जादुई जीन्स के रहस्य अब उद्घाटित हो रहे हैं।

February 1997

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गुणवान बनने की ललक सभी में की हैं। सभ्यता के शुरुआती दौर में इनसान दुर्गुणों के निवारण-उपकरण एवं सद्गुणों के सम्वर्धन के नए प्रयत्नशील रहा है। मानवीशीलता की सारी कोशिशें इसी के नए होती रही है। सामाजिक नीति-मर्यादाएं, दार्शनिक ज्ञान एवं आध्यात्मिक घटनाओं का आधारभूत उद्देश्य यही रहा है अतीत की इन कोशिशों की भाँति आधुनिक विज्ञान भी इसके लिए प्रयत्नशील है कि मानव की वर्तमान एवं नयी पीढ़ियों को किस तरह गुणी व संस्कृत बनाया जाए ? जेनेटिक्स के रूप में वैज्ञानिक समुदाय की इन्हीं कोशिशों को देखा-परखा जा सकता है।

इन वैज्ञानिकों के अनुसार जिन्दगी बहुसंख्यक क्रियाकलापों का स्वरूप है? क्या है? इसका निर्धारण गुणसूत्र निहित ‘गुण-इकाई’ अर्थात् ‘जीन’ के अनुरूप होता है। अत्यन्त सूक्ष्म संरचना भले इस जीन की गतिविधियाँ आश्चर्यजनक एवं भावी पीढ़ियों में गुण-अवगुणों की क्रियाशीलता का संचालक एवं वाहक है । वैज्ञानिक इसी को मानवीय विकास का मूल आधार मानते हैं। जीनोम क्नोलाजी के विकसित हो जाने से ऐसे अनेकों निष्कर्ष सामने आए है, जो नई पीढ़ी में नए गुणों की रोपाई को सम्भव बताते हैं जेनेटिक्स के विशेषज्ञों का मानना है कि जीन की डिकोडिंग करने का मानवीय व्यवहार एवं वृत्तियों के क्षमताओं के अध्ययन में काफी आसानी आ गई हैं

इनका मानना है कि शरीर के समूचे एलेटिन की सक्रियता सिर्फ 20 एमीनो-सिड़ों पर निर्भर है, जबकि ‘जीन’ कही जाने वाली इन गुण, इकाइयों का ------------------------

वाटसन तथा क्रिक ने डी. एन. ए. को. दो समसूत्री के रूप में प्रदर्शित किया। इसी सूत्र में जी. ए. सी. टी. निश्चित क्रम में माला के समान गुँथे होते हैं। इनके बीच का परिवर्तन उत्परिवर्तन कहलाता है , इनके बीच का परिवर्तन उत्परिवर्तन कहलाता है।, जो जिन्दगी के गुणों में आमूल-चूल बदलाव कर सकता है। फ्रिट्ज लिपमेन ने आर, एन. ए. को संदेशवाहक की संज्ञा दी, जो डी. एन. ए. को संदेशवाहक की संज्ञा दी, डी. एन. ए. में निहित समूहों को भावी पीढ़ियों में पहुँचाता है।

विज्ञानवेत्ताओं का कहना है कि शरीर के जिस अंग में जितने अधिक जीन होंगे वह उतना ही शक्तिशाली तथा महत्वपूर्ण माना जाता है। अपने सोच-विचार से जीवन के सभी क्रियाकलापों का संचालन करने वाले मनुष्य के मस्तिष्क में सर्वाधिक 3195 जीन्स होते हैं। इसके बाद प्रतिरक्षा प्रणाली के लिए जिम्मेदार श्वेतरक्त कणिका में 2964 जीन होते हैं, जबकि लाल रुधिर कणिका में जीन की संख्या सिर्फ 8 होती है। लीवर में यह संख्या 2091, हृदय में 1195 तथा पेंक्रियास में 1094 होती है। पुरुष के प्रोस्टेट ग्लैण्ड्स में 1203 तथा महिलाओं के गर्भाशय में 1059 जीन पाए जाते हैं। टेस्टिकल में 1232 तथा अण्डाणु में 584 जीन की क्षमता रहती है। हाथ की बस्ि में 904, स्केलेटल माँसपेशी में 735, हाथ की त्वचा में 629 तथा किडनी में 912 जीन होते हैं। जीन की यही संख्या थाइराइड ग्लैण्ड्स में 584 आँखों में 547 तथा सतन में 696 होती है।

