सत्य का अवलम्बन ही वरेण्य

February 1997

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सत्य के सम्बन्ध में प्रायः यह कहा जाता है कि वह धर्म- अध्यात्म का विषय है। लोकव्यवहार से उसका कोई लेना देना नहीं। भौतिक जगत में तो सर्वत्र असत्य का ही बोलबाला है। सत्य की पूछ कहाँ होती ? यहाँ ईमानदारी औंधे मुँह गिरती और अपनी मौत मरती है, जबकि बेईमानी फूलती-फलती और विस्तार पाती है।

प्रथम दृष्टि में यह तर्क वास्तविक प्रतीत हो सकते हैं पर तनिक गहराई में उतरकर विचार करने पर उनकी .............स्पष्ट झलकने लगती है। यह ............ कि इन दिनों पग-पग पर छल-छल का सहारा लिया जाता है और कदम-कदम पर ऐसे कार्य किये जाते हैं, जिन्हें ......................ही कहना पड़ेगा। इतने पर भी यह कहना गलत न होगा कि सत्य की वैशाखियों के बिना इनकी गति नहीं, भले ही वह नकली ही सत्य क्यों न हो, पर आज की प्रपंचपूर्ण दुनिया में इनका अवलम्बन एक लौकिक व्यक्ति को भी उतना ही अनिवार्य महसूस होता है, जितना कि किसी सत्यान्वेषी को यह एक कटु सच्चाई है कि एक फरेबी भी अपना सौदा सत्य और तथ्य के आधार पर ही तय करता है, भले ही उसका निजी जीवन झूठ वादों से भरपूर हो। जब तक उसे यह भरोसा न हो जाय कि जो कुछ कहा या किया जा रहा है, वह शत-प्रतिशत सच है, तब तक वह उस पर विचार करने के लिए बाध्य नहीं होता। ऐसे में कैसे कहा जा सकता है कि व्यवहारिक जीवन में सत्य का महत्व न्यून और नगण्य जितना है? यथार्थता तो यह है कि आज क्षण-क्षण में हम झूठे-सच का जितना आश्रय लेते हैं उसे अभूतपूर्व ही कहना चाहिए। कदाचित् इसी का देखते हुए गोस्वामी तुलसीदास को यह लिखने के लिए मजबूर होना पड़ा- ‘झूठे लेना, झूठे देना, झूठे भोजन, झूठ चबेना’! यह आज की स्थिति का वास्तविक चित्रण है, किन्तु इस बात को भी दरगुजर नहीं किया जाना चाहिए कि इस झूठे सच ने व्यक्ति और समाज को जितनी दुष्टता और भ्रष्टता की ओर धकेला है, उतना वस्तुस्थिति को वास्तविक रूप में बता देने और स्वीकार लेने में सम्भवतः नहीं होता। अतः यह कहने में हर्ज नहीं कि यथार्थ सच्चाई अनेकों गुना खतरनाक और हानिकारक है। इसे यदि त्याग दिया जाय, तो समाज से न सिर्फ अवाँछनीयताएँ और अनैतिकताएँ घटेंगी, वरन् छोटा-बड़ा अमीर-गरीब जैसी कितनी ही विसंगतियों का सफाया हो जायेगा। नकली सब की छत्रछाया में इन्हें पलने-बढ़ने का अच्छा अवसर मिल जाता है। यह व्यवहार विकृति न हो, तो शायद असल की नकल के धोखे में आकर ठगने-ठगाने को मौका भी न रहे। यह भी इसी बात को सिद्ध करता है कि लौकिक जीवन में सत्य से बिल्कुल पल्ला छुड़ाकर नहीं जिया जा सकता। यह बात और है कि वहाँ उसका उद्देश्य ओछे स्तर की स्वार्थ सिद्धि होता है।

