जीवन जीने की कला सिखाती है-आस्तिकता

February 1997

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चलते-चलते उन दोनों ने मुड़कर एक-दूसरे की ओर देखा। इस घने जंगल में राह ढूंढ़ पाना कठिन लग रहा था। सूर्य अपनी किरणों से बुनी पीली चादर को तेजी से समेटता जा रहा था । न जानें कैसे इसका एक छोटा-सा छोर वृक्षों की फुनगी से अभी तक अटका था। इसके छूटते ही सारा जंगल घने अन्धेरे में डूब जाएगा । उसके पहले ही यहाँ से बाहर निकलना होगा। पर किधर ? किस ओर? उन दोनों की ही आँखों में यह प्रश्न बड़े स्पष्ट रूप से चमक रहा था। वेषभूषा से दोनों साधु लग रहें थे। उनके मुखमण्डल पर तप की सात्विक आभा बिखर रही थी। चलने का अन्दाज उन दोनों के ही गरिमापूर्ण व्यक्तित्व का अहसास कराता था। लेकिन अभी वे दोनों काफी असमंजस में थे। कुछ और सोचते इससे पहले थोड़ी दूर पर सूखी पत्तियों की खड़खड़ सुनायी दी। उस ओर नजर घुमाने पर देखा कि दो व्यक्ति एक ओर से तेजी से बढ़े चले आ रहे हैं। उन्होंने सोचा , इसी ओर बढ़ा जाय, जरूर कोई गाँव होगा।

अपने बढ़ते कदमों के साथ ही ये दोनों साधु भी उन दोनों व्यक्तियों के नजदीक जा पहुँचे। इनका साधुओं का वेष देखकर एक पल के लिए उनके चेहरों पर रहस्यमयी मुसकान थिरक उठी। इस मुसकान को दबाते हुए एक ने प्रश्न किया, “महाराज इस ओर कहाँ चले?”

“आप लोग इस ओर से आ रहे हैं, तो जरूर ही इधर कोई गाँव या बस्ती होगी, यही सोचकर हम लोग भी इस तरफ चल पड़े हैं।” एक साधु ने उनकी जिज्ञासा का समाधान करने की कोशिश की।

“गाँव तो इधर अवश्य है, लेकिन यह सारा का सारा गाँव नास्तिकों का है। आपके ये गेरुए कपड़े देखकर तो सबके सब आपके पीछे पड़ जाएँगे। खाने को मिलेगी गालियाँ और पीने के लिए पीड़ा के घूँट। इधर जाने से अच्छा है आप लोग हमारे साथ चलें। हमारा गाँव यहाँ से थोड़ी दूर अवश्य है किन्तु वहाँ आप लोग आराम से रह सकेंगे।”

“धन्यवाद मित्र, पर आज का कार्यक्रम तो नास्तिकों के गाँव का ही रहेगा।” साधु ने एक हल्की-सी मुसकान के साथ कहा। उनके पाँव-गाँव की ओर बढ़ चले। गाँव के बाहर एक कुआँ था। कुएँ के पास ही एक विशाल बरगद का पेड़ था, जिसके चारों ओर गोल चबूतरा बना हुआ था। कुएँ पर एक डोल-रस्सी भी रखे थे। शायद बाहर से लौटकर आने वाले गाँव के लोग मुँह -हाथ धोकर और साफ-सुथरे होकर गाँव में घुसते थे। कुआँ और चबूतरा देखकर दोनों साधुओं को बड़ी प्रसन्नता हुई। दोनों ने स्नान किया और सफर की थकान मिटाने के लिए चबूतरे पर लेट गए। अभी कुछ ही मिनट बीते होंगे कि एक व्यक्ति कुएँ पर आया और जब वह हाथ मुँह धो रहा था, उसकी नजर उन दोनों साधुओं पर पड़ी । नास्तिकों के इस गाँव में आस्तिकों का कौन-सा काम, उसने सोचा फिर चिल्लाते हुए पूछा-”अरे तुम कौन हो, यहाँ कैसे आए?”