मानवीय गुणों के विकास के बढ़ाए गए इस वैज्ञानिक कदम की वजह से सन् 1999 में ह्यूमन जीनोम प्रोजेक्ट की स्थापना हुई। इसे आनुवांशिकी के मर्मज्ञ स्टेनफोर्ड विश्वविद्यालय के केवेली एस. फ्रेजा तथा कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय की मेरी क्लेयरक्रिग एवं एलेन विल्सन द्वारा स्थापित किया गया। उनकी योजना मानवीय गुझा-दोषों के अलग-अलग तरह की गुझा -इकाइयों का संग्रह करे एक बड़ी-सी लाइब्रेरी की स्थापना करने की है। इस स्थापना से इस तरह के अध्ययन एवं प्रयोगों में काफी सहूलियत होगी। जीन मनुष्य की प्रकृति के अनुरूप अपने में अनेकों भिन्न-भिन्न विशेषताएं लिए हुए होते हैं। इस प्रयास से इन भिन्नताओं पर नवीन अनुसंधान कर सकना काफी आसान होगा।

आनुवंशिक तकनीक की विशेषज्ञ मेरी क्लेयर का कहना है कि दो अजनबी व्यक्तियों के बीच काफी जेनेटिक भिन्नता होती है। लेकिन एक ही परिवार के सदस्यों के बीच यह अन्तर काफी कम होता है। अनुसंधान के निष्कर्ष के अनुसार यह अंतर दो जातियों में 85 प्रतिशत होता है, जबकि प्रजातियों के बीच मात्र 6 प्रतिशत ही होता है। भौगोलिक परिस्थितियों का केवल 15 प्रतिशत ही आनुवंशिक अन्तर होता है। अन्य कारणों से 9 प्रतिशत की खिन्नता आती है।

नवीनतम अध्ययन के अनुसार जीन्स मानव मानसिकता को काफी हद तक प्रभावित करते है। इनसान की बौद्धिक क्षमताओं एवं भाववृत्तियों का कारण वैज्ञानिक इन्हीं गुण-इकाइयों को मानते हैं। उनके अनुसार मानसिक विक्षिप्तता एवं अन्य कमियाँ भी इसी की परिणति है। बहत्तर वर्षीय विज्ञानवेत्ता केवेली एस. फ्रोजा ने अपने 1032 पृष्ठ के ग्रन्थ ‘द हिस्ट्री एण्ड ज्योग्राफी ऑफ ह्यूमन जीन्स’ में एक महत्वपूर्ण बात कही है। उनका मानना है कि भौगोलिक परिवेश, परिस्थितियों की भिन्नता । शारीरिक गुणों की क्रियाशीलता वाले जीन्स में उत्परिवर्तन का कारण बनती है। कुछ उसी तरह मनोवैज्ञानिक परिस्थितियाँ एवं लगातार सोच−विचार को प्रभावित करने वाली गतिविधियाँ मानसिक गुणों का नियन्त्रण करने वाले जीन्स में उत्परिवर्तन कर सकती है। फ्रोजा के इस कथन से मन की गहरी परतों को प्रभावित करने वाली आध्यात्मिक साधनाओं एवं सामाजिक नीति-मर्यादाओं का मूल्य आँका जा सकता है। क्योंकि ये प्रवृत्तियों का नियन्त्रण करने वाले जीन्स में उत्परिवर्तन को सम्भव बना सकती है। तभी तो एस. फ्रोजा का अपने ग्रन्थ में कहना है कि जादुई जीन के मूल रहस्य को उद्घाटित किया जा सके तो जीवन के विकास की अनन्त संभावनाओं को साकार किया जा सकता है।

