हरीतिमा संवर्धन ही एकमात्र उपाय

February 1997

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प्रकृति बंधनों को तोड़ने पर उतारू मनुष्य अपनी प्रवीणता पर दिनोंदिन अहंकारी होता चला जा रहा है। फलतः सृष्टि-संतुलन की अदृश्य प्रेरणा और भावी परिणामों की कल्पना की उपेक्षा होती रहती है। यही कारण है कि आये दिन अनेकानेक समस्याओं और संकटों का सामना करना पड़ता है। उदाहरण के लिए, वृक्ष-वनस्पतियों के सम्बन्ध में बरती जाने वाली उपेक्षा और निष्ठुरता को ही लिया जा सकता है। इन दिनों मनुष्य द्वारा वनस्पति जगत के साथ जो व्यवहार किया जा रहा है, वह उपेक्षामात्र न रहकर अनौचित्य और अत्याचार की सीमा में जा पहुँचा है। फलतः उसके दुष्परिणाम भी हाथोंहाथ सामने आ रहे हैं। इन दिनों पेड़ों की कटाई बुरी तरह हो रही है। वन क्षेत्र निरन्तर घटता जा रहा है। होना यह चाहिए कि जलावन, फर्नीचर आदि के लिए जितनी लकड़ी कटे, उतने ही वृक्ष लगे, तब संतुलन बैठे, लेकिन स्थिति विपरीत है। हो यह रहा है कि भूमि से वृक्षों को छीना भर जा रहा है और ऐसा संतुलन नहीं बन रहा है कि जो लिया गया है, उसे वापस भी किया जाता रहे। वृक्ष-सम्पदा को काटते रहने की गति अधिक और लगाने की गति मंद रही तो, इसका परिणाम इतना भयावह होगा जिससे ‘इकोसिस्टम’ का संतुलन बिगड़ जाने पर ऐसी श्रुति उठानी पड़े, जिसके लिए पीछे पश्चाताप करते रहना भर हाथ रह जाय और उसकी पूर्ति समय निकल जाने पर फिर किसी भी प्रकार सम्भव न हो सके।

पेड़ कटते जाने, वन प्रदेश घटते जाने के जहाँ एक ओर अनेकों दुष्परिणाम हैं वहीं दूसरी ओर वृक्ष-वनस्पतियों से हरी-भरी धरती के अनेकों उपकार हैं। यह एक तथ्य है कि वनस्पति जगत और प्राणिजगत एक-दूसरे पर अन्योन्याश्रित हैं। समझा तो अन्न-जल को जीवनाधार जाता है, पर वस्तुतः शरीर यात्रा का प्रमुख माध्यम प्राणवायु है। हवा में ऑक्सीजन का जो अंश पाया जाना है, उसी से शरीर यात्रा संभव होती है। मनुष्य साँस से प्राणवायु खींचता है और कार्बनडाइआक्साइड छोड़ता है। इस ग्रहण-विसर्जन में वनस्पति जगत और प्राणि जगत परस्पर सहभागी हैं। प्राणी कार्बन छोड़ता है, उसे पेड़-पौधे ‘फोटो-सिन्थेसिस’ या प्रकाश संश्लेषण प्रक्रिया द्वारा अपना आहार बना लेते हैं और बदले में ऑक्सीजन छोड़ते हैं, जिसे प्राणी श्वास द्वारा ग्रहण करते और जीवित रहते हैं। इस प्रकार दोनों ही पक्ष एक दूसरे के सहारे सर्वोपरि आवश्यकता की पूर्ति करते हैं। प्राणियों का आहार वनस्पति है। वनस्पति की पोषण देने के लिए प्राणियों द्वारा उत्सर्जित वर्ज्य पदार्थ व उत्पन्न किये गये कूड़े-कचरे को प्रमुख माध्यम माना गया है। दोनों का तालमेल जितना सही रहेगा, उतनी ही यह धरती ‘शस्य श्यामला’ रहेगी और प्राणी जगत के निर्वाह में कमी न पड़ेगी। पर यदि इस आदान-प्रदान का संतुलन बिगड़ा तो न केवल आहार संकट खड़ा होगा, वरन् मनुष्य समेत समस्त जीव-जगत का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा।

