सब ओर सिसकियों की गूँज थी। जुडिया की उस दुनिया में एक अजीब-सी दहशत का माहौल था। वैसे तो वह पूरा इलाका रेगिस्तानी था। यहाँ पेड़-पौधे-हरियाली नहीं के बराबर थी। लेकिन अगर कहीं कभी कोई घास-फूस या झाड़-झंखाड़ जैसा कुछ उग भी जाता तो मानो उसकी पत्तियाँ भी किसी अनजाने आतंक से काँप-कांप उठती थीं। आतंक की इस भयावह दहशत के साथ ही वहाँ था अंधविश्वासों का घना अँधेरा, बर्बरता और क्रूरता का नंगा नाच। असभ्य जंगली जातियों की सी जीवन-शैली, सामाजिक नीति-नियम, मर्यादाओं जैसा वहाँ कुछ भी न था। केवल थी आतंक भरी सिहरन, माल उसका जो लूट ले जाए, दौलत उसकी जो मार-काट कर छीन ले जाए और औरत उसकी जो उठा ले जाए। इनसान की जान की कीमत वहाँ कुछ भी न थी।
ऐसे विषाक्त अन्धकार में एक संत वहाँ सबके दिलों में उज्ज्वल भविष्य की आशा की ज्योति जगाता फिर रहा था। नाम था, उसका जॉन। उसकी ओजस्वी वाणी जहाँ-तहाँ कबीलों की सभाओं में गूँजने लगती-”ऐ ईश्वर के पुत्रों ! तुम प्रभु की कृपा का फायदा उठाओ। ऐ नवयुवकों ! अपनी जवानी को गलत रास्तों में बरबाद न करो। परिवर्तन की बेला आ गयी है। भगवान ने तुम्हारे उज्ज्वल भविष्य के निर्माण के लिए अपने युवराज को धरती पर भेजा है। येरुसलम में उत्पन्न उस मसीहा के कदम अब इस ओर मुड़ चले हैं। आओ, उस आने वाले महान अवतार, उस ईश्वर के राजकुमार की अगवानी के लिए मेरे साथ आओ। वह कुछ ही समय के बाद यहाँ की सीमा में प्रवेश करेगा।
कबीले में चुपचाप बैठे लोगों में से कुछ तो सन्त के साथ जाने के लिए उठ खड़े हुए। लेकिन अनेकों उनमें से ऐसे भी थे जो सन्त की बातों पर लापरवाही से हँस दिए। कइयों ने उपेक्षा से मुँह बिचका दिया और कुछ उपेक्षा से मुँह फेर शराब का घूँट पीने लगे। फिर भी एक छोटा-सा समूह सन्त जॉन के पीछे-पीछे जुडिया की सीमाओं की ओर चलने लगा। रास्ते में पड़ने वाले अन्य कबीले के लोगों में से जिनको भी सन्त के आशय का पता चलता, वे भी उनके साथ हो लेते। उज्ज्वल भविष्य के संदेशवाहक ईश्वर के युवराज के स्वागत के लिए इन सभी में तीव्र उत्सुकता थी। इन उत्सुक लोगों में कई आस्थावादी, दुर्बल, दलित, पीड़ित लोग आसमान की ओर हाथ उठाकर प्रार्थना करते और प्रभु को धन्यवाद देने लगती उसने उन सबके लिए अपने प्रिय पुत्र को धरती पर भेजा है। शायद अब उनका उद्धार हो जाएगा।......शायद अब उन्हें दमन और शोषण की भट्टी में जलना नहीं पड़ेगा।........सम्भवतः बर्बर और नृशंस परम्पराएँ अब उन्हें नहीं कुचलेंगी और दूसरी ओर नृशंस, अत्याचारी, बर्बर, क्रूर, अपराधकर्मी यह सोच रहे थे कि देखें तो सही, यह ईश्वर का पुत्र क्या चमत्कार कर दिखाता है, कितना दम है, इसके उज्ज्वल भविष्य के कथन में........।
