सुनियोजित हमारी यज्ञ प्रक्रिया

February 1997

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पारमार्थिक वातावरण बनाने के लिए जो यज्ञ-प्रक्रिया काम में लाई जाती है, उसे सार्वजनिक प्रयास द्वारा सम्पन्न किया जाता है। एक बड़ा पक्ष यज्ञ का यही है। व्यक्तिगत प्रयोग इससे भिन्न है।

पारमार्थिक प्रयोजनों के निमित्त किये जाने वाले यज्ञों का शब्दार्थ उसी प्रकार किया जाता है उस भूमिका में यज्ञ शब्द के तीन अर्थ है-दान, देवपूजन और संगतिकरण। परमार्थ योजनाएँ पूरी करने के लिए श्रमदान, समयदान और अंशदान की आवश्यकता पड़ती हैं लोककल्याण के कार्य इसके बिना हो नहीं सकते। इसलिए यज्ञ योजना आरम्भ करते समय भी दान-संग्रह की आवश्यकता पड़ती है और उस आयोजन के पश्चात् जो बड़े काम हाथ में लेने हों, उसके लिए भी धन की-साधनों की आवश्यकता पड़ती है। अस्तु, यज्ञ शब्द के एक अर्थ में उस अनुदान संचय की ओर संकेत किया गया है। दूसरा अर्थ है- देवपूजन । ऐसी योजनाएँ सम्पन्न करने के लिए देवजनों की, विद्वानों-मनीषियों की, परमार्थ-परायण की, साधुजनों की बड़ी संख्या चाहिए। ऐसे लोग यदि न हों, और लोभी , दंभी, प्रपंची लोग इस कार्य में आगे हो, उच्च उद्देश्य जिनके न हों, महान व्यक्तित्व जिनके न हो, उनके एकत्रीकरण से भी यज्ञ योजना पूरी नहीं हो सकती और न अभीष्ट प्रतिफल ही उपलब्ध हो सकता है। इसलिए जिस प्रकार यज्ञ साधनों के लिए दान की आवश्यकता है, वैसे ही उसके सूत्र-संचालन के लिए उच्चकोटि के व्यक्तित्व भी आवश्यक है।

यज्ञ का तीसरा अर्थ हैं-संगतिकरण, संगठन। मिल-जुलकर उस कार्य को पूरा करने की प्रवृत्ति । यह भी अनिवार्य रूप से आवश्यक है। दान द्वारा साधन संग्रह कर लिये जाएँ और साधु, विद्वान भी मिल जाएँ, पर उनमें संगठन न हो , एक मन से-एकजुट होकर निर्धारित योजना पूरी करने की लगन न हो तो भी वातावरण में पारमार्थिकता का समावेश करना सम्भव न होगा और यज्ञ का मूलभूत उद्देश्य पूरा न होगा। यज्ञ में केवल अग्निहोत्र ही नहीं होता, उसके पीछे समग्र योजना होती है। लोकमंगल की कितनी ही आवश्यकताएँ और सामयिक समस्याएँ होती है। उन्हें आरम्भ करने एवं प्रगतिशील बनाने के लिए कितने ही कार्यक्रम निर्धारित करने और उन्हें पूर्ण करने के लिए सर्वतोभावेन जुट पाने की आवश्यकता पड़ती हैं यह सारा सुयोग बनने पर यह समझा जाता है कि यज्ञ प्रयोजन पूरा हुआ। इसी समग्रता की ओर यज्ञ शब्द को तीन अर्थों में इंगित किया गया है।

इस प्रकार के यज्ञ आज की परिस्थितियों में बहुत बड़े, रूप में सम्पन्न न हो सकेंगे। इसलिए पाँच कुण्डों , नौ कुण्डी, पच्चीस कुण्डी, अधिक से अधिक एक सौ आठ कुण्डीयों की योजना हाथ में ली जानी चाहिए। इसी के लिए सही तरीके से दान संग्रह करना, लोकसेवी जुटाना और परस्पर संगठन बनाये रहना सम्भव है। इन आयोजनों की रूपरेखा क्या हो , यह प्रा अभियान आयोजकों को बताई जा चुकी है। सामयिक परिस्थितियों के अनुरूप जो भी आवश्यक परिवर्तन होते रहते हैं, उन्हें भी स्पष्ट कर दिया जाता है ।