हरियाली की महत्ता वैज्ञानिक दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण है। विशेषज्ञों के अनुसार जहाँ आस-पास घनी बस्तियाँ बसाई जानी आवश्यक हों, वहाँ बीच में ‘ग्रीनबेल्ट’ हरी पट्टी की गुंजाइश छोड़नी आवश्यक होती है। प्राचीन ऋषियों ने इसी दृष्टि से वन-उपवन लगाने की परम्परा आश्रम के साथ डाली थी। वृक्ष-वनस्पतियों को वे प्राणिजगत का जीवन मानते थे और उसे बढ़ाने को सर्वोपरि प्रमुखता देते थे। वृक्षों की कमी देखकर कवि हृदय ऋषि विह्वल हो उठते थे और धरती से पूछते थे-

“यथापल्लवपुष्पाढ्या यथापुष्पफलर्द्धयः। यथाफलार्द्धिस्वारोहा हा मातः क्वागमन् द्रुमाः॥

अर्थात् पतों के समान ही जिनमें प्रचुर पुष्प के समान ही जिनमें प्रचुर फल से लदे होने पर भी जो सरलता से चढ़ने योग्य होते थे, हे माता पृथ्वी! बता वे वृक्ष अब कहाँ गये?

वस्तुतः विश्वभर में आज वृक्षों और वनों-जंगलों की प्रायः यही स्थिति है। पर्यावरण में भरती जा रही विषाक्तता और उसके दुष्परिणामों से संत्रस्त मानव सब कुछ जानते-समझते हुए भी वनों के विनाश पर उतारू हैं। संसार भर में वनों, जंगलों का कटाव व्यापक स्तर पर अभी भी हो रहा है। सर्वेक्षणकर्ताओं के अनुसार आज पूरे विश्व में प्रति मिनट 77 हेक्टेयर की दर से जंगल काटे जा रहे हैं। अकेले ब्राजील में पिछले एक दशक में 620000 वर्ग मील जंगल का सफाया किया गया, जो कि समूचे फ्राँस के क्षेत्रफल के बराबर है। प्राकृतिक रूप से जंगलों में लगने वाली आग से भी प्रतिवर्ष बहुत क्षेत्र में वृक्ष-वनस्पतियाँ जलकर भस्म हो जाती हैं। इनसे निकलने वाला तेजाबी धुआँ वायुमण्डल में 3.5 किलोमीटर ऊँचाई तक फैल जाता है और वातावरण को विषाक्तता से भर देता है।

विशेषज्ञों का कहना हैं कि पर्यावरण संतुलन एवं जीवन रूपी रथचक्र को सही ढंग से गतिमान रखने के लिए समूचे भूभाग के 33 प्रतिशत क्षेत्र में वृक्ष-वनस्पतियों का होना अनिवार्य है। परंतु आज स्थिति अत्यंत विस्फोटक हो गयी है। अब मात्र दस प्रतिशत भूमि ही सघन वनों से आच्छादित रह गयी है। अपने देश में कुछ दशकों पूर्व तक 70 प्रतिशत भूभाग वनों से आच्छादित था, जो सन् 1854 तक कटते-कटते 40 प्रतिशत रह गया। सन् 1952 में यह घटकर 22 प्रतिशत तक पहुँच गया और आज मात्र 19.5 फीसदी भूभाग में ही जंगल बचे है। अनिवार्य पर्यावरण संतुलन सीमा से वह 13 प्रतिशत कम है। इस संदर्भ में सन् 1989-19 की अवधि में सेटेलाइट की सहायता से किये गये अध्ययन से यह तथ्य उजागर हुआ कि देश में अब कुल 6 लाख 40 हजार, 107 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में ही वन रह गया है, जो देश के कुल भू-क्षेत्र का मात्र 19.5 प्रतिशत है। मनुष्य ने थोड़े बहुत जो वृक्षारोपण किये भी है, उनसे अभी तक मात्र 1.1 प्रतिशत भू-भाग को ही ढका जा सका है। अपने देश में लगी दस मिलियन हेक्टेयर भूमि ऊसर-बंजर एवं निम्न स्तर की है, जहाँ हरियाली का नितान्त अभाव है। वैज्ञानिकों का कहना है कि इस भूमि को यदि प्रतिवर्ष वृक्षारोपण द्वारा हरा-भरा बनाया जा सके-देश के पर्यावरण को संतुलित बनाया जा सकता है। इससे भूमि का क्षरण व कटाव रुकेगा, साथ ही औसत वर्षा में वृद्धि भी होगी। पर्यावरण एवं वातावरण का संतुलन न केवल मानवी अस्तित्व के लिए वरन् प्राणिमात्र की जीवन रक्षा के लिए नितान्त आवश्यक है।