सन्त जॉन उन सबको बता रहे थे, कि यीशु येरुसलम के बहुत साधारण से परिवार में जन्मे हैं। जब वह मरियम की पवित्र कोख में थे, तभी आसमान में एक अलौकिक सितारा चमका था। इसी चमक ने उनके आगमन की सूचना हम संसार वालों को दी। हम सबको उनके आगमन को बोध कराते हुए बताया-”धरती के निवासियों! तुम्हारे उद्धार के लिए यीशु ने, भगवान के युवराज ने जन्म लिया है, उसका स्वागत करो।”
“पता नहीं, अब तक किसी ने उनका स्वागत किया या नहीं। परन्तु वह जन्मा, बड़ा हुआ और अपने पिता के आदेशानुसार उनके कारोबार में हाथ बँटाने लगा। लेकिन रोजी-रोजगार करने, पैसा कमाने में उसका मन नहीं लगा। वह तो धरती पर स्वर्ग के राज्य की स्थापना करने के लिए आया था। उसका अधिकतर समय ध्यान और सत्संग में व्यतीत होता था। किसी को वस्त्रहीन देखकर अपने कपड़े उतार कर दे देना, किसी को भूखा देखकर अपना भोजन खिला देना उसकी सामान्य दिनचर्या की बात बन गयी।”
सन्त जॉन की ये बातें सुनकर भीड़ उनके पीछे खिंचती चली आ रही थी। अब तक आसमान ने सितारों जड़ी काली चादर ओढ़ ली थी। बातों ही बातों में इसका पता ही न चला। जब वे सब सीमा के पास पहुँचे, रात का अन्तिम प्रहर शुरू हो चुका था। वहाँ आस-पास वियावान जंगल फैला हुआ था। उसी जंगल में से एक ऊबड़-खाबड़ रास्ता दूर.......बहुत दूर जंगलों और सपाट पहाड़ी चट्टानों में से होता हुआ चला जा रहा था.........दूर येरुसलम तक।
उस रास्ते की ओर संकेत करते हुए संत कहने लगे-”देखो ईश्वर का वह महिमामय पुत्र, इसी रास्ते से जुडिया में प्रवेश करेगा। हम सब यहीं पर उसकी प्रतीक्षा करेंगे।”
बातों का यह सिलसिला चलता रहा। रात ढलती गयी और फिर दूर पहाड़ी की ओट से सूरज ने झाँक कर देखा और तभी लोगों ने देखा कि सादा-सा चोगा पहने एक नवयुवक उसी मार्ग पर चला आ रहा है। उसके चेहरे पर ईश्वरीय नूर था, उसकी आँखों से करुणा झर रही थी। उसके हृदय में मानव मात्र के लिए दया का अगाध सागर लहराता मालूम पड़ता था। ममता और प्रेम की दिव्य आभा उसके चारों ओर छिटकी प्रतीत होती थी। उसे देखते ही सब समझ गए कि यही वह उज्ज्वल भविष्य का संदेश-वाहक है, जिसकी चर्चा महात्मा जॉन ने आगे बढ़कर उन्हें अपने हृदय से लगा लिया। फिर बोले आप थक गए होंगे यीशु। जुडिया के लोगों का आतिथ्य स्वीकार करें।
और फिर समूचा जनसमूह संत जॉन और यीशु के पीछे-पीछे वापस चल दिया। चलते-चलते ही लोग आगे बढ़-बढ़कर यीशु से तरह-तरह के सवाल करते जा रहे थे। कुछ बूढ़े, स्त्रियाँ और आस्थावान लोग उनका हाथ पकड़कर चूम लेते, कई तो घुटने टेककर श्रद्धाभाव से उन्हें देखने लगते। महात्मा यीशु भी आँखों ही आँखों में दयार्द्र भाव से उन सबको देखते और फिर आगे बढ़ने लगते।
भीड़ में से किसी ने हिम्मत करके पूछा-”महात्मन् ! आप जुडिया में किसलिए पधारे हैं?” “मेरा प्रत्येक कार्य धरती पर स्वर्ग के राज्य की स्थापना के लिए है। ”चलते-चलते वह ठहर गए और सवाल पूछने वाले की ओर घूमकर बोले” यहाँ मैं ईश्वर से बात-चीत करने के लिए आया हूँ। मैं देखता हूँ सत्ताधारी लोग निर्बलों पर अत्याचार करते हैं, स्त्रियों की इज्जत लूटते हैं। जो बलवान है, वह दुर्बलों का सब कुछ लूटने में लगा है। मैं ईश्वर से इसका कारण पूछना चाहता हूँ।” कुछ रुककर यीशु बोले,”ऐ जुडिया निवासियों! मैं तुम्हारे, तुम सबके कष्टों के निवारण का उपाय ईश्वर से पूछूँगा।”