यंत्र-उपकरण बनाने वाली कम्पनियाँ अपने-अपने सामान को सर्वश्रेष्ठ स्तर का घोषित करती है। और उनके गुणों और विशेषताओं के संदर्भ में ऐसे इतने लुभावने विज्ञापन को विस्तार बाँधना पड़े, पर कसौटी में कसने पर यह विशेषताएँ कितनी खरी उतरती हैं, यह कहने की आवश्यकता नहीं। खोटे सिक्के और खोटे माल बनते और चलते रहते हैं। देखने में वे कितने असली प्रतीत होते हैं, पर फिर भी उनका खोटापन प्रकट हो ही जाता है। भला हीरे का मुकाबला काँच कैसे करे? स्वर्ण के आगे रोल्डगोल्ड की क्या औकात? कहाँ राजा भोज कहाँ गंगू तेली। जहाँ इस विशाल अन्तर को पाटने का प्रयास किया गया हो, वहाँ निर्माण-कौशल और निर्माता की प्रशंसा ही करती होगी, जो पहली दृष्टि में खोटे के खरे होने का भ्रम पैदा करते हैं। कितनी ही लोग इसी भ्रान्ति में पड़कर आये दिन छले जाते हैं। वास्तव में झूठ को चलाने के लिए सत्य की प्रतीत खड़ी करनी पड़ती है, तब जाकर बात बनती है। बिजूके की भूमिका से कौन परिचित नहीं है? सभी जानते हैं कि कृषक लोग पशु-पक्षियों को धोखा देने और प्रहरी की उपस्थिति का झूठा एहसास करने के लिए निर्जीव और नकली रखवाले बनाकर खड़े करते हैं। कुर्ता , पाजामा , टोपी पहनाकर उन्हें असली छवि प्रदान करते हैं। पक्षियों को इससे यथार्थ रखवाले को भ्रम पैदा होता है और वे उससे दूर-दूर बने रहते हैं। यह भी इस बात को प्रमाणित करता है कि सत्य में अप्रतिम शक्ति है, भले ही खोटा होने के कारण उसका प्रभाव सामाजिक ही क्यों न हो, पर मनीषी इस तथ्य से सहमत हैं कि वह शक्तिवाला है और प्रभावित क्षमता है उसके विपरीत असत्य की शक्ति की पोल उस समय खुलती है जब उसकी वास्तविकता का पता सर्वसाधारण का लगता है, तब कैसी घोर जुगुप्सा उसके प्रति उत्पन्न होती है, यह भी सर्वविदित है।

मिलावटखोर अपनी वस्तुओं की शुद्धता के बारे में ऐसी-ऐसी कसमें खाते हैं, जैसे कलियुग में कोई सतयुगी सत्यानुरागी पैदा हो गया हो और असत्य जिसे स्पर्श तक न कर सका है। इसी आधार पर वे अपने माल खपाते और बाजार बनाते हैं। जब तक मिथ्या छुपी रहती, तब तक वे खूब पैसा कमाते हैं। असलियत के उजागर होते ही, दूसरे नाम और दूसरे लेबल से उन्हें पुनः बेचने लगते। इस बार भी एक से एक बढ़कर दवे , पड़ताल की घड़ी आते ही सब झूठ साबित होते हैं।

आध्यात्मिक सिद्धान्तों के प्रबल पक्षधर धर्मतंत्र के दावे भी अब सत्य और तथ्य पर कहाँ पक्के उतरते हैं? अधिकाँश मामलों में उसका आचरण दोहरे व्यक्तित्व का सा होता है। सामने उच्चादर्शों की बाते पीछे व्यक्तित्व का खोखलापन, पर इस आकर्षक मुखौटे के कारण धर्म अध्यात्म के प्रति अब भी लोगों का कुछ आकर्षण बना हुआ है। सही रास्ता सुझाने और उपयुक्त मार्ग में ले चलने वाले तो इक्के दुक्के संस्थान होते हैं, शेष तो दिग्भ्रम पैदा करते हैं। इसके बावजूद धर्म और धार्मिकता अब भी जीवित है। कारण एक ही सत्य का स्वाँग।

कहते हैं कि शासन-सत्ता अथवा राजनीति झूठ का सहारा लिये बिना चलती नहीं, पर इसमें सच्चाई का अल्पाँश भी नहीं है। यदि राजनीति के तत्वार्थ पर विचार किया जाय, तो हम पायेंगे कि राजसत्ता (अथवा शासनसत्ता) के संचालन के निमित्त जो नीति निर्धारित होती है, वास्तव में वही ‘राजनीति’ है । इसमें अनीति, कूटनीति जैसे शब्दों का लेशमात्र भी भाव नहीं। अतः यह कहना गलत होगा कि अन्याय का अवलम्ब लिये बिना कोई राजनेता नहीं बन सकता। यथार्थ में आज राजनीति जिस कदर पतित और भ्रष्ट हुई है कि जब कभी इसकी चर्चा होती है, तो ध्यान इसके शब्दार्थ की ओर न जाकर अनायास भावार्थ की ओर खिंच जाता है। वर्तमान में यह बुराई की पर्याय बनी हुई है। इसलिए शासनतंत्र से पृथक अन्य क्षेत्रों में भी लोग दूसरों के दाँव-पेंच भरे व्यवहार को इंगित करने के लिए उक्त शब्द का बहुतायत से प्रयोग करते हैं। राजनीति यदि वस्तुतः यही है, तो अब इसका उपनयन संस्कार होना ही चाहिए और अर्थबोध कराते हुए यह दीक्षा दी जानी चाहिए कि गरिमा के अनुरूप व्यवहार हो अन्यथा हेय अवस्था में पड़ी रहकर राजनेताओं को और ही न बनायेगी तथा राष्ट्र को घोर विपत्ति में धकेल कर जनता का अपार अहित करेगी। यों नीति का अर्थ सत्य, धर्म, सदाचार है। इस दृष्टि से राजनीति वह हुई जिसमें इन सभी तत्वों का समावेश हो। यही वह स्थिति है जिसमें वह अपने सम्पूर्ण भाव को प्रकट करती है। इस रीति से विचार करने पर यही विदित होगा कि राजनीति भी प्रकारान्तर से हमें सत्याचरण की ही प्रेरणा देती है। इसमें अन्याय को अपनाने अथवा अनीति को आश्रय देने जैसी कोई बात नहीं।