वृक्ष-वनस्पतियों से धरती हरी-भरी बनी रहे तो उससे मनुष्य को अनेकों प्रत्यक्ष व परोक्ष लाभ है। ईंधन एवं इमारती लकड़ी फल-फूल, औषधियाँ प्रदान करने जैसे अनेकों प्रत्यक्ष लाभ मनुष्य को इनसे तो मिलते ही हैं, बाढ़ रोकने, वातावरण में भरती जा रही विषाक्तता को कम करने व शुद्ध प्राणवायु उपलब्ध कराने जैसे महत्वपूर्ण कार्य भी हरीतिमा संवर्धन से ही पूरे होते हैं। देखा गया है कि जिन देशों या क्षेत्रों में कृषि क्रान्ति के अंतर्गत खेती के लिए जंगलों का सफाया करके जमीन तैयार की गयी, वहाँ खेती तो पर्याप्त हुई, पर नदियों में विकराल बाढ़ें आने लगीं, जिससे जन-धन की अपार क्षति उठानी पड़ी। इस संदर्भ में वैज्ञानिकों ने गहन अध्ययन-अनुसंधान किये है। उनका निष्कर्ष है कि जिस देश में जितने सघन और अधिक वन होंगे, वहाँ नदियाँ उतनी जल्दी नहीं उफनेंगी। अपने देश में भी जैसे-जैसे वन सम्पदा नष्ट होती जा रही है, प्रतिवर्ष नदियों में आने वली बाढ़ों की संख्या में वृद्धि हो रही है, जिससे लाखों लोग बेघर होते और अरबों रुपयों की फसल व सम्पदा बर्बाद होती है। यही कारण है कि अब सरकारें भी हरीतिमा-सम्वर्धन के कार्यक्रम को महत्व देने लगी हैं।

अपने देश में यद्यपि वर्ष भर में तीन महीने ही वर्षा होती है, जबकि विश्व के अनेक देशों में बारहों महीने पानी गिरता रहता है। एक कारण यह भी बताया जा रहा है कि तीन मास की मानसूनी वर्षा अधिक घनी होती है, इसलिए नदियों में ज्यादा बाढ़ें आती हैं, परन्तु यह कोई महत्वपूर्ण कारण नहीं है। भारत ही नहीं, कई देशों में मानसूनी वर्षा होती हैं, फिर भी वहाँ की नदियाँ यहाँ की अपेक्षा कम विनाश करती हैं। इस सम्बन्ध में विशेषज्ञों का कहना है कि नष्ट होती जा रही वन सम्पदा बाढ़ों की संख्या में अभिवृद्धि का महत्वपूर्ण कारण है। वर्षा की बूँदें जब घने जंगल में उगे वृक्षों पर गिरती हैं तो बहुत-सा पानी वे पत्ते ही सीख लेते हैं और कुछ का वाष्पीकरण भी हो जाता है। अधिक वर्षा होने के कारण पानी की बूँदें जमीन पर गिरती हैं। इसी प्रकार जंगल की वनस्पतियाँ बादल से गिरते हुए पानी को ही सीधे-सीधे उपयोग में ले लेती हैं। पेड़-पौधों द्वारा वर्षा का अधिकाँश पानी सोख लिया जाता है या वाष्पीकृत कर लिया जाता है, जबकि खुले मैदान में वह पानी बह निकलता है। इस सम्बन्ध में कई स्थानों पर परीक्षण और प्रयोग किया गया तो पता चला कि लगातार पन्द्रह घण्टे बारिश हो और पन्द्रह सेण्टीमीटर अर्थात् 6 इंच तक पानी गिरे तो सघन वन से एक भी बूँद पानी जमीन की सतह से नदी-नालों में नहीं बहेगा। जबकि यह लगातार वर्षा खुली जगह में होने पर बड़ी-बड़ी बाढ़ें ला सकती है।