यीशु के इस कथन ने सभी को अचरज में डाल दिया। भला ईश्वर से कौन बात-चीत कर सकता है। लेकिन महात्मा जॉन शान्त भाव से मन्द-मन्द मुसकराते रहें, मानो वह भविष्य को पहले ही देख रहे हों। “लेकिन ईश्वर आपको मिलेगा कहा?”एक व्यक्ति ने आश्चर्यचकित हो उनसे पूछा। यीशु के कथन ने उसे हैरत में डाल दिया था।
“ईश्वर मिलेगा, जरूर मिलेगा। उसी तरह मिलेगा, जिस तरह सालों पहले वह मूसा को मिला था। तब, ईश्वर ने स्वयं हिब्रू लोगों को मिस्र वासियों की गुलामी से मुक्त होना का रास्ता बताया था। ऐ जुडिया के निवासियों ! वह इलाका जुडिया के नजदीक है, वीरान, रेगिस्तानी पहाड़ियों वाला वह इलाका जहाँ.......।”
“लेकिन वहाँ तो दुष्ट आत्माएँ निवास करती हैं।” एक और व्यक्ति ने बीच में ही टोकते हुए कहा। उसके चेहरे पर हँसी उड़ाने का भाव था। बोला-”वहाँ ईश्वर कहाँ मिलेगा। पहले कभी मूसा के जमाने में ईश्वर वहाँ रहा करता होगा, मगर अब तो शैतानी रूहें उत्पात करती हैं। क्या एक रात भी गुजार सकोगे वहाँ?”
सभी इस सवाल पर अवाक् थे। यीशु बोले-”क्यों नहीं रह सकूँगा वहाँ? मूसा ने भी इसी तरह वियावान में चालीस दिनों की कठोर साधना की थी। मैं भी वहीं रहूँगा, बिना कुछ खाए-पिए और सुख-सुविधा की चिन्ता किए। मुझे पूरी तरह से यकीन है कि भगवान मेरे सवालों का जवाब जरूर देगा।”
यीशु के शब्दों पर कई लोग आश्चर्य और श्रद्धा से ओत-प्रोत आगे बढ़कर घुटने टेकते और उनका हाथ पकड़ कर चूमते। उनके हाथों को मस्तक और आँखों से लगाते। बूढ़ों, महिलाओं और कमजोरों की आँखों से उनका दयार्द्र चेहरा देखकर प्रेमाश्रु टपक पड़ते। उन्हें यकीन होने लगा था कि वह सचमुच उज्ज्वल भविष्य के संदेशवाहक हैं।
यीशु और महात्मा जॉन आगे की ओर बढ़ने लगे। भीड़ भी उनके पीछे-पीछे चलने लगी। रास्ते का जंगली इलाका अभी तक वे पार न कर पाए थे कि अचानक किसी की कराह सुनकर सबकी नजर दायीं ओर की झाड़ी पर गयी। पास ही पीव और रक्त से लथपथ कुष्ठ रोगिणी वृद्धा पड़ी कराह रही थी। यीशु के कदम वहीं रुक गए। सारी भीड़ वहीं ठहर गयी। एक व्यक्ति बुढ़िया को डाँटते हुए बोला-”ऐ मनहूस बुढ़िया ! तुझे अपनी सूरत अभी दिखानी थी, जबकि प्रभु यीशु हमारे इलाके में आए हैं।”
यीशु ने उस व्यक्ति को चुप रहने का संकेत किया। फिर उस वृद्धा की ओर आगे बढ़े। तभी भीड़ में अनेकों चिल्लाहटें उभरीं, रुक जाइये महात्मन्। उससे दूर रहिए। वह कोढ़ी है। यीशु ने जैसे उन आवाजों को सुना ही नहीं। उन्होंने पानी मँगवाया। फिर वहीं जमीन पर बैठकर बुढ़िया का सिर अपनी गोद में लेकर पूछा-”माँ तुम्हारी यह हालत किसने की है?”