“ये तो हमें भी नहीं मालूम कि हम कौन हैं, इसी सवाल का उत्तर तो हम खोज रहे हैं। गाँव देखा, कुआँ देखा, यहाँ चले आए। सुबह होते ही वापस चले जाएँगे।”

“अगर तुम आस्तिक हो, जैसा कि तुम लोगों के कपड़ों से लगता है, तो तुम्हें हमारे गाँव वालों से बहस करनी पड़ेगी।”

“भाई, जिसे यही मालूम न हो कि वह है कौन, वह आस्तिक या नास्तिक कैसे हो सकता है?” साधु के शब्दों में विनम्रता थी।

कुछ असमंजस में व्यक्ति गाँव की तरफ चल पड़ा । गाँव पहुँचकर उसने गाँव वालों को यह अजीबोगरीब घटना सुना दी।

“जब वे कहते हैं कि उन्हें मालूम ही नहीं कि वे कौन हैं, तो उनसे बेकार की बहस में उलझने से क्या फायदा?” गाँव के एक बुजुर्ग ने अपनी राय जाहिर की।

“लेकिन उनकी वेषभूषा बिल्कुल उन साधुओं की तरह है, जो भगवान और आस्तिकता कर प्रचार करते फिरते हैं।”

“अब सुखलाल भाई तो हैं नहीं, जो कुछ सलाह ले लेते। अभी उनको सोने दो, सुबह बात कर लेंगे। अगर वे आस्तिक है तो उनको स्वीकार करना पड़ेगा कि भगवान, ईश्वर , परमात्मा नाम की कोई वस्तु नहीं है।” सुखलाल भाई उस गाँव के सबसे अधिक ज्ञानी और नास्तिकवाद के स्तम्भ के रूप में जाने जाते थे। लोग उन्हें आदर से बड़े भाई भी कहते थे।

“लेकिन सुबह तो वे जाने को कह रहे हैं या तो किसी को भेजकर उनको कहा जाय कि वे रुके, हमको उनसे बात करनी है या फिर उनसे सीधे-सादे स्वीकार कराया जाय कि वे भगवान में विश्वास नहीं करते।”

“अरे उन्होंने कुछ खाया-पिया भी है या भूखे ही लेट रहे हैं। यदि भूखे हैं तो आधी रात को भी जा सकते हैं। उन्हें बहस से क्या लेना, कह देंगे भैया जो तुम लोग कहते हो वही ठीक है। अब भूख लगी होगी पहले इसकी व्यवस्था कर लें। उन्हें रोकना ही है तो उन्हें भोजन कराओ, उनसे कहो कि आपसे कुछ जानना है रुकें और हमें लाभान्वित होने का अवसर दें। सुबह उन्हें यहाँ बुलवाओ देखो वे क्या कहते हैं , यदि वे ईश्वर का नाम लेते हैं या धर्म -अध्यात्म की बातें करते हैं, तो उन्हें शास्त्रार्थ की चुनौती दो।” गाँव के बुजुर्ग ने पास खड़े लोगों को समझाने की कोशिश की।

क्का बिल्कुल ठीक कहते हैं। पास ही खड़े लोगों ने समर्थन करते हुए कहा, “काका के साथ एक व्यक्ति और चला जाय और जैसा काका ने बताया है वैसा ही संदेश उन तक पहुँचा दिया जाय।”

सुबह स्नान करने के पश्चात् दोनों साधु गाँव में निर्दिष्ट स्थान पर पधारें। उन्हें दूध-फल का जलपान कराया गया तथा अकेला ही छोड़ दिया गया। कहा गया कि इस समय तो काम है, चर्चा तो सायंकाल होगी। एकान्त स्थान प्रातः का समय , बैठ गए दोनों साधु ध्यान अवस्था में। गाँव वालों ने देखा तो समझ गए कि ये तो आस्तिक हैं। सायं क्या-क्या प्रश्नोत्तर किए जाएँ , इसकी योजना बनने लगी। साधु मस्त थे, ध्यान टूटा तो कुछ बच्चों को अपने पास खड़े पाया। उनमें मस्ती जग गयी, प्रसन्नता से बात-चीत करने लगे बच्चे भी उनसे हिल-मिल गए।