जो सत्य आचरण को केवल अन्तःकरण के लिए आवश्यक बताते हैं वह वस्तुतः हमें दिग्भ्रान्त करते हैं जो यह कहते हैं कि ध्यान ही सत्य है और इसी के द्वारा सत्य के आलोक तक पहुँचा जा सकता है, वह भी एक प्रकार का छलावा है। सच तो यह है कि वाह्य जीवन में शीलवान हुए बिना न ध्यान जमाया जा सकता है।, न अंतर्जगत में प्रवेश किया जा सकता है। यह सूत्र एकदम गलत है कि सत्य का परिपालन अंतर्जगत विषय है, बाहरी दुनिया में इसकी कोई जरूरत नहीं। जब बाहर काक द्वार ही बन्द हो , तो अन्दर प्रवेश पाना किस प्रकार सम्भव होगा? मनुष्य का व्यावहारिक जीवन ही यदि मलिन ओर विकृत रहे तो भला यह आशा कैसे की जा सकती है कि अन्तःकरण पवित्र होगा और ध्यान प्रखर। प्रवेश द्वारा बाहर से भीतर की ओर खुलता है, बाहर बन्द रहने पर अन्दर जाने का मार्ग भी अवरुद्ध ही बना रहेगा। जो व्यवहार को गन्दा रख कर अन्तराल को निर्मल बनाने की बात सोचते हैं उन्हें नादान ही , नासमझ भी कहना पड़ेगा, कारण कि मानवी सत्ता एक सम्पूर्ण इकाई है, वह अन्दर-बाहर अलग-अलग नहीं हो सकती।

काँटे से काँटा निकालने का सिद्धान्त प्रसिद्ध है? लोहा काटना हो तो लोहा चाहिए। विष का इलाज

विष से करना पड़ता है। दीपक को दीपक जलाने में समर्थ है। इसी प्रकार सत्य की प्राप्ति सत्य से ही हो सकती हैं। असत्य आचरण तो इससे कोसों दूर ले जाता है अतः यह कहना ठीक ही है कि सत्य की जितनी आवश्यकता आत्मोन्नति के लिए है, उससे तनिक भी कम वाह्य व्यापार और लोकव्यवहार पर आदृत है। यदि वस्तुस्थिति यही होती तो ईमानदारों की पूजा कहीं ओर कभी नहीं होती, उसे पुरस्कृत नहीं किया जाता, सर्वत्र उसकी अवमानना होती। छल-बल से बेईमान जीत भले जाएँ पर गहराई में उतरकर इस बात की छानबीन की जाय कि सही अर्थों में कौन जीत? कौन हारा तो ज्ञात होगा कि हारे हुए सत्य में वह गर्व , गौरव और संतोष होता है, जिसे असत्य जीत कर भी प्राप्त नहीं कर सकता। उसकी अन्तरात्मा उसे धिक्कारती है। महाभारत युद्ध के दौरान जब कर्ण का अन्यायपूर्ण वध हुआ, तो कहने को तो पांडवों की जीत सुनिश्चित हो गई पर उस तथाकथित विजय पर भगवान का मन कितना उदास था उसे युधिष्ठिर को कहे गये भगवान के इस कथन से स्पष्ट जाना जा सकता है-

उदासी से भरे भगवान बोले-

न भूलें आप केवल जीत को लें, नहीं पुरुषार्थ केवल जीत में हैं, विभा का सार शील पुनीत में हैं। -रश्मिरथी

बाबा भारती और खड्ग सिंह की कहानी भी इसी को उजागर करती है कि अनैतिक की कहीं गति नहीं उसकी सर्वत्र पराजय होती है। यदि दैनिक जीवन में सत्य का मिथ्या आवरण न चढ़ाया जाय, तो भला कौन किसको प्रवंचना में डाल सकेगा? सत्य का सब्जबाग ही व्यक्ति का कुचक्र में फँसाता है। यही असत्य की नैतिक हार हुई। इस दृष्टि से विचार करने पर इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ेगा और यही कहना पड़ेगा कि “सत्यमेव जयतिनानृतं” सत्य की ही जय होती है, असत्य की नहीं। मुंडकोपनिषद् के ऋषि सिर्फ इतना ही कहकर नहीं रुक गये, वह आगे भी कहते है-