वृद्धा रुँधे गले से सिसकियों के बीच कहने लगी, “मैं अपनी बेटी के साथ जा रही थी। तभी राजा के सैनिक आए। उन्होंने मेरी बेटी का अपहरण कर लिया। मैंने रोकना चाहा, तो मुझे कोड़ों से मारकर यहाँ फेंक गए। अब मेरी बेटी को उनसे कौन छुड़ाएगा?” वृद्धा की पीड़ा आँसू बनकर झरने लगी।
यीशु ने वृद्धा के सिर पर हाथ फेरा। उनकी आँखों में संवेदना छलछला रही थी, बोले-”माँ तुम्हारी बेटी का अपहरण करने वालों को ईश्वर अवश्य दण्ड देगा। जैसा उन्होंने किया है, वैसा ही उन्हें भुगतना पड़ेगा। अब तू उठ और स्वस्थ हो जा। तेरे घावों से खून का रिसना बन्द हो गया है और तेरा कुष्ठ रोग भी दूर हो गया है।”
सारे लोग यह अद्भुत चमत्कार देखकर दंग रह गए। उन्हें समझ में ही नहीं आ रहा था कि बातें करते-करते भला वृद्धा के जख्म कैसे भर गए और उसकी काया कंचन-सी किस तरह चमकने लगी। वृद्धा उठकर घुटनों के बल बैठ गई और एक हाथ से यीशु के चोगे का पल्लू पकड़े दूसरे हाथ में उनका हाथ थामकर पागलों की तरह चूमने लगी।
महात्मा यीशु फिर आगे की ओर बढ़ने लगे। भीड़ भी चमत्कृत-सी उनके पीछे-पीछे चलने लगी। यह चमत्कार देखकर उन शंकालुओं के दिल का सन्देह भी दूर होने लगा, जो अभी तक तरह-तरह की बातें सोच रहे थे। उन्हें अहसास होने लगा कि यीशु सचमुच ही ईश्वर पुत्र है। भला क्षण भर में ही वृद्धा को इस प्रकार कौन नीरोग कर सकता है।
आखिर सभी लोग बस्तियों वाले इलाके में आ पहुँचे। लोग यीशु के सत्कार की तैयारी में जुट गए। कोई भागकर उनके लिए फलाहार का इन्तजाम कर रहा था, कोई व्यंजन की तैयारी में जुट गया। अनेक लोग शीतल-निर्मल जल लिए खड़े थे। यीशु ने सभी के प्रेम को स्वीकार करते हुए सबके साथ भोजन ग्रहण किया। तत्पश्चात् बोले-”जुडिया के निवासियों ! आज मैंने तुम सभी के साथ जो आहार लिया है अब वह सम्भवतः मुझे अर्से तक देखने के लिए भी नसीब नहीं होगा। क्योंकि मैं कल ही वियावान वीरान रेगिस्तानी क्षेत्र में निकल जाऊँगा.......वहीं जहाँ कभी मूसा ने तप किया था, जहाँ उन्होंने ईश्वरीय प्रकाश को देखा था। मैं वहाँ जाकर प्रभु का साक्षात्कार करूंगा और उनसे वह उपाय पूछूँगा जिससे धरती पर सुख-शांति का साम्राज्य स्थापित हो सके। इसलिए तुम सब मेरी ओर से चिन्तित मत होना।”
उनके इस कथन को सुनकर एक वृद्धा लगभग रोते हुए पुकार उठी-”नहीं, नहीं प्रभु! मैं आपको वहाँ नहीं जाने दूँगी वहाँ शैतान का राज्य है।”
“नहीं माँ! यीशु मुस्कराए। शैतान का राज्य कहीं भी नहीं है। सभी जगह उस परम-पिता का राज्य है और मैं उसी की सत्ता-स्थापित करना चाहता हूँ।”
इस बातचीत में सन्ध्या से रात्रि हो आयी। महात्मा यीशु का उन्नत ललाट चन्द्रमा की कान्ति में दीप्तिमान हो रहा था। उनकी मुखमण्डल-दीप्ति न केवल सम्पूर्ण वातावरण को, बल्कि उपस्थित जनों को आलोकित कर रही थी। वह अपना ढीला-ढाला चोगा पहने अकेले ही दूर एकान्त मार्ग पर बढ़ने लगे। दूर....बहुत दूर......।