जीन के अन्दर पाया जाने वाला रसायन डी. एन. ए. भी कम आश्चर्यजनक नहीं है। सदर्न कैलीफोर्निया यूनिवर्सिटी के लियोनार्ड एडलमेन ने डी. एन. ए. कम्प्यूटर की खोज की है। डी. एन. ए. के इस कम्प्यूटर में असीम व अनन्त क्षमता तथा स्मरणीय होने की सम्भावना है। इसके सामने दुनिया की सारी टेलीफोन तथा ई-मेल जैसी अत्याधुनिक व्यवस्था भी सामान्य है। एडलमेन का कहना है कि इस विधा से ब्रह्मांड के ग्रह-नक्षत्रों निहारिकाओं के बीच आसानी से संपर्क किया जा सकेगा। इस तकनीक का समुचित विकास हो सका तो मानव विकास के साथ अन्य ब्रह्मांडीय गतिविधियों का अध्ययन किया जा सकना आसान हो जाएगा।

साहसिक कार्यों के लिए जीन्स का महत्व कम नहीं है। प्रसिद्ध पत्रिका न्युजवीक के 15 जनवरी, 16 के अंक में एक शोध पत्र का प्रकाशन विस्तारपूर्वक हुआ था। इस शोध पत्र के अनुसार साहस पूर्ण कार्यों में जीन की भागीदारी का समझने के लिए वैज्ञानिकों के दो दलों ने प्रयोग किए। पहले दल के नायक ‘नेशनल कैंसर इंस्टीट्यूट अमेरिका’ के डीन होमर थे। दूसरे दल का नेतृत्व ‘सराह हेरजम मेमोरियल हास्पिटल इजराइल’ के रिचर्ड एवस्टीन ने किया। इन्होंने अपने निष्कर्ष में पाया कि साहसिक कार्यों के लिए डी 4 डी आर नामक जीन महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करता है। यह जीन मस्तिष्क के सुग्राही न्यूरान्स को संदेश प्रसारित करता है। संदेश प्राप्त करते ही न्यूरान की सतह पर फैले हुए ये रिसेप्टर डोपामीन का स्राव तेजी से करने लगती है। अतः मस्तिष्क में डोपामीन का स्तर बढ़ जाता है। डॉ. जोनाथन बेंजामीक के अनुसार डोपामीन आनन्द, साहस व संवेदना का संदेशवाहक है। जब डोपामीन कोशिका में बढ़ता है तो सम्बन्धित कोशिकाएँ मजबूत व उत्तेजित हो जाती है। यह शृंखला अनेकों कोशिकाओं में चल पड़ती है और साहसिक कार्य बन पड़ता है। वाशिंगटन विश्वविद्यालय के विख्यात मनोचिकित्सक सी. राबर्ट क्लोनिंगर का कहना है कि डी 4 डी. आर. जीन की क्षमता व्यक्ति की स्वयं की दृढ़ इच्छाशक्ति पर निर्भर करती है। मैंकगील अस्पताल के माइकेल मिनी के अनुसार दृढ़ इच्छाशक्ति से डी 4 डी आर. में अतिशय वृद्धि सम्भव है। अतएव साहस व इच्छाशक्ति के आधार पर जीन को भी प्रभावित किया जा सकता है।