इसी तरह होते-होते साँझ का झुटपुटा हो गया। साधुओं की पूरी गतिविधि नोट कर ली गई । दो बार एक-एक घण्टे के लिए ध्यान में बैठे, खाना खाया विश्राम किया, बच्चों से गप्प मारी किन्तु भगवान का नाम एक बार भी नहीं लिया। क्या कहें इनको नास्तिक या आस्तिक? शाम को सभा जुड़ी , इनको भी वहीं बुला लिया गया।

“क्या आप यह मानते हैं कि इस सृष्टि को भगवान ने बनाया है?” प्रश्न हुआ- “भाई हम लोगों के सामने तो सृष्टि बनायी नहीं गई। जब से हम पैदा हुए हैं तब से सब कुछ ऐसा ही देख रहे हैं, जैसा आजकल दिखाई दे रहा है। “उत्तर मिला। “यदि आप भगवान को नहीं मानते तो ये गेरुए कपड़े क्यों पहनते हैं?”

“गेरुए कपड़ों से भगवान का क्या सम्बन्ध ? आप सबने आग की लपटों को देखा है, कैसा रेग होता है उनका? जब भी आग जलती है, उसकी लपटें किस ओर जाती हैं? क्या कभी आग की लपटों को ऊपर की बजाए नीचे जाते देखा है आप में से किसी ने? गेरुए कपड़ों का मतलब है ज्ञान में ऊपर से ऊपर की ओर जाने का प्रयत्न ।”

“अच्छा तो यह आँखें बन्द कर एक घण्टे तक चुपचाप बैठकर आप दिन में क्या कर रहे थे?”

“देखो, इनसान में तथा अन्य प्राणियों में क्या अन्तर है? प्यास गाय का भी लगती है और आपको भी । आप कुआँ खोदकर पानी निकाल लेते हैं, गाय कुआँ नहीं खोद सकती, क्यों? आप कहेंगे कि इनसान में बुद्धि है गाय में नहीं, ठीक है।”

टब देखिए गर्मी में सूर्य का तापमान हर वर्ष लगभग एक समान होता है, सागर में भी उतना ही जल रहता है, तो फिर मानसून एक समान होना चाहिए या नहीं?”

“हाँ।”

“लेकिन कभी तो एकदम सूखा पड़ जाता है, पीने तक को पानी नहीं मिलता और कभी इतनी वर्षा हो जाती है कि पानी में गाँव के गाँव बह जाते हैं, क्यों? और कभी-कभी तो एकदम गर्मी के मौसम में ओले पड़ने लगते हैं, कहाँ से आ जाते हैं वे ओले?”

“इन बातों का उत्तर तो मौसम वैज्ञानिक ही दे सकते हैं।”

“नहीं, वे केवल तर्क देकर आपको शान्त तो कर सकते हैं परन्तु ठीक-ठीक उत्तर तो उनके पास भी नहीं है। अब तक तो कितने उपग्रह भी भेजे जा चुके हैं, चन्द्रमा , शुक्र तथा अन्य ग्रहों पर लोग पहुँचें भी हैं, जिन पर नहीं पहुँच सके, वहाँ पहुँचने की योजना बना रहे हैं। क्या किसी को कभी आकाश में कहीं ओले या बर्फ के पहाड़ मिले? सवाल यह है कि इतनी गर्मी में वे ओले आकाश में पिघले क्यों नहीं? क्या आप में से कोई इस बात का जवाब दे सकता है।

