिछले दिनों विज्ञान के महत्वपूर्ण .....................का दुरुपयोग होना अपने दुष्परिणामों सहित सामने है।
आटा धीमी गति से चक्की पीसे उसकी पौष्टिकता बनी रहेगी। यदि वह तीव्र गति से घर्षण और दबाव हो तो वह जलकर खाक हो जायेगा। भोजन एक-एक ग्रास करके उदरस्थ किया जाता है। पानी घूँट-घूँट कर पीते हैं। यह क्रियाएँ यदि एक बार करने में उतावली की जाय तो परिणाम में हानि ही हानि हाथ लगेगी। एक सोने का अण्डा नित्य देने वाली मुर्गी का पेट चीरकर जिस उतावले मनुष्य ने जल्दबाजी का परिचय दिया था, उसने घाटा ही उठाया। शेखचिल्ली के सपने तो महत्वाकाँक्षाओं से भरे थे, पर उसने क्रमिक प्रगति को ध्यान में नहीं रखा और आगे बढ़ने के लिए किस गति से चरण उठाये जाने चाहिए, इस निर्धारण की उपेक्षा कर गया। फलतः अब तक ‘शेखचिल्ली’ नाम उपहासास्पद उल्लेख में ही काम में लाया जाता है। स्वार्थ का अतिवादी होना भी एक ऐसी ही विडम्बना है जिसके कुछ ही समय में दुष्परिणाम सामने आ खड़े होते हैं।
नवोदित विज्ञान से ऐसी ही भूलें होती रही हैं। उनकी प्रतिक्रिया इन दिनों भयानक व्यवधान के रूप में सामने है। उसे शासकों और धनाढ्यों के हाथ का खिलौना नहीं बनना चाहिए था, वरन् उद्देश्य निर्धारित करते हुए कदम बढ़ाना चाहिए था। सर्वजनीन हित-साधन को लक्ष्य रखकर चलना चाहिए था और यह अनुमान लगाना चाहिए था कि जिन लोगों के हाथ में यह शक्ति जा रही है, वे उसका अनुचित स्वार्थ-साधन के लिए दुरुपयोग तो न करने लगेंगे। आविष्कर्त्ताओं, अन्वेषकों और शोधकर्ताओं को यदि इतनी क्षमता, विलक्षण मेधा, बुद्धि प्राप्त हुई तो उसी के साथ कंधे पर आयी जिम्मेदारियों को भी वहन करना चाहिए था, पर यह हुआ नहीं। दुरुपयोग करने वालों के प्रलोभन सफल होते रहे। उनने विज्ञान क्षेत्र के मनीषियों को खरीद लिया और उनकी उपलब्धियों का अदूरदर्शिता पूर्वक उपयोग किया।
बड़े कारखाने लगाते समय यह विचार किया जाना चाहिए कि इनके माध्यम से होने वाले प्रचुर उत्पादन से उस कमाई का लाभ कुछेक अमीरों के हाथ ही तो सीमित नहीं रह जायगा। कुछेक कुशल श्रमिकों को ऊँचा वेतन देकर उन्हें खुश तो किया जा सकेगा, पर गृहउद्योग में लगे लोगों की आजीविका छिन जाने से उन्हें बेकारी, बेरोजगारी और भुखमरी का सामना तो न करना पड़ेगा। साथ ही यह भी विचारने योग्य था कि उनके लिए जितनी विशाल मात्रा में ईंधन की जरूरत पड़ेगी, उसका प्रबन्ध करने में धरती पर विद्यमान ईंधन तेजी से समाप्त तो नहीं हो जायगा और एक दिन ऊर्जा संकट के कारण इन विशालकाय संयंत्रों का अस्तित्व ही खतरे में तो न पड़ जायगा। फिर इनकी चिमनियाँ जो प्रदूषण उगलेंगी उनके कारण साँस लेने वाले प्राणियों का जीवन संकट में तो न पड़ेगा? इसी को कहते हैं-अदूरदर्शिता, जिसके प्रभाव में आकर लोग तात्कालिक लाभ को ही सब कुछ मान बैठते हैं और यह सोचने की आवश्यकता अनुभव नहीं करते कि उसका परिणाम किस रूप में कुछ ही दिनों बाद सामने आयेगा। अनाचारों की विषद शृंखला प्रायः इसी आधार पर बढ़ती और फैलती चली गयी है और अब वह हर क्षेत्र में एक प्रचलन बनकर रह गया है, किसी को अखरता तक नहीं।
