कामये दुःखतप्तानाम् प्राणिनामर्त्तिनाषनम्

February 1997

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सूखे के आतंक से धरती का सीना जगह-जगह से दरक गया था। हरियाली का नामोनिशान न बचा था। इनसानों के भोजन और जानवरों के चारे की बात तो दूर, अब तो पीने का पानी तलाशने के लिए भी मीलों भटकना पड़ता था। आर्यावर्त का सबसे सुखी और सम्पन्न राज्य, आज दुर्भिक्ष के जबड़ों में फँसकर त्राहि-त्राहि की पुकार कर रहा था। महाराजा रन्तिदेव जनसाधारण की पीड़ा से संतप्त थे। उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि अपनी प्राणप्रिय प्रजा को इस संकट से कैसे उबारें, जिनकी धर्मनिष्ठा, दयालुता, परोपकारवृत्ति एवं शक्ति-समृद्धि की कथाएँ देश-देशान्तर में कही-सुनी जाती थी, आज वही असहाय थे। राजकोष और राज्य का अन्न भण्डार भी अब रिक्त हो चुका था। अब तो अवस्था कुछ ऐसी थी कि राजा और राजपरिवार भी भूख की पीड़ा से विकल हो रहे थे।

भिक्षा माँगना उनके स्वभाव में नहीं था और माँगते तो देता भी कौन? चारों ओर भुखमरी का ताण्डव चल रहा था। राजा रन्तिदेव अपनी महारानी और बच्चे के साथ राजमहल चल पड़ें चुपचाप जन हीन मार्ग पर उनके कदम बढ़ते रहे। वन में कन्द, मूल अथवा फल-पत्ते जाएँ अथवा बिना माँगे कोई दे दे, तो उसी से उन्हें अपनी और अपने परिवार की ज्वाला शान्त करनी थी।

वन में न कन्द था और न मूल, फिर पत्ते तो आते भी कैसे? प्यास से जल रहे गलों को गीला करने के लिए दो बूँदें पानी मिल पाना भी दुर्लभ था। ऐसी अवस्था एक, दो, तीन दिन नहीं पूरे अड़तालीस दिनों तक चलती रही। अल्पवय राजकुमार एवं महारानी के साथ स्वयं राजा रन्तिदेव भी शारीरिक दृष्टि से दुर्बल हो गए थे। उनमें हिलने-डुलने तक की शक्ति शेष न रही। अब तो भगवन्नाम का ही भरोसा था। अब वे तीनों प्रभु का नाम-स्मरण करे हुए जीवन के अन्तिम क्षण की प्रतीक्षा करने लगे।

उनचालिसवें दिन का सूर्योदय हुआ। थोड़ी देर बाद महाराज रन्तिदेव का एक पुराना मित्र आया और सत्कारपूर्वक खीर, मालपुओं के साथ अन्य कई प्रकार के व्यंजनों को उन्हें निवेदित किया। सत्कारपूर्वक खीर, मालपुओं के साथ कई प्रकार के व्यंजनों को उन्हें निवेदित किया। वह अपने साथ एक बड़े पात्र में जल भी लाया था, जिसे उसने पास में रख दिया। तभी एक ब्राह्मण ने आकर कहा-”महाराज! मैं बहुत भूखा हूँ, कुछ भोजन हो तो दीजिए।”

रन्तिदेव को तो जैसे मनोवाँछित वरदान मिला। उन्होंने उस ब्राह्मण को भगवान मानकर आदर के साथ बैठाकर भोजन कराया। ब्राह्मण तृप्त होकर राजा-रानी तथा पुत्र तीनों को आशीर्वाद देता हुआ चला गया। राजा ने शेष भोजन के तीन भाग किए और एक रानी को तथा दूसरा पुत्र को दे दिया। अपना हिस्सा लेकर वे खाने के लिए बैठे ही थे कि एक शुद्र अतिथि आया। राजा रन्तिदेव ने उसे भी भोजन कराया। वह शूद्र भी भोजन करके महाराज का गुणगान करते हुए चला गया। शेष भोजन में महाराज कौर लेकर मुँह में रखने वाले ही थे कि एक चाण्डाल अपने कुत्तों के साथ वहाँ आ पहुँचा तथा कहने लगा-”महाराज हमारी रक्षा करें। मैं और मेरे कुत्ते बहुत दिनों से भूखे हैं। भोजन के बिना अब प्राण निकलने ही वाले हैं।” रन्तिदेव ने उसे अपने भाग का सारा भोजन दे दिया।