सत्येन पन्था वितो देवयानः। येनाक्रमनतयृषये ह्मपप्तकामा, यत्र तत्सत्यस्यंभरमं निधानम्

अर्थात् जिस मार्ग से आप्तकाम ऋषिगण जाते है। और जहाँ उस सत्य का परम निधान है ऐसा देवों के द्वारा ही खुलता है स्पष्ट है, सत्य पथ के बिना मनुष्य की कोई गति नहीं।

यहाँ यह कहना समीचीन न होगा कि सांसारिक दायित्वों के परिपालन में हम असत्य ही असत्य का सहारा लेते हैं आश्रय तो सत्य की ही लेते हैं, अन्तर सिर्फ इतना है कि वह मिथ्या के लिए और मिथ्या की नींव पर खड़ा होता है। हम कुछ साहस करें पराक्रम दिखाये, छलाँग लगाये तो अगले चरण में वह भी शक्य हो सकता है, जिसमें सत्य का अवलम्बन केवल सत्य के लिए हो, मिथ्या के लिए नहीं यही प्रयोज्य है, यही लक्ष्य है, यही उद्देश्य है और इसी में मनुष्य जन्म की सार्थकता भी।

राम्या जैसे अन्वेषकों ने इस क्षेत्र में समर्थ सिद्ध पुरुषों का अस्तित्व पाया है। दो सौ साल से अधिक समय तक जीवित रहने वाले स्वामी कृष्णाश्रम जी महाराज के ऐसे अनेक संस्मरणों को लेखन यशपाल जैन तथा अन्य जिज्ञासुओं ने किया है, जिनसे उस क्षेत्र की दिव्य रहस्यमयता उजागर होती है। महामना मदनमोहन मालवीय स्वयं कृष्णाश्रम जी के भक्त थे ओर उनके भक्ति पूर्ण आग्रह से विवश होकर ही उन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की आधारशिला रखी थी। स्वामीजी नग्न अवधूत की तरह हिमप्रदेश में निवास करते थे।

हिमालय में जितने छोटे-बड़े तीर्थ स्थान है, उतने अन्यत्र मिलने कठिन है। हरिद्वार इस देवभूमि का द्वार है। यहाँ से आगे बढ़ते ही ऋषिकेश से बद्रीनाथ जाने के रास्ते में देवप्रयाग, नन्दप्रयाग कर्णप्रयाग, रुद्रप्रयाग आदि कितने ही प्रयाग तथा उत्तरकाशी, गुप्तकाशी, दिव्यकाशी आदि कितने ही तीर्थ मिलते हैं। इनकी प्रख्याति भले अमरनाथ, ज्वालामुखी, बद्रीनाथ, गंगोत्री जितनी न हो पर दिव्यता को कोई अनुभवी समझ सकता है। ऐसे अनेक छोटे-छोटे तीर्थों की शृंखला यहाँ बिखरी पड़ी है। जिसका सान्निध्य व्यक्ति के अधोमुखी मन को सहज ऊर्ध्वमुख बना देता है। शिव और शक्ति के विभिन्न रूपों के देवस्थान थोड़ी दूर पर गाँवों के समीप एवं पर्वतीय घाटियों में सर्वत्र पाए जाते हैं। सती के आत्मविसर्जन का, पार्वती की साधना का यही स्थान है। शिव ताण्डव भी यहीं हुआ था। उसी अवसर पर उपयोग में लाया गया त्रिशूल उत्तरकाशी के एक प्राचीन स्थान में स्थापित बताया जाता है। जमदग्नि और परशुराम की तप-साधना उत्तरकाशी में ही सम्पन्न हुई थी।

ज्ञान-विज्ञान के अनेकों अनुसंधान इसी देवभूमि के दिव्य अंचल में सम्पन्न होते रहें हैं। रसायन विद्या, आयुर्वेद विचारो की खोज योग विज्ञान के महत्वपूर्ण प्रयोग यहीं की उपज है। सप्तऋषियों की महामनीषी देवमानवों का कार्यक्षेत्र यही भूमि रही है। प्राचीन भारत के स्वर्णिम भाग्य का निर्माण करने वाले गुरुकुल एवं आरण्यकों की परम्परा ने यहीं से जन्म पाया था। राजतन्त्रों के सूत्र संचालक महर्षि वशिष्ठ जैसे धर्माध्यक्षों की तपस्थली यही थी। महाभारत जैसे विश्वकोष स्तर के ग्रन्थ की रचना महर्षि व्यास ने बद्रीनाथ के पास व्यास गुफा में ही बैठकर की थी। लगभग सभी महत्वपूर्ण ऋषिकल्प देवात्माओं की तरह-तरह की गतिविधियाँ हिमालय की सुरम्य घाटियों एवं कन्दराओं में सुविकसित होती रही हैं। उन्हीं प्रयागों से लाभान्वित होकर भारतवर्ष के 33 करोड़ नागरिक कोटि देवता कहलाए। भौतिक एवं आत्मिक प्रगति की उच्चस्तरीय विभूतियों से भरी-पूरी होने के कारण भारतभूमि स्वर्गादपि गरीयसी कहलाती रही है। इसकी स्वर्गीय परिस्थितियाँ एवं विभूतियाँ सभी के आकर्षण का केन्द्र बनीं थी। इसे यह वरदान हिमालय ही देता रहा है। जलधारा वाली भागीरथी ही नहीं देवलोक की ज्ञानगंगा का अवतरण एवं प्रवाह भी इसी क्षेत्र से आरम्भ होता रहा है।