“आप गाय-भैंस पालते हैं, उसका दूध पीते रहते हैं, फिर आपको लगता है कि इनको गर्भवती होना पड़ेगा, नहीं तो दूध बन्द । गाय-भैंस बच्चा देती हैं, दूध का क्रम चलता रहता है। आठ-दस बच्चा देने के बाद से बुढ़िया हो जाती हैं। आप उसे जंगल में छोड़ देते हैं, कुछ समय बाद उनकी मृत्यु हो जाती है। लगभग यही चक्र मनुष्य के साथ भी चलता है, बचपन, यौवन, बुढ़ापा और मृत्यु । फिर हम सब पशुओं से अधिक क्या कुछ भी तो नहीं।”

साधुओं की वाणी, उनके धारदार तर्क गाँव वालों के सोचने के लिए मजबूर कर रहे थे। उन्हें अपने अन्दर अहसास हो रहा था, कि वे न तो अपने जीवन के बारे में कुछ अधिक जानते हैं और न ही सृष्टि चक्र के बारे में।

“पर इन सब सवालों का जवाब कैसे खोजा जा सकता है?” अनेक आवाजें एक साथ उभरी।

“बाहर से अन्दर जाकर।” साधु कह रहे थे, “ध्यान लगाकर। मन की स्लेट पर जो लेखनी सदैव चलती रहती है, उसको रोक दो। मस्तिष्क जो सदैव उड़ता-बिखरता रहता है, उसे बाँध लो। इसी का नाम है, निर्विचार अवस्था और जहाँ इसमें समर्थ हुए कि प्रश्नों के उत्तर अपने आप थोड़ी देर आँख बन्द करके देखिए यह काम इतना सरल नहीं। विचारों का ताँता लगा ही रहता है। इनकी आवा-जाही रुकती ही नहीं।”

“निर्विचार होने के लिए क्या किसी की मदद की जरूरत है?”

“केवल अपनी।”

“तब ध्यान का भगवान से कोई मतलब नहीं।”

क्या हम लोगों ने अपनी पूरी बातचीत में कहीं भगवान का नाम लिया है? मैं केवल इनसान की बातचीत कर रहा हूँ, आप बीच में भगवान को क्यों घसीट लाए?”

“जिन्दगी में सफलता कैसे मिले इस विषय में भी कुछ मार्गदर्शन दें।”मित्रों, सूर्योदय से एक डेढ़ घण्टा पूर्व का समय बिल्कुल शान्त होता है। नींद के पश्चात् मन और मस्तिष्क भी इस समय शान्त होते हैं। बस इसी समय बैठ जाइए पद्मासन में अथवा पालथी मारकर। चेष्टा कीजिए मन की एकाग्रता की, उसके निर्विचार होने की। हो सके तो जरा स्नान कर लिया जाए ओर ताजगी आ जाएगी। इस अभ्यास के बढ़ने के साथ आप देखेंगे आपकी मानसिक शक्ति का असाधारण विकास हो रहा है। जिन उलझनों को अब तक आप सुलझा पाने में असमर्थ थे वे चुटकियों में सुलझने लगी हैं।”

बातें प्रभावी थी, सभी की समझ में भी आ रही थीं। वे कहने लगे-”हमारे यहाँ के सबसे ज्ञानी व्यक्ति सुखलाल भाई बाहर गए हुए हैं, हम चाहेंगे कि उनके आने तक आप रुकें।ध्यान तो हम सब कल से ही प्रारंभ कर देते हैं।”