हिंसा व अपराध के संदर्भ में जीन की भागीदारी के विषय में मेरीलैण्ड यूनिवर्सिटी के डेविड वाशरमैन का मत है, कि यूँ तो हिंसा ठीक-ठीक विज्ञान की परिभाषा के दायरे में नहीं आती, फिर भी इसे जेनेटिक प्रभाव से मुक्त नहीं कहा जा सकता। पूर्व अमेरिकन राष्ट्रपति जार्ज बुश के प्रशासनिक सचिव लुडस सिल्वेनिया ने अपने समय में एक रिर्पोट पेश की थी। इसके तहत सन् 1992 में अमेरिका में 26000 हत्याएँ एवं 60 लाख हिंसक अपराध अधिकतर नवयुवकों द्वारा किए गए। इसके पीछे वास्तविक तथ्यों का पता लगाने के लिए नेशनल इन्स्टीट्यूट ऑफ हेल्थ के निदेशक व प्रसिद्ध मनोचिकित्सक गेराल्ड एल ब्राउन ने हिंसात्मक वृत्तियों में वृद्धि की वजह सेरोटोनीन को माना। ब्राउन के अनुसार जब सेरोटोनीन में कमी होती है। तो आक्रामकता, उत्तेजना, हिंसा एवं आत्महत्या जैसी घटनाएँ बढ़ जाती है । सेरोटीनीन की मा पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं में 20 से 30 प्रतिशत कम होती है। यह नवजात शिशुओं में अधिक तथा किशोरों में कम होती है। उम्र बढ़ने के साथ ही इसकी मात्रा में भी बढ़ोत्तरी होती है। ब्राउन का कहना है कि सेरोटोनीन की मात्र जिस वर्ग में जितनी निश्चित है, उसमें कमी का होना हिंसात्मक प्रभाव को बढ़ाता है।

सन् 1993 में सिरोटोनीन मेआबाँलिक मं जीन का सम्बन्ध होना पता लगा। इंग्लैण्ड में एक उच्चवर्गीय परिवार के एक व्यक्ति में उसके आप्रेशन के बाद किसी वजह से इसकी मात्रा घट गई और वह अति आक्रामक सिद्ध हुआ- कैलीफोर्निया के न्यूरोबायेलिजिस्ट इवान बलवन ने अपने प्रयोगों में जीन्स की गतिविधियों को इस तरह के व्यक्तियों में असन्तुलन का जिम्मेदार पाया। उनका मानना है कि जेनेटिक्स से प्रभावित व्यक्ति प्रायः अपना मानसिक संतुलन गँवा बैठते हैं। आज का विषाक्त वातावरण बनाने के लिए बनार्डन हिली ऐसे ही व्यक्तियों की बहुतायत होना मानते हैं।

अमेरिका के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ ने इस अन्वेषण के लिए बनायी गयी परियोजना में 58 करोड़ डालर खर्च किए है। इससे जो निष्कर्ष मिले है उससे अपराधियों की पहचान बहुत आसान हो गयी है। डॉ. उविड बेरेट ने अपराधी के हाथ का चिन्ह, लार खून तथा बाल से डी. एन. ए. का विश्लेषण करके खोज-बीन में सफलता प्राप्त की है। ससेक्स इंग्लैण्ड के डिटेक्टिव सुपररिटेण्डेण्ट ग्राहम हिल ने कहा हैिक डी. एन. ए. डाटज्ञ के आधार पर अपराध के पेचीदे मामलों को सुलझाने में सहायता मिली है।

जीवन के गुण-दोष ही नहीं, शारीरिक बीमारियाँ भी जीन से नियन्त्रित होती हैं ये बीमारियाँ आखिर मानसिक दोष ही तो है, जो विस्फोटक स्थिति आने पर दैहिक व्याधियों के रूप में प्रकट होते हैं। सिस्टिक फाइब्रोसिस, मस्कुलर डायस्ट्राफी , सिकलसेल एनीमिया आदि कुछेक आनुवंशिक रोगों का पता लग चुका हैं कतिपय रोगों पर इस तरह का अनुसंधान कार्य चल रहा है ब्रूड मिडिल सेनलस के एण्ड्रयू गार्मेन तथा पीटर सेम्स ने डी. एन. ए. को पालीमिरेस सेम्स ने डी. एन.ए. को पालीमिरेस सेम्स रिएक्शन द्वारा परिवर्धित करके परीक्षण किया है। इस विधि से क्षतिग्रस्त जीन का पता लगा लिया जाता है। इन दोनों वैज्ञानिकों ने डी.एन. ए. को विज्ञान में तहलका मचा दिया है।

