सत्य का अवलम्बन ही वरेण्य

February 1997

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सत्य के सम्बन्ध में प्रायः यह कहा जाता है कि वह धर्म- अध्यात्म का विषय है। लोकव्यवहार से उसका कोई लेना देना नहीं। भौतिक जगत में तो सर्वत्र असत्य का ही बोलबाला है। सत्य की पूछ कहाँ होती ? यहाँ ईमानदारी औंधे मुँह गिरती और अपनी मौत मरती है, जबकि बेईमानी फूलती-फलती और विस्तार पाती है।

प्रथम दृष्टि में यह तर्क वास्तविक प्रतीत हो सकते हैं पर तनिक गहराई में उतरकर विचार करने पर उनकी .............स्पष्ट झलकने लगती है। यह ............ कि इन दिनों पग-पग पर छल-छल का सहारा लिया जाता है और कदम-कदम पर ऐसे कार्य किये जाते हैं, जिन्हें ......................ही कहना पड़ेगा। इतने पर भी यह कहना गलत न होगा कि सत्य की वैशाखियों के बिना इनकी गति नहीं, भले ही वह नकली ही सत्य क्यों न हो, पर आज की प्रपंचपूर्ण दुनिया में इनका अवलम्बन एक लौकिक व्यक्ति को भी उतना ही अनिवार्य महसूस होता है, जितना कि किसी सत्यान्वेषी को यह एक कटु सच्चाई है कि एक फरेबी भी अपना सौदा सत्य और तथ्य के आधार पर ही तय करता है, भले ही उसका निजी जीवन झूठ वादों से भरपूर हो। जब तक उसे यह भरोसा न हो जाय कि जो कुछ कहा या किया जा रहा है, वह शत-प्रतिशत सच है, तब तक वह उस पर विचार करने के लिए बाध्य नहीं होता। ऐसे में कैसे कहा जा सकता है कि व्यवहारिक जीवन में सत्य का महत्व न्यून और नगण्य जितना है? यथार्थता तो यह है कि आज क्षण-क्षण में हम झूठे-सच का जितना आश्रय लेते हैं उसे अभूतपूर्व ही कहना चाहिए। कदाचित् इसी का देखते हुए गोस्वामी तुलसीदास को यह लिखने के लिए मजबूर होना पड़ा- ‘झूठे लेना, झूठे देना, झूठे भोजन, झूठ चबेना’! यह आज की स्थिति का वास्तविक चित्रण है, किन्तु इस बात को भी दरगुजर नहीं किया जाना चाहिए कि इस झूठे सच ने व्यक्ति और समाज को जितनी दुष्टता और भ्रष्टता की ओर धकेला है, उतना वस्तुस्थिति को वास्तविक रूप में बता देने और स्वीकार लेने में सम्भवतः नहीं होता। अतः यह कहने में हर्ज नहीं कि यथार्थ सच्चाई अनेकों गुना खतरनाक और हानिकारक है। इसे यदि त्याग दिया जाय, तो समाज से न सिर्फ अवाँछनीयताएँ और अनैतिकताएँ घटेंगी, वरन् छोटा-बड़ा अमीर-गरीब जैसी कितनी ही विसंगतियों का सफाया हो जायेगा। नकली सब की छत्रछाया में इन्हें पलने-बढ़ने का अच्छा अवसर मिल जाता है। यह व्यवहार विकृति न हो, तो शायद असल की नकल के धोखे में आकर ठगने-ठगाने को मौका भी न रहे। यह भी इसी बात को सिद्ध करता है कि लौकिक जीवन में सत्य से बिल्कुल पल्ला छुड़ाकर नहीं जिया जा सकता। यह बात और है कि वहाँ उसका उद्देश्य ओछे स्तर की स्वार्थ सिद्धि होता है।

यंत्र-उपकरण बनाने वाली कम्पनियाँ अपने-अपने सामान को सर्वश्रेष्ठ स्तर का घोषित करती है। और उनके गुणों और विशेषताओं के संदर्भ में ऐसे इतने लुभावने विज्ञापन को विस्तार बाँधना पड़े, पर कसौटी में कसने पर यह विशेषताएँ कितनी खरी उतरती हैं, यह कहने की आवश्यकता नहीं। खोटे सिक्के और खोटे माल बनते और चलते रहते हैं