“जैसी आप सबकी इच्छा।” साधु मुस्कुराते हुए बोले। अगले दिन हर घर में ध्यान लगाने की चेष्टा में कोई न कोई बैठा था। परन्तु ध्यान इतनी सरलता से लगता है क्या? सब खीझ भी रहे थे लेकिन जिद पर अड़े थे, निर्विचार होना है। सायंकाल गाँव की चौपाल पर फिर सभा जमी। सबने अपनी-अपनी कठिनाइयाँ साधुओं को बताई । किसी को खेती के विषय में याद आने लगता है, किसी के मन पटल पर पत्नी, पुत्र मित्र उभरने लगते हैं। ध्यान जमता नहीं।” बन्धुओं । यह इतना सुगम कार्य नहीं है। यह तो युद्ध है संयम का और इन्द्रियों का। इन्द्रियाँ कहती हैं-फँसा रह क्या करेगा ज्ञान प्राप्त करके। संयम कहता है-मैं तुम्हारा स्वामी हूँ, तुम मेरे वर्ष में कैसे नहीं आओगे। यह युद्ध तो चलता रहेगा। अब यह तुम्हारे ऊपर है कि तुम कितने दिन युद्ध करना चाहते हो। वर्षों में भी यदि कोई विजयी हो जाता है तो संसार उसके आगे-पीछे चक्कर काटने लगता है। लेकिन आधा घण्टा-पैंतालीस मिनट बैठना तो पड़ेगा ही। शुरुआत में मन से विकार निकलेंगे, फिर धीरे-धीरे मन शान्त होना शुरू होगा। न चोरी करने का मन होगा, न बेईमानी करने का, बाकी अभ्यास की बात है। भगवान और आस्तिकता की कोई बात नहीं इसमें।” साधु ने कहा।

“महाराज , हमें तो अपने पर ही बड़ी गुस्सा आती है। भला यह भी कोई बात हुई कि अपने हाथ को जैसे हिलाएं वैसे हिलता है, टाँग को जैसे चलाएँ वैसे चलती है। ये बदमाश मन , हमारा होते हुए भी हमारी बात मानता ही नहीं। कुछ ऐसी बात बताओ कि यह मन भी हमारा कहना मानने लगे।”

“इतनी जल्दी तो हार नहीं मानेगा, पर कुछ शिथिल पड़ सकता है।”“कैसे ? जरा बताइए तो?” सभी की जिज्ञासा एक साथ मुखरित हो उठी।

“भूखा मारना प्रारम्भ कर दो इसे । सप्ताह में कम से कम एक दिन नहीं तो दो दिन का उपवास रखो। कष्ट हो तो सब्जी फल, दूध ले लो। इसके उड़ने में कमी आने लगेगी।”

ग्रामीण जन सन्तुष्ट हो गये। उनके लिए ध्यान पूर्णतया नयी बात थी और ऊपर से यह चुनौती भी जब सब अंग उनके कहने में चलते हैं तो यह मन क्यों नहीं चलता। अगले दिन जब सुखलाल भाई घर आए तो आपने ही घर के सब सदस्यों को सबेरे-सबेरे ध्यान करते पाया। वह चकित थे, कि आखिर हुआ क्या है।

गली में कुछ बच्चे खेल रहे थे, उन्होंने उनसे पूछा-”ये आँखें बन्द करके शान्त क्यों बैठे हैं आज सब लोग?”

“ध्यान लगा रहे हैं।”

“किसका?”

“अपना।”

वह कुछ समझ नहीं सका। झुँझलाते हुए पूछा-ध्यान तो देवी देवता का होता है या फिर भगवान का। तुम साफ-साफ क्यों नहीं बताते। बच्चों ने डरते हुए चौपाल में ठहरे साधुओं की ओर इशारा कर दिया।

सुखलाल भाई आग-बबूला होते हुए चौपाल पर पहुँचे। साधु बड़े मजे से चारपाई पर बैठे थे। वही गेरुए वस्त्र, एक की आयु थोड़ी ज्यादा थी, एक अपेक्षाकृत युवक । हो सकता है गुरु-शिष्य रहे हों। अभी वे हँस- हँसकर आपस में बातें कर रहे थे।

“तुम कौन हो और यहाँ क्यों आए हो? उसने प्रश्न किया।

“भैया हमारी चर्या में विघ्न उत्पन्न तम करो। गाँव के सारे लोग हमें जानते हैं, जो कुछ पूछना है उन्हीं से पूछ लो। वही तुम्हारे सवालों का उत्तर देंगे” और साधु फिर से अपनी बात-चीत में लग गए।