नेशनल इन्स्टीट्यूट ऑफ हेल्थ के ग्रेगवेण्टर ने 35,000 मानव जीन का परीक्षण कर लिया है। उनके निष्कर्ष के अनुसार जब कभी जीन किसी प्रोटीन का निर्माण करता है तो इसके पूर्व m RNA की संरचना बनती है यही m RNA ही प्रोटभ्न संश्लेषण करता है। कोशिका सम्वर्धन के समय एम. आर. एन. ए. पिछली क्रिया के फलस्वरूप डी. एन. ए. का पुनर्निर्माण करता है। यह शृंखला हजारों अणुओं की लम्बी शृंखला हजारों अणुओं की लम्बी शृंखला होती है।इस विधि से मालीक्युलर बायोलॉजिस्ट डी. एन. ए. सूत्र का निर्माण कर सकते हैं। वेण्टर ने इस इस डी. एन. ए. का सुनिश्चित स्थान पता कर लिया है, जिसकी वजह से प्रभावित जीन का पता आसानी से लग सकता है। यदि प्रभावित जीन किसी अन्य जाति या मनुष्यों के जीन के समान हो तो प्रत्यारोपण की धूमिल आशा फिर से प्रज्वलित हो सकती है। () वर्ग की मान्यता है कि अग इस वेणि को सफलतापूर्वक प्रचलन में लाया जा सके तो निश्चित ही एक उपलब्धि मानी जाएगी।

हाल ही एक खोज में स्तन कैंसर के लिए जिम्मेदार जीन का पता चला है ग्रह खोज एन. आई. एच. अमेरिका के डोना शेटक, इडेनस, पार्क सकोलनीक तथा रोजर वीजमैन की एक टीम ने की है। यह जीन है क्रोमसोम-17 का बी. आर. सी. ए. है। यह जीन प्रोटीन संश्लेषण नहीं होने से आस-पास की स्तन कोशिकाएँ पहले ट्यूमर तथा बाद में कैंसर में परिवर्तित हो जाती है। इसी क्रम में बी, आर. सी. 2 तथा 3 व 4 भी ढूँढ़ लिए गए है।

आनुवंशिक रागों में डी. एम. डी. एक ऐसा रोग है जिसमें माँसपेशियाँ सड़ जाती है। यह रोग नवजात शिशुओं से 20 साल के किशोरों तक में होता है। पिछले दो दशकों से नवजात बच्चों में दा जेनेटिक रोग फेनील कीटों न्यूरिया और हाइपोथ्राडीज्म जोरों से फैला हैं बिट्रेन में सिस्टिक फाइब्रोसिस की बीमारी ने 3 प्रतिशत लोगों को अपनी चपेट में ले लिया है। ग्रीस में थैलेसेमिया एवं नाइजीरिया के एक चौथाई लोग -------------------------------------

‘एक्सपेरीमण्टल साइकोलॉजी लैबोरेटरी ससेक्स’ के निदेशक स्टुअर्ट सरदलैण्ड ने जेनेटिक रोगियों के मनोवैज्ञानिक तत्वों का वर्णन किया है। उनके अनुसार लगातार किसी व्यक्ति को प्रताड़ित करने पर यह दमित भावना व कुंठा कालान्तर में आनुवंशिक रोगों की सम्भावना को बढ़ा देती है। इसका उपचार है रोगी में प्रेम तथा विश्वास पूर्ण सद्भावना का आरोपण। ‘न्यू इंग्लैण्ड जर्नल ऑफ मेडिसिन’ सितम्बर 15 के अनुसार रोगों का हल प्रकृतिगत जीवनचर्या एवं शान्त प्रसन्न मनः स्थिति है। जीन हर व्यक्ति की प्रकृति के अनुरूप भिन्न-भिन्न होते हैं। अनिश्चितता के सिद्धान्त के अनुरूप जीन का व्यवहार भी भिन्न-भिन्न हो सकता है। डॉ. माइकेल का मानना है प्राकृतिक एवं संयमित जीवन जीकर ही अपनी जेनेटिक प्रणाली को स्वस्थ रखा जा सकता है ।