बात स्वर्ग की चली, तो इतिहासकार एवं भूगोलवेत्ता दोनों ही इस दृष्टि से एक मत हैं कि प्राचीन समय का स्वर्ग कोई ऐसा स्थान होना चाहिए, जहाँ लोगों का आना जाना बिना किसी खास कठिनाई के होता रहता हो। जहाँ भौतिक समृद्धि एवं आत्मिक विभूतियों की प्रचुरता हो। पौराणिक साहित्य में दशरथ, नारद, नहुष आदि के ऐसे अनगिनत कथानक हैं जिनमें स्वर्ग जाना और वापस आना कुछ उसी तरह बताया है जैसे हम लोग सामान्य स्थानों पर बिना किसी खास कठिनाई के चले जाते हैं। पाण्डवों के स्वर्गारोहण की तुक इसी प्रकार बैठती है कि वे जिन्दगी के अन्तिम समय में उसी शान्तिमय क्षेत्र में रहने के लिए चले आए थे। पाण्डवों ने अन्त समय स्वर्ग के जिए जहाँ से प्रयाण किया था, वह स्वर्गारोहण पर्वत अभी भी वसोधारा पठार के आगे विराजमान है। यह स्वर्ग क्षेत्र उस प्रदेश में था जिसे बद्रीनाथ और गंगोत्री का मध्यवर्ती भाग कह सकते हैं यह हिमालय का हृदय है।

दिव्यदर्शी, समाधिलीन योगियों का मत है कि ब्रह्माण्ड की सघन अध्यात्म चेतना का धरती पर विशिष्ट अवतरण इसी क्षेत्र में होता है। भौतिक शक्तियों के धरती पर अवतरण का केंद्रबिंदु विज्ञानवेत्ता ध्रुव प्रदेश को मानते हैं। अध्यात्मवेत्ताओं की वैसी ही मान्यता इस हिमालय के हृदय के सम्बन्ध में है। यह स्वर्ग क्षेत्र ब्रह्माण्डव्यापी दिव्य चेतनाओं का अवतरण केन्द्र है। जहाँ शोध करते हुए, तप करते हुए महामनीषी अपने देवशक्तियों से सुसज्जित करते हैं। अभी भी उस क्षेत्र में स्थूल और सूक्ष्म शरीरधारी दिव्य सत्ताओं के आस्तित्व पाये जाते हैं। वे अपने क्रियाकलाप से समस्त भूमण्डल को प्रभावित करते हैं।

देवराज इन्द्र की सहायता के लिए महाराज दशरथ अपना रथ लेकर गए थे। पहिया गड़बड़ाने लगा तो महारानी कैकेयी ने उस विपत्ति का समाधान अपने का जोखिम में डालकर किया था। कुछ इसी तरह का आख्यान अर्जुन के बारे में है। जब वे इन्द्र के यहाँ गए थे, तो उर्वशी ने उन्हें सम्मोहित करने की कोशिश की थी, जिसे उन्होंने अस्वीकार कर दिया था। जहाँ मनुष्य आ जा सके, वह स्थान धरती पर ही सम्भव है। चन्द्रमा और इन्द्र का मिलजुल कर ऋषि गौतम की पत्नी अहिल्या से छल करना धरती पर ही सम्भव है। दधीचि का देवताओं को अस्थिदान आदि अनेकों पौराणिक आख्यान ऐसे हैं जिसमें देवों और मनुष्यों के सघन सहयोग की चर्चा है। इन पर विवेकपूर्ण ढंग से सोचें तो इसी नतीजे पर पहुंचेंगे कि स्वर्ग कहीं इस धरती का कोई भूभाग है और देवता मनुष्यों का ही कोई वर्ग विशेष। इसका समाधान उत्तराखण्ड को ही देवभूमि स्वर्ग मान लेने से हो सकता है। इस क्षेत्र में अभी भी भ्रमण करके ऐसे अनेकानेक प्रमाण उठाए जा सकते हैं जिनके आधार पर पौराणिक स्वर्ग की संगति इस प्रदेश के साथ बिठाई जा सके।