“आत्मा ज्यों ही शरीर की सब स्मृतियाँ भी छोड़ देती है, किन्तु किसी किसी की आत्मा को अपने पुराने शरीर की स्मृतियाँ याद रह जाती हैं, ऐसा क्यों होता है? “ युवा साधु ने अपनी जिज्ञासा प्रकट की।

“यह क्या आत्मा-परमात्मा का चक्कर फैला रखा है तुमने इस गाँव में? जो होता ही नहीं तुम उसके विषय में भ्रम फैला रहे हो?” सुखलाल झल्ला पड़ा।

“आत्मा नहीं है तो फिर तुम बोल कैसे रहे हो, सोच कैसे रहे हो? शरीर तो मुर्दे का भी हृष्ट-पुष्ट है, दिखाई देता है फिर वह क्यों नहीं बोल सकता? जो शक्ति है, संचालनकर्ता है वही आत्मा है। अब ये चौपाल का पंखा नहीं चल रहा है तुम कहोगे बत्ती नहीं आ रही। पंखा है स्विच है, पर कार्य बन्द है, क्योंकि ऊर्जा नहीं है। क्या तुम्हें ऊर्जा दिखाई देती है? नहीं क्योंकि वह केवल अनुभव की जाती है।”

सुखलाल पैर पटकता हुआ चला गया। उसने भगवान के अंधविश्वास से बड़ी कठिनाई से गाँव वालों को मुक्ति दिलाई थी । मार्क्स, फ्रायड, चार्वाक के तर्कों से उसने ग्रामीणजनों को प्रभावित किया था। उसके प्रयासों से अब तक बहुत से गाँव नास्तिकता की तरफ बढ़ चले थे। उसकी कोशिशों का ही फल था कि आस-पास के गाँवों के लोग, ईश्वर को ढकोसला मानने लगे थे और इन दो लोगों ने उसी के गाँव को सम्मोहित कर दिया ।

शाम को फिर से विशाल सभा जुटी। विशाल इस अर्थ में कि आस-पास के गाँवों के सभी प्रबुद्ध व्यक्ति वहाँ उपस्थित थे। सुखलाल ने उनसे सवाल पूछने शुरू किए।

“तुम नास्तिक हो या आस्तिक?”

“ न+अस्ति अर्थात् नहीं हो। अस्ति अर्थात् हो। अब तुम्हीं बताओ कि तुम हो कि नहीं? यदि तुम कहते हो कि तुम हो तो तुम आस्तिक हुए। यदि तुम इसे परमात्मा के सम्बन्ध में पूछ रहे हो तो? यदि तुम मानते हो कि तुम्हारा अस्तित्व है, तुम्हारी व्यक्तिगत चेतना आत्मा है, तो फिर तुम सबका समूह भी है, इसकी सामूहिक चेतना अर्थात् परमात्मा भी है। यह कैसा है, कहाँ है, हम इस चक्कर में पड़ते नहीं। जब अपने को समझ लोगे तो वह भी समझ में आ जाएगा?”

सुखलाल चुप था। उसके तर्क जवाब दे गए। भला वह अपने को कैसे नकार दे, जीवन को किस तरह से अस्वीकार करे।

“ये गेरुआ कपड़ा क्यों पहनते हो और घूमते क्यों फिरते हो?” उसका अगला सवाल था।

“ये मन को निर्विचार करने का क्या चक्कर है?”

“कुछ भी नहीं। हम तो जीवन जीने की कला बताते हैं। जीवन है तो उसे जीने की कला भी आनी चाहिए। चाहे शरीर हो या फिर मन , उसकी शक्तियों को जानना और सदुपयोग करना, सीखना तो हर एक का अनिवार्य कर्तव्य है। अरे शरीर को तो पशु भी नियंत्रित कर लेते हैं, मन को करो तो जानें ।”

साधुओं की बात ने सुखलाल को सोचने के लिए विवश कर दिया। सभी ग्रामीणजन जीवन जीने की कला को सीखने के लिए प्रयत्नशील हो उठे। चारों ओर प्रसन्नता उमड़ उठी।


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