सघन वनों में पानी के न बहने का एक दूसरा भी कारण है। सीधे जमीन पर गिरने वाले पानी की बूँदें जल्दी ही बह जाती हैं, जबकि वृक्षों के पत्तों से होता हुआ गिरने वाला पानी जमीन पर अधिक देर तक ठहरता है उससे भूमि को जल सोखने का भी अधिक समय मिलता है और पानी बहने की अपेक्षा जमीन में गहराई तक उतर जाता है। फलस्वरूप धरती की उर्वरा शक्ति और नमी भी अधिक स्थायी रहती है। देखा गया है कि सघन वनों से छनकर बहने वाला जल अधिक स्वच्छ भी होता है। वह पत्तों से धीरे-धीरे कम वेग से जमीन पर गिरता है और भूमि पर उगे हुए घास-फूस में से धीरे-धीरे बाहर निकलता है। इस स्वच्छ पानी में नदी को गहरा बनाने की शक्ति होती है, जबकि खुले मैदानी भाग से बहने वाला पानी अपने साथ मिट्टी आदि बहाकर लाता और नदियों को उथला बनाता है। पेड़-पौधों की उपस्थिति में भूमि द्वारा पानी का अवशोषण भी अपेक्षाकृत अधिक होता है। साथ ही इनकी दूर-दूर तक फैली जड़े वर्षा के कारण होने वाले भूमि कटाव की भी रोकती हैं। यही कारण है कि अमेरिका जैसे देशों में आज वृक्षारोपण को अधिक महत्व दिया जाने लगा हैं।

वृक्ष-वनस्पतियों का संवर्धन बाढ़ रोकने की दृष्टि से महत्वपूर्ण तो है ही, इसका और भी महत्वपूर्ण लाभ है। वायु प्रदूषण की समस्या समूचे संसार के लिए विनाश का कारण बन गयी है। शहरों में धुआँ उगलती चिमनियों एवं मोटर-गाड़ियों ने वायुमण्डल को इतना विषाक्त बना दिया है कि शुद्ध वायु तो पूरी पृथ्वी पर प्राप्त नहीं हो सकती। दूषित वायु में साँस लेने वाले मनुष्य एवं अन्यान्य प्राणी भी स्वस्थ, नीरोग किस प्रकार रह सकेंगे? शुद्ध वायु ही प्राणों का आधार है। वायुमण्डल में संव्याप्त प्राणवायु ही जीव-जन्तुओं को जीवन देती है। इसके अभाव में अन्यान्य विषैली गैसों का अनुपात बढ़ता जाता है और प्राणिजगत के लिए विपत्ति का कारण बनता है। अनुसंधानकर्ता वैज्ञानिकों का मत है कि पृथ्वी के वायुमण्डल में प्राणवायु कम होती जा रही और दूसरे तत्व बढ़ते जा रहे हैं। यदि वृक्ष-सम्पदा को नष्ट करने की रफ्तार यही रही, जो इन दिनों है तो मनुष्य और अन्य जीवों द्वारा छोड़ी गई साँस जिसमें अन्य उपयोगी तथा विषैली गैसें ही अधिक मात्रा में होती हैं, वे ही इतनी अधिक मात्रा में हो जाएँगी कि पृथ्वी पर जीवन दूभर बन जाएगा। इस समस्या का एकमात्र समाधान भी हरीतिमा संवर्धन ही माना गया है। आज की विध्वंसकारी परिस्थितियों में तो यह ओर भी अधिक आवश्यक हो गया है कि हर किसी को वृक्ष-वनस्पतियों के विकास, वृक्षारोपण एवं पेड़ न काटने के लिए कृत-संकल्प होना ही चाहिए।


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