जोर्डन नदी की उफनती जलधारा उनकी राह न रोक सकी। दूर तक सूखी-सपाट चट्टानें उन्हें हतोत्साहित न कर पायीं। वह उस वीरान-वियावान तक आ पहुँचे जिसे शैतान का ठिकाना कहा जाता था। वहाँ आकर वह मौन साधे आकाश की ओर इस तरह देख रहे थे, मानो वह अपनी दृष्टि से ही आकाश की खिड़की को खोल देना चाहते हों। शायद इसी खिड़की के पार उनके परमस्नेही पिता का घर था। उनकी पुकार बढ़ती गयी, दिन पर दिन पर बीतने लगे, उन्होंने अन्न-जल कुछ भी नहीं ग्रहण किया। अनगिनत दुष्ट आत्माओं ने उन्हें इस सुनसान क्षेत्र में निर्द्वन्द्व तप करते देखा तो वे चकित रह गयीं। क्योंकि उन्हें मालूम था कोई साधारण मनुष्य इस प्रकार यहाँ नहीं रह सकता। उन्होंने जब यह खबर शैतान को सुनायी तो वह व्यंग से मुसकराया, बोला-”जानता हूँ, वह ईश्वर पुत्र है और उसमें विभिन्न दैवी शक्तियाँ हैं। इससे पहले कि वह अपना पुण्य प्रकाश फैलाए, मैं उसे पथभ्रष्ट कर डालूँगा।”
शैतान के इस निश्चय से बेखबर यीशु उस समय सपाट चट्टानों के बीच एक पत्थर के सहारे ध्यानमग्न थे। उनके शरीर पर जो चोगा था वह कई जगह से फट गया था। दिन और रात बीतने का उन्हें अहसास न था। भूख-प्यास को वे पूरी तरह भूल चुके थे। उनके अन्तःकरण में दुःखी-पीड़ितजनों के लिए प्रार्थना के स्वर गूँज रहे थे।
तभी शैतान उनके सामने प्रकट हुआ। वह उन्हें बहला-फुसलाकर अथवा धमकाकर धर्म मार्ग से हटाना चाहता था। उसके साथ की दुष्ट आत्माओं ने तरह-तरह के प्रपंच रचने शुरू किए। उन्होंने तेज ठण्डी बर्फीली हवाओं से ऐसी सर्दी का प्रकोप उत्पन्न किया कि आदमी का खून तक जम जाय। हाथ-पैर सुन्न हो जाएँ। पर इस प्रकोप का उन पर कोई प्रभाव न पड़ा। वे तो जैसे देहभाव से पूरी तरह ऊपर उठ चुके थे। अविनाशी आत्मा पर भला क्या प्रभाव पड़ता। दुष्ट आत्माओं ने भयावह आँधियों में उन्हें लपेटना चाहा, मगर वह अडिग रहे। फिर बीमारियों द्वारा उन्हें त्रास देने की कोशिश की, मगर बीमारियाँ उनकी आत्मा के संकल्प को प्रभावित न कर सकीं। आखिर ये दुष्ट आत्माएँ स्वयं थक-हारकर भाग गई।
अब बारी स्वयं शैतान की थी। यीशु को इस वीरान-वियाबान में चालीस दिन हो चुके थे। वह अपनी प्रार्थना में तल्लीन थे। लेकिन आज उन्हें अत्यन्त भूख-प्यास और थकावट का अनुभव हो रहा था। यह स्थिति भी शायद शैतान ने ही उत्पन्न की थी। वह चट्टान की ओट से निकलकर पास आकर बोला-”अरे भाई! क्यों इतनी मुसीबतें उठा रहे हो? आखिर क्या कष्ट है तुम्हें? बेकार भूखे-प्यासे मर रहे हो। तुम्हारे पास तो दैवी शक्तियाँ हैं, उनका लाभ उठाकर जीवन का सुख क्यों नहीं भोगते?” शैतान आस-पास पड़े पत्थरों की ओर इशारा करते हुए बोला-”देखो तुम मेरी बातों का जवाब नहीं देना चाहते न सही, पर अभी तुम इन पत्थरों को भाँति-भाँति के व्यंजनों में बदल सकते हो। चाहो तो इन व्यंजनों को कम कीमत में बेचकर धनवान भी बन सकते हो। ऐसा क्यों नहीं करते यीशु? दुनिया आनन्द लेने के लिए है, तप करने या तकलीफें उठाने के लिए नहीं।”