इन दिनों जो परिस्थितियाँ है, उन्हें देखते हुए यह कार्य संगठित प्रज्ञा परिवारों के जिम्मे सौंपा गया है, क्योंकि उनके पास तीनों ही साधन है।प्रज्ञा परिवार के सदस्य थोड़ा-थोड़ा पैसा परस्पर एकत्रित करके दान वाले भाग को पूरा कर सकते हैं। वार्षिकोत्सव के रूप में प्रज्ञा आयोजन करने के लिए एक-दो हजार रुपये से भी काम चल जाता है। देव स्वभाव के व्यक्तियों का एकत्रित करने के लिए कहीं अन्यत्र जाने की आवश्यकता नहीं हैं शान्तिकुँज की प्रचारक मण्डली इस कार्य के लिए विशेष रूप से प्रशिक्षित की गई है। इस पर केन्द्र का नियन्त्रण है। अनुशासनहीनता पर कड़ी रोकथाम रहने से वानप्रस्थ परिव्राजकों में से गायक व वक्ता इतने निकल आते हैं जिनसे एक छोटा आयोजन भली प्रकार सम्पन्न हो सके। धार्मिक संगठनों में प्रज्ञा परिवार से बढ़कर और कोई संगठन ढूँढ़ा जाना कठिन है। धर्मतन्त्र से लोकशिक्षण उसकी कार्यपद्धति है। यज्ञ आयोजन के साथ देव दक्षिणा की जो प्रक्रिया है, उसमें सामयिक, व्रतशीलता धारण करने और अवांछनीयताएं, अनैतिकताएं, कुरीतियाँ परित्याग करने की व्रत शीलता जोड़ रखी गयी हैं यह पूर्णतया सामयिक है, जो अपनाया और जो छोड़ा जाना चाहिए, इस सन्दी में आवश्यक साहित्य भी छपा है और गायन तथा प्रवचन में वह सब कुछ है। यज्ञ आयोजन के लिए साधन जुटाने से लेकर व्यवस्था−क्रम बनाने तक की एक सुनियोजित कार्यपद्धति, विधि-व्यवस्था बना रखी गयी है, जिसे कार्यान्वित करने में किसी को कही कोई कठिनाई नहीं पड़ती । छोटे यज्ञों में जिन साधनों की आवश्यकता पड़ती है, वे सभी एक गाड़ी में प्रशिक्षित कार्यकर्ताओं के साथ भेज दिये जाते हैं। फोल्डिंग यज्ञशाला, फोल्डिंग स्टेज, लाउडस्पीकर, संगीत उपकरण आदि साधन इकट्ठे नहीं करने पड़ते। अनुभवी कार्यकर्ता सारा जुगाड़ हाथोंहाथ जुटा देते हैं। एक कुण्ड से लेकर पच्चीस कुण्ड तक का यज्ञ और सम्मिलित होने के लिए निमन्त्रण पत्र तक सभी कुछ सुविधापूर्वक उपलब्ध हो जाते हैं। इस प्रकार संगीतकरण, देवपूजन और दान की तीनों ही अभ्यस्त प्रक्रिया कार्यान्वित होने में कोई कठिनाई नहीं पड़ती। वातावरण संशोधन के लिए सार्वजनिक सहयोग से गायत्री महायज्ञ का जो क्रम गत कई वर्षों से चल रहा है, उसे थोड़ा और उत्साह जोड़कर आगे बढ़ दिया जाए तो यज्ञ आन्दोलन को बहुत ही उत्साहवर्द्धक परिणामों में आगे बढ़ाया जा सकता।

संगतिकरण का तात्पर्य है-संगठनात्मक कार्यक्रम। निजी इमारत वाली प्रज्ञापीठें और बिना इमारत वाले स्वाध्याय मण्डल, प्रज्ञा संस्थानों के लिए पाँच सूत्रीय कार्यक्रम निर्धारित है, जहाँ भी यज्ञ हो, वहाँ इन पाँचों को परिपुष्ट बनाया जाना चाहिए। रचनात्मक और सुधारात्मक कार्यक्रम पाँच-पाँचों को परिपुष्ट बनाया जाना चाहिए। रचनात्मक और सुधारात्मक कार्यक्रम पाँच-पाँच निर्धारित किये गये है। आज की परिस्थितियों में इन दयों को कार्यान्वित करने के लिए यज्ञ-आयोजनकर्ताओं को अपने-अपने यहाँ की स्थिति के अनुरूप जो कुछ भी सम्भव हो, उसे करने में कुछ उठा न रखना चाहिए।

बड़े एवं सामूहिक यज्ञ आयोजनों में कई तरह के प्रयत्न करने पड़ते हैं, कई बार इन आयोजनों में अनेक अड़चनें भी सामने आ खड़ी होती है। इनमें हवनकुण्डों की समस्या भी एक है। छोटी जगह में आग के संपर्क से खतरे भी रहते हैं। उनसे बचा जा सकता है। इसके लिए चलते-फिरते कुण्ड बना लेने का एक तरीका है। दूसरा तरीका उसमें भी सुगम है-’दीपयज्ञ-, थल में अगरबत्तियाँ और दीपक जलाने का। यह दोनों ही तरीके वहाँ प्रयोग में लाने चाहिए जहाँ पूर्ण विधि-विधान की, भाग-दौड़ , शोभा-सज्जा, सम्भव न हों सके। आलस्यवश सस्ता तरीका अपनाना ठीक नहीं। विधिवत् सब काम करने सके श्रद्धा और सज्जा दोनों को ही पूर्ति होती है। सभी आवश्यक कर्मकाण्ड बन पड़ते हैं। और उसमें सम्मिलित होने वालों को पूर्ण विधि-विधान सीखने का अवसर मिलता है। इसलिए जहाँ तक सम्भव हो वहाँ कुण्ड बनाने या वेदी बनाने की विधि ही अपनानी चाहिए।