द्रुतगामी वाहन से समय की बचत हुई और खर्च भी घटा, पर उनके कारण पृथ्वी में संग्रहित ईंधन भण्डार कितनी तेजी से समाप्त होता जा रहा है, कितनी वायु प्रदूषित होती है, कितनी दुर्घटनाएँ घटित होती हैं, पशु वाहन चलाने वालों का उद्योग किस प्रकार समाप्त होता है इसे भुला ही दिया गया। वह समय दूर नहीं जब कारखानों तथा जल-थल-नभ में विचरण करने वाले वाहनों में कोयले और खनिज तेलों की जिस तेजी से खपत हो रही है, वह एक दिन परे भण्डार को समाप्त कर देगी और यह सारा जादुई महल देखते-देखते ढहकर समाप्त हो जायगा।
औद्योगिक प्रगति को देखकर हम सभी खुश होते हैं, पर यह भूल जाते हैं कि इसके कारण वायु प्रदूषण एवं जल प्रदूषण का कितना बड़ा खतरा दिन-दिन उग्र होता और निकट खिंचता चला आ रहा है। ईंधन समाप्त कर लेने पर उस तथाकथित प्रगति पर विराम तो लगेगा ही साथ ही जीवन की प्रधान आवश्यकता वायु और जल का भारी विषाक्तता से भरा होने के कारण मनुष्य समेत जीव-जगत के लिए चुनौती बनेगा, तब उस महाविनाश से बच निकलना किस प्रकार सम्भव होगा?
कारखानों और वाहनों के कारण उत्पन्न होने वाला शोर प्रत्यक्ष देखने में कोई बड़ी बात प्रतीत नहीं होती, पर उसके अदृश्य परिणाम की जाँच-पड़ताल करने वाले बताते हैं कि इससे न केवल बरापन, वरन् मानसिक दक्षता घटते जाने और विक्षिप्तता बढ़ते जाने का खतरा निरन्तर बढ़ता जाता है। जीवन के साथ खिलवाड़ करके, भविष्य को अन्धकारमय बनाकर यदि वर्तमान सुविधाओं का जादू महल खड़ा कर लिया गया तो इनसे कितने दिनों, कितनों का, कितना काम चलेगा, यह भी तो सोचा जाना चाहिए था। इसी को कहते हैं ‘नशेबाजों जैसा उद्धत आचरण’- ‘अहंकारियों द्वारा उठाते देखा गया उद्धत क्रियाकलाप’। शक्ति जब कभी भी नासमझों के हाथ में पहुँची है तब उसने सदा ऐसा ही अनर्थ पैदा किया है। इन दिनों हम ऐसे ही संकटापन्न दल-दल में फँसे हुए जीवन-मरण के मध्यवर्ती अधर में लटक रहे हैं। तात्कालिक लाभ हमें प्रगतिशीलता के नाम पर और भी अहंकारी बना रहा है। फलतः जिस राह पर हमारी प्रगति चल पड़ी है, वह बढ़ती ही जा रही है, भले ही उसकी परिणति अगले ही दिनों ऐसी विपत्ति में फँसा दे जिससे उबरने का कोई मार्ग ही शेष न रहे।
ऊपर की पंक्तियों में विशालकाय कारखानों और द्रुतगामी वाहनों की ही चर्चा की गई है। पर इसके अतिरिक्त भी बहुत कुछ इसी स्तर का है जिसमें सुविधा-संवर्धन दीखता है और प्रगति-समृद्धि का भी आभास मिलता है, पर अगले ही दिनों इस आधार पर आने वाली विपत्तियों पर जब कभी जिस किसी को भी सोचने का अवसर मिलता है तब प्रतीत होता है कि हम रास्ता भटक गये और आकर्षक दीखने वाली पगडंडियों पर चल पड़े हैं, जिसमें आगे चलकर दलदलों और झाड़-झंखाड़ों की ही भरमार है।