यीशु हल्के से मुस्कराए और बोले-”शैतान यद्यपि तुम वेष बदल कर मेरे पास आए हो, पर मैं तुम्हारी असलियत पहचान गया हूँ। यह सच है कि मेरे पास ईश्वरीय शक्तियाँ हैं, परन्तु मैं उनका दुरुपयोग अपने किसी भी स्वार्थ के लिए नहीं करूंगा। मेरी यह बात जान लो जीवन के लिए सुख भोग नहीं, ईश्वर के आदेशों का पालन आवश्यक हैं।”
अभी वह अपनी बात समाप्त भी न कर पाए थे कि अचानक उन्होंने देखा कि वह जुडिया के एक पहाड़ की चोटी पर खड़े हैं। यह जगह इतनी ऊँचाई पर थी कि यहाँ से दूर-दूर तक बस्तियाँ और नगर दिखाई दे रहे थे। पास ही खड़ा शैतान मुस्करा रहा था। वह दूर तक फैले नगरों व राज्यों की ओर संकेत करते हुए कहने लगा-”यीशु, तुम मेरी बात मानो। तुम चाहो तो मैं अपनी शक्ति से इन सभी राज्यों का अधिपति बना दूँगा। तुम्हारी अपनी दैवी शक्तियों का दुरुपयोग भी नहीं होगा और तुम मिश्र और रोम के सम्राटों से भी अधिक ऐश्वर्य तथा सुख का भोग भी कर सकोगे।”
यीशु हँसने लगे। उनकी हँसी शैतान के इस नए मायाजाल को भी छिन्न-भिन्न करने लगी। वह बोले-”मगर ईश्वरीय सुख के समक्ष इन सुखों का कोई मूल्य-महत्व नहीं है। शैतान! मैं राजनीतिक सत्ता का नहीं, आध्यात्मिक सत्ता का पक्षधर हूँ। मेरा उद्देश्य ईश्वर के स्वर्गीय राज्य को धरती पर उतारना है।”
“लेकिन तुम कष्टों के मार्ग पर ही क्यों चलना चाहते हो?” शैतान इतनी आसानी से हार मानने को तैयार न था। यीशु ने उसे समझाते हुए कहा-”जिसे तुम कष्ट कहते हो-वास्तव में वह तप है। मैं जो कष्ट भोग रहा हूँ और भविष्य में जो कष्ट मुझे भोगने होंगे, वह मानव जाति के विगत दुष्कर्मों का प्रायश्चित है। मुझे मार्ग से विचलित करने का तुम्हारा प्रयास व्यर्थ है।”
हारकर शैतान वापस चला गया। यीशु गहरी समाधि में डूब गए। अब वह भावराज्य में अपने परमस्नेही पिता के समक्ष थे। जो वात्सल्य भरे शब्दों में उनसे कह रहे थे-”यीशु स्वर्ग के राज्य का धरती में अवतरण मनुष्य में देवत्व के उदय से होगा। तुम मानव में सत्प्रवृत्ति का संवर्धन करो। उसे दुष्प्रवृत्तियों और मूढ़ताओं से मुक्त करो। तुम्हारा उद्देश्य कठिन अवश्य है पर असम्भव नहीं। तुम्हारा तप एवं बलिदान व्यर्थ न जाएगा। तुम्हारे बलिदान के दो हजार (2000) सालों बाद अपनी पूर्णता प्राप्त करेगा। तुम्हारे नाम से प्रचलित ईसा सम्वत् की 21 वीं सदी मनुष्य में देवत्व के उदय और धरती में स्वर्ग के अवतरण को चरितार्थ करेगी। उठो अपने कार्य को प्रारम्भ करो, मानव को प्रबोध दो।” इन्हीं शब्दों के साथ यीशु की समाधि खुल गई और उन्होंने लोगों को ईश्वरीय संदेश सुनाना आरम्भ कर दिया।