यों तो यज्ञ की पुरातन परिपाटी कुण्ड खोदकर अग्नि स्थापित करने की है। नयी या सरल पद्धति मिट्टी की वेदी बनाने की है। धर्मग्रन्थों में इसका नाम -स्थाण्डिल’ है। कुण्ड विधान के साथ कुण्ड, पूजा, पवित्र जल माँगाने की जल यात्रा आदि के विधान है, पर स्थण्डिल स्थापना के सरल विधान के लिए पृथ्वी पूजन का मंत्र पढ़ लेने से, जल अभिसिंचन से काम चल जाता है । कम आहुतियों के हवन में अग्नि के इधर-उधर फैलने, चिनगारियाँ उड़ने का खतरा नहीं रहता।

बहुत दिनों से ताँबे के कुण्ड का भी प्रचलन है। कोई-कोई लोहे का भी बना लेते हैं। यह एक स्थान से दूसरे स्थान के लिए ले जाने में सरल पड़ते हैं, पर धातुओं का अपना प्रभाव अग्नि प्रज्ज्वलन के साथ वायुमण्डल में फैलता है। ताँबे का प्रभाव तो उतना हानिकारक नहीं हाता, पर लौह मिश्रित अग्नि की ज्वालाएँ हानिकारक प्रभाव निस्सृत करती है।

जहाँ चलते-फिरते हवनकुण्ड को आवश्यकता अनुभव हो, वहाँ उन्हें मिट्टी के बनाकर आग में पका लेना चाहिए। उनमें तीन मंखलाएँ (सीढ़ियाँ) भी सरलतापूर्वक बन सकती है। जिनके हाथ सधे हुए है, वे कुम्हार भी उन्हें मेखला समेत बनाकर पका सकते हैं। साँचा बनाकर सीमेण्ट के भी ढाले जा सकते हैं। इस तरह के चलते-फिरते हवन कुण्डों का यह प्रचलन आसान भी हैं और सस्ता भी। चलते-फिरते हवन कुण्डों का यह तरीका देहातों में विस्तृत रूप से सफल हो सकता है। इस प्रकार के पाँच कुण्ड बनाकर एक ही समय में अधिक लोगों को बिठाकर समय की बचत की जा सकती है। चारों ओर एक-एक होता बिठाकर एक ही पारी में बीस व्यक्ति बिठायें जा सकते हैं। इसमें जमीन के जलने या काले होने का भी डर नहीं रहता। एकिली में एक हवनकुण्ड रख देने से आग से किसी प्रकार का खतरा होने का भी डर नहीं है। समय की बचत तो प्रत्यक्ष रूप से होती है। एक कुण्ड से लेकर एक सौ आठ कुण्ड तक का हवन भी इसी प्रकार हो सकता है। एक महिलाओं के लिए एवं एक पुरुषों के लिए यह कुण्ड रखे जा सकते हैं। यह चलते-फिरते याकुण्ड की विधि वहाँ विशेष रूप से अपनानी चाहिए जहाँ जमीन काली होने या चिनगारियाँ उड़ने का खतरा हो। यह प्रयोग सस्ता भी है और सरल भी। एक बार के बने कुण्ड मुद्दतों तक काम देते रहते हैं। टूट-फूट हो जाय तो नये बन सकते हैं।

उक्त यज्ञ आयोजन विशेष पर्वों, वार्षिकोत्सवों के अतिरिक्त चैत्र और आश्विन की नवरात्रियों में विशेष रूप से किये जाएँ। वसन्त पर्व, गायत्री जयन्ती और गुरुपूर्णिमा के एक-एक दिन के कार्यक्रम भी हर जगह मनाए जाएँ।

उपरोक्त कार्यक्रम ऐसे है जिन्हें करने से दान, देवपूजन और संगतिकरण के कार्यक्रम संक्षेप में सम्पन्न होते हैं।

छोटा किन्तु सुनियोजित -सुव्यवस्थित कार्यक्रम हाथ में लेकर यदि ठीक प्रकार से इसे पूरा करने का प्रयत्न किया जाय तो यज्ञ नाम को सार्थक करने एवं उसके सत्परिणामों को सार्थक करने की आवश्यकता पूरी होती है। यदि इतना भी किया जा सके तो वह कम महत्वपूर्ण नहीं है। इतने भर से इक्कीसवीं सदी उज्ज्वल भविष्य की वह पृष्ठभूमि तैयार हो जाएगी जिसमें मनुष्य में देवत्व का उदय और धरती पर स्वर्ग के अवतरण की कल्पना की गयी है। आगे समयानुसार इसमें और भी अभिवृद्धि की जा सकती है।


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