देवार्चन हर मनुष्य का अनिवार्य कर्तव्य था। गीता में भी यज्ञ से देवों की पुष्टि की बात कही गयी है। इसे सर्वसाधारण द्वारा देव प्रयोजनों के लिए विविध-विधि अनुदान प्रस्तुत करना समझा जाना चाहिए। यज्ञ का सीधा मतलब अर्थदान एवं त्याग बलिदान है। देव प्रयोजनों के लिए श्रम, समय, मन, धन आदि से सहयोग करते रहना है। यज्ञ से पूजित देवता मनुष्यों पर सुख-शान्ति बरसाते हैं और यज्ञ न करने वाले विपत्ति में फँसते हैं। गीताकार का यह कथन जन सामान्य देववर्ग को, देवकर्म को समुचित सहयोग प्रदान करते रहने की अनिवार्य आवश्यकता का उद्बोधन कराता है। यह देवगण और कोई नहीं उस समय स्वर्ग क्षेत्र में निवास करने वाले, धर्म प्रेरणाओं एवं भावात्मक परिष्कार के अनगिनत आधारों का निर्माण करने वाले तपस्वीगण ही थे। समस्त विश्व में स्वर्गीय परिस्थितियों का निर्माण करने के लिए उनका महाप्रयास जनसाधारण को देवार्चन एवं देवपूजन के लिए अनायास प्रेरित करता था।

स्वर्गीय विभूति कहे जाने वाले कैलाश और मानसरोवर भारतीय हिमालय क्षेत्र में तब भी थे और आज भी है। कैलाशवासी भगवान शंकर कि सिरे से गंगा प्रवाहित होती है, इसकी संगति तिब्बत के कैलाश से मेल नहीं खाती। क्योंकि वहाँ गंगा का गोमुख तक आना भौगोलिक स्थिति के कारण किसी भी तरह सम्भव नहीं है। गंगोत्री से जेलूखागा घाटी होते हुए कैलाश की दूरी लगभग 300 मील है। फिर बीच में कई आड़े पहाड़ आए हैं, जिसकी वजह से कोई जलधारा या हिमधारा वहाँ तक नहीं पहुँच सकती । असली शिवलोक इस धरती के स्वर्ग में ही हो सकता है। शिवलिंग पर्वत के समीप ही गंगा ग्लेशियर है। स्वर्ग गंगा उसी जगह है। गौरी सरोवर की मौजूदगी भी वहीं है। इस तरह गंगा धारण करने वाले महादेव शिव का कैलाश यह हिमालय का हृदय ही हो सकता है। यदि प्राचीन कैलाश यहाँ न रहा होता तो भगीरथ यहाँ तपस्या करने की बजाए शायद तिब्बत चले जाते। इस पुण्यभूमि में शिवलिंग, केदार शिखर और नीलकण्ठ शिखर तीनों ही भगवान शिव के निवास हैं। मानसरोवर की उपस्थिति भी इस देवभूमि में स्वाभाविक है। सुरालय, हिमधारा, सत्पथ हिमधारा तथा वरुण वन नामों से इस क्षेत्र का देवभूमि होना प्रमाणित होता है। अष्ट वसुओं ने जो जगह अपने निवास के लिए चुनी वह वसुधारा भी अलकापुरी के पास ही है। इन सब तथ्यों पर विचार करने से वास्तविक कैलाश एवं मानसरोवर की उपस्थिति इसी प्रदेश में सिद्ध होती है।

इन दिनों तिब्बत वाला कैलाश चीन के प्रतिबन्धों के कारण यात्रा की दृष्टि से सुविधाजनक नहीं है। सरकार जिस यात्रा का प्रबन्ध करती भी है, उसका व्यय भार उठाना औसत नागरिक के बूते की बात नहीं। फिर वहाँ न अपनी भाषा है, न संस्कृति। वहाँ पहुँचकर विदेश जैसा अनुभव होता है। सम्भव है जब कभी भारतीय संस्कृति वहाँ रही हो वह स्थान भी उपयुक्त तीर्थ रहा होगा। पर शिव का वास्तविक निवास, गंगा का असली उद्गम और सच्चे मानसरोवर का दर्शन करना हो तो हमें हिमालय के इसी हृदय क्षेत्र में खोज करनी पड़ेगी। सत्यान्वेषी जिज्ञासु चाहें तो तिब्बत वाले कैलाश और इस हिमालय के हृदय वाले कैलाश यात्रा करके स्वयं निर्णय कर सकते हैं उन्हें स्वयं अनुभव होगा कि यह स्थान कितने दिव्य वातावरण से परिपूर्ण है। तथ्य तो यही है कि असली कैलाश एवं मानसरोवर इसी क्षेत्र में है। वहाँ किसी विदेशी ताकत की छाया भी नहीं पड़ सकती।