उनके पास अब थोड़ा सा जल बचा रह गया। महाराज ने जल का पात्र उठाया ही था कि सुनाई पड़ा - “महाराज। मैं एक अशुभ और नीच श्वपच हूँ। प्यास के मारे मेरे प्राण कण्ठगत हैं। यदि आपने जल नहीं दिया तो मर जाऊँगा। केवल एक-दो चुल्लू भर पानी दीजिएगा।” अपनी बात पूरी करते करते वह प्यास की अधिकता से दूर ही गिर पड़ा था। रन्तिदेव के प्राण भी कण्ठगत ही थे। परन्तु, उन्हें अपने कष्ट का ध्यान नहीं आया। वे उस श्वपच के समीप पहुँचे तथा बोले-”भाई! तुम अच्छी तरह से जल पिया तथा अपने प्राणों की रक्षा करो।”

महाराज रन्तिदेव उसे जल पिलाते हुए अपने मन में एक ही बात बार-बार दुहरा रहे थे, “हे सर्वव्यापी भगवान नारायण! इस जीवन की लालसा से व्याकुल प्राणी के रूप में आप ही मेरे सम्मुख हो। यह जल मैं तुम्हें ही अर्पण कर रहा हूँ। जीने की इच्छा से व्याकुल इस प्राणी के जल देने से मेरी क्षुधा, पिपासा, मानसिक तथा शारीरिक दीनता, खिन्नता विषाद, मूर्छा आदि सब दुःख दूर हो गए।”

महाराज रन्तिदेव ने पात्र का सारा जल उस श्वपच को सत्कार भाव से पिला दिया। उसकी तृषा मिल गयी और वह सन्तुष्ट होकर चला गया। उसके जाते ही वह लड़खड़ा कर वहीं गिरे, परन्तु उन्हें किसी कोमल करो ने सँभाल लिया। शरीर पर कहीं चोट नहीं लगी। वे आश्चर्य से आंखें खोलकर देखने लगे। उन्होंने देखा हँसवाहनारूढ़ चतुर्मुख ब्रह्मा, गरुड़ पर आसीन भगवान श्रीहरि, वृषभ पर विराजमान भगवान महादेव और महिष पर बैठे दण्डधारी यमराज उनके सम्मुख उपस्थित हैं।

“धन्य हैं महाराज आप। ब्राह्मण, शूद्र, चाण्डाल, श्वपच किसी में भी आपकी की भेद-बुद्धि नहीं। सबमें आप अपने इष्ट देव को ही देखते हैं। आपकी सेवा और तप से हम सब देवता प्रसन्न हैं। आप जो चाहो माँग लो।” भगवान श्रीहरि के अधरों पर वात्सल्यसिक्त मुसकान थी।

भाव-विभोर रन्तिदेव की आँखों में प्रभु की बात सुनकर भावबिंदु छलक उठे। वह गदगद कण्ठ से कहने लगे-

न त्वहु कामये राज्यं न र्स्वगं नापुनर्भवमफ। कामयै दुःखतासनाँ प्राणिनामार्त्तिनाशनम्॥

“हे जगत के स्वामी ! हे परमेश्वर! मैं अपनी सद्गति, अष्टसिद्धि अथवा मोक्ष नहीं चाहता। मुझे सब प्राणियों के हृदय में निवास करके उनके सब दुःख भोगने की सुविधा दो, जिससे सब प्राणी दुःखहीन हो जाएँ।”

“ऐसा ही होगा, राजन” भगवान अपने भक्त की परदुःख कातरता से विगलित होकर कह रहे थे- “तुम्हारे जीवन का स्मरण मनुष्यों में यह बोध पैदा करेगा कि जीवन के मर्म अपने दुःखों में चीखना-बिलखना नहीं, बल्कि अन्य दुःखीजनों की पीड़ा निवारण में जुट पड़ना है। जिनमें भी ऐसा विवेक जगेगा वे तुम्हारे तप और त्याग के प्रभाव से स्वतः दुःख मुक्त हो जाएँगे।


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