लास एंजेल्स के शिशु रोग विशेषज्ञ डॉ. डोनाल्ड कोहन ने ‘नेचर मेडिसिन नामक पत्रिका में जेनेटिक रोगों पर एक रिपोर्ट पेश की थी। इन्होंने तीन नवजात बच्चों-एडीनोसीन डीमीनेस डेफीसिएन्सी नामक जेनेटिक रोगों से मुक्ति दिलाई थी। इनके अनुसार शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली प्रकृति का उपहार है। इसे प्रकृति की शरण में जाकर ही ठीक रखा जा सकता है।

बात शारीरिक गुण-दोषों अर्थात् सबल, स्वस्थ अथवा रोगग्रस्त जीवन की हो अथवा फिर मानसिक गुण-दोषों से इसका सम्बन्ध हो, जीन इन पर अपना नियन्त्रण -आधिपत्य रखते हैं। हृदय की भाववृत्तियाँ भी इनसे अछूती नहीं है। यदि जेनेटिक प्रणाली को दोष मुक्त किया जा सके तो मानव का वर्तमान समृद्ध एवं भविष्य उज्ज्वल हो सकता है। परंतु ऐसा होगा किस प्रकार ? इस महत्वपूर्ण प्रश्न के जवाब में एबीगेल सेल्येरस कहते हैं कि पर्यावरण, सामाजिक परिवेश एवं साँस्कृतिक परिस्थितियाँ जेनेटिक प्रणाली पर अपना महत्वपूर्ण असर डालती है।

यदि पर्यावरण प्रदूषण मुक्त हो, ऐसे स्थान पर दोष मुक्त सामाजिक एवं साँस्कृतिक स्थिति में किसी व्यक्ति को लाकर रखा जाय ओर उसे उत्कृष्ट विचारों एवं उदात्त भावनाओं की ओर प्रेरित किया जाय तो आश्चर्यजनक परिणाम होते हैं। अतीत भारत के प्राचीन ऋषिगणों ने मानव प्रजाति के स्तर को उत्तम बनाए रखने के लिए सामाजिक नीति-मर्यादाओं एवं आध्यात्मिक साधनाओं का सृजन किया था। विज्ञानवेत्ता एबीगेल भी मानते हैं यदि किसी तरह मन की गहराइयों को प्रभावित किया जा सके तो tcq जीन के प्रभावित होने की सम्भावना बढ़ जाती है ओर यह निर्विवाद है कि ध्यान मन की गहराइयों को प्रभावित करता है इससे tcq का प्रभावित होना लगभग सुनिश्चित है। यह tcq ही वह जीन है जो म्यूटेशन में आश्चर्यजनक ढंग से भाग लेता है। इस म्यूटेशन में ही नए गुण पैदा होते हैं।

हालांकि जेनेटिक प्रणाली को पूरी तरह प्रभावित करने के लिए सिर्फ ध्यान ही नहीं तपश्चर्या संयमित साधनात्मक दिनचर्या भी जरूरी हैं बाल्टीमोर विश्वविद्यालय के अपराध विज्ञान विभाग की प्राध्यापक डायना फिशाविन के अनुसार, यदि किसी व्यक्ति को लगातार प्रताड़ित किया जाय, तो इस तिरस्कार से उनके अन्दर गहरी मनोग्रन्थियाँ बन जाती है यही मनोग्रन्थियाँ बाद में आनुवंशिक अपराध को जन्म देती है। ऐसे व्यक्तियों को यदि प्रेमपूर्ण वातावरण में रखा जाए और उनमें ईश्वरीय आस्था एवं विश्वास का पनपाया जा सके, तो आश्चर्यचकित करने वाले परिणाम पा जा सकते हैं अब वैज्ञानिक भी मानते हैं। कि प्राचीन ऋषियों द्वारा अन्वेषित अध्यात्म विज्ञान की तकनीकें सिर्फ प्राची परम्पराएँ भर नहीं है । आज उनका उपयोग विज्ञानसम्मत ऐसे प्रयोगों के रूप में किया जा सकता है जो मानव की जेनेटिक प्रणाली को दोष मुक्त बना सके। स्वयं आप भी चाहें तो स्वयं को और अपनी भावी पीढ़ियों को इन्हीं आध्यात्मिक प्रयोगों का आश्रय लेकर गुणवान बना सकते हैं।


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