हिमालय की यही स्वर्गभूमि भारतीय संस्कृति की उदय भूमि रही है। इस सत्य की स्वीकारोक्ति श्री साहनी ने ‘मैन इन हिस्ट्री ऑफ वर्ल्ड’ में की थी। इतिहासकार भी अब मानने लगे हैं कि आर्यों का आदि निवास हिमालय में ही था। स्वर्गलोक का जो विवरण पुराणों में मिलता है वह प्रायः कवित्वपूर्ण होने के कारण जहाँ एक ओर उदात्त दृष्टिकोण लिए हैं, वही उत्कृष्ट भाव अभिव्यंजना सजाए है। यह शैली उपयुक्त भी है। लेकिन इसके आधार पर यदि उसका भौगोलिक स्वरूप ढूँढ़ना हो और सौंदर्य पूर्ण वातावरण तलाशना हो तो वह किसी अन्य ग्रह में नहीं बल्कि इसी हिमालय में परिलक्षित होता है।

महाभारत में एक कथा आती है कि अर्जुन द्रौपदी से आग्रह करते हैं कि वह कोई उपहार माँग ले। उत्तर में संकोचपूर्ण स्वर में द्रौपदी कहती है कि मेरे लिए नन्दन वन के पारिपाज पुष्प ला दें, जो जल में नहीं पत्थरों में खिलते हैं। जिनका सौंदर्य स्वर्गीय दिव्यता की अनुभूति करा देता है। कथा के अनुसार अर्जुन, हिमालय पहुँच कर नन्दन वन गए। उन्हें वहाँ के रक्षकों से युद्ध करना पड़ा ओर वहाँ से एक पारिजात पुष्प द्रौपदी के लिए ले आए।

यह नन्दन वन हिमालय क्षेत्र के पुष्पोद्यान का नाम है। यह स्थान गोमुख के आगे तपोवन पार करने पर मिलता है। शिवलिंग पर्वत के पास ही यह क्षेत्र फैला है। यहाँ वर्षा ऋतु के बाद ही बसन्त छा जाता है और सारा फूलों के गलीचे की तरह अपरिमित सुषमा से भर जाता है। ऐसा ही एक बगीचा यातायात के दृष्टि से सुलभ स्थान पर भी है। यह फूलों की घाटी के नाम से मशहूर है। समुद्र तल से 13200 फीट की ऊँचाई पर अवस्थित वह उद्यान विश्वविख्यात है। दस-पन्द्रह मील के इस इलाके में प्राकृतिक रूप से उगने वाले हजारों प्रकार के चित्र-विचित्र पुष्प अनायास ही खिलते हैं। संसार में ऐसा सुंदर और अद्भुत क्षेत्र अन्यत्र कहीं नहीं है। इसे देखने के लिए हर साल हजारों-हजार देशी-विदेशी पर्यटक हर साल पहुँचते हैं।

प्रकृति की इस अनुपम छटा के बारे में विशेषज्ञों का अनुमान है कि यह उत्पादन प्रकृति का नहीं, विचारशील व्यक्तियों द्वारा अतीत में किया गया शुभारम्भ है। यह पौधे सुनियोजित ढंग से विकसित किये गए हैं। सम्भव है यहाँ कोई महर्षि का तपोवन अथवा फिर कोई राजोद्यान रहा हो एवं भूगर्भ वैज्ञानिकों को इस पूरे क्षेत्र में यज्ञों के उपकरण, बहुमूल्य धातुपात्र, आभूषण अस्त्र आदि भी मिल हैं। जिनसे स्पष्ट होता है इस क्षेत्र में कभी सुसभ्य लोग रहते थे।

जोशीमठ ही नहीं अब बद्रीनाथ तक पक्की सड़क बन गयी है। जोशीमठ से बद्रीनाथ जाने वाली सड़क पर बीच में गोविन्द घाट उतरना पड़ता है, वहाँ से 7 मील पैदल चलकर घाघरिया एक स्थान है। यहाँ से फूलों की घाटी तक एक घण्टे को रास्ता है। कामेट झरना यहाँ का बहुत बड़ा दर्शनीय स्थल हैं यहीं पास के क्यूड़ गाँव से फूलों की घाटी की शुरुआत हो जाती है। जो दस-पन्द्रह मील के बड़े दायरे में फैली हुई है। घाटी की दाहिनी ओर ‘कुबेर भण्डार’ पर्वत है। लोक मान्यता है कि यहीं कहीं देवलोक के कोषाध्यक्ष कुबेर की प्रचुर सम्पदा अभी भी दबी पड़ी है।

गंगा ग्लेशियर से आगे गहन हिमधारा व वरुण वन है। कहते हैं यह पूरा क्षेत्र वरुण देवता का कार्यक्षेत्र रहा है। यहाँ से सुमेरु पर्वत को भली प्रकार देखा जा सकता है। सुबह-शाम के सूर्योदय और सूर्यास्त में इसकी स्वर्णिम आभा इसे सचमुच के स्वर्ण शिखर का रूप देती है। स्वर्णिम सूर्य रश्मियाँ बर्फ से ढकी चोटियों पर जब प्रतिबिम्बित होती है, तब यह पर्व ऐसा लगता है माना सोने का बना हो। पुराणों से इसी सुमेरु को देवताओं का निवास और स्वर्ण विनिर्मित बताया गया है यह उपमा प्रातः और सायंकालीन सुमेरु को देखकर अभी भी चरितार्थ होती है। स्वर्ग में सुमेरु होने की पौराणिक मान्यता से इसी क्षेत्र का स्वर्ग होना सिद्ध होता है।

हिमप्रदेश में इन्द्रधनुषों की बाढ़ सी रहती है। झरनों में, उड़ती फुहारों में बादलों में घाटियों में नमी के कारण उन पर प्रतिबिम्बित होने वाली सूर्य किरणें चित्र-विचित्र रंग के इन्द्रधनुष बनाती हैं। लगता है देवों के ये सप्तवर्ण आयुध इस क्षेत्र में अपना और अपनी अधिपति देव सत्ताओं का आस्तित्व इस क्षेत्र में होने का प्रमाण देते हैं।

हिमालय प्रकृति-शोभी, वन, सम्पदा, बलिष्ठ-जलवायु एवं आध्यात्मिक वातावरण का ही धनी नहीं है, यहाँ प्राचीनकाल में सुविकसित राजसत्ताएँ भी पनपी हैं। पुरातनकाल में इस क्षेत्र के राजा इन्द्र की पदवी धारण करते थे। मध्यकाल में भी महाभारत के अनुसार द्विगर्त ,विगर्त राज्य यहीं के थे। काश्मीर, नेपाल, गढ़वाल, हिमाचल जैसे प्रान्त एवं देश हिमालय की ही सीमा के अंतर्गत है। क्षेत्रफल की दृष्टि से यह भूमि समूचे भारत की एक चौथाई हिस्सा है। पंजाब एवं उत्तर प्रदेश के एक बड़े भाग को हिमालय की छाया में रहने का सौभाग्य प्राप्त है।

हिमालय की आत्मा आर्ष साहित्य में ऋषिगणों के माध्यम से मुखरित हुई है। प्रायः सभी पुराणों में इसकी महिमा का गान है। मेघदूत, हर्ष चरित, कुमार सम्भव आदि अनगिनत संस्कृत काव्यों में इसके सौंदर्य की छटा घटनाएँ ही प्राचीन भारतीय साहित्य का आधार है। हिमालय का अनुदान-अवतरण ही उत्तरी पूर्वी एवं पश्चिमी भारत को जल दान देता है। पंजाब-सिन्ध के लिए पंचनद। असम से लेकर वर्मा के लिए ब्रह्मपुत्र। उत्तर प्रदेश, विहार, बंगाल के लिए गंगा यमुना, सरयू आदि सभी हिमालय की देन हैं। बादल बरसते हैं यह ठीक है, पर वस्तुतः निरन्तर हिमालय ही बरसता है। उसके भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों ही महत्व हैं। भौतिक में वन-सम्पदा , वनस्पति, औषधि, पत्थर तथा खनिज। आध्यात्मिक में वातावरण जिसके प्रभाव से वहाँ का जनसामान्य अभी भी अपेक्षाकृत ईमानदार एवं सदाचारी है। देवताओं, ऋषियों, तपस्वियों का क्रीड़ाप्राँगण है। इसी से तो भगवान ने गीता में ‘स्थावरणाँ हिमालयः’ अर्थात् स्थावरों में हिमालय में स्वयं हूँ, कहा है।

देखने से निर्जीव पाषाण खण्ड प्रतीत होने वाला यह पर्वतराज प्रत्यक्ष देव है। यह अनन्त रहस्यों की दिव्य भूमि है। जीवन इसके कण-कण में है। आज भी इसकी छाया में अनेकों आश्चर्यजनक अनुसंधान चल रहे हैं, जिनके युगान्तरकारी प्रभाव इक्कीसवीं सदी में देखे जा सकेंगे। वहाँ के ऋषिगणों एवं देवशक्तियों की सतत् उपस्थिति के कारण आत्मसाधना की दृष्टि से इस क्षेत्र का सर्वोपरि महत्व प्राचीनकाल से लेकर अभी तक बना हुआ हैं। उन्हीं दिव्य सत्ताओं के प्रत्यक्ष आदेश से हिमालय की छाया और गंगा की गोद में शान्तिकुँज बनाया-बसाया गया था, ताकि जन-साधारण यहाँ साधना करके हिमालय के दिव्य अनुदानों का पा सकें और वहाँ के ऋषिगणों देवशक्तियों के सूक्ष्म संपर्क में आकर स्वयं को धन्य अनुभव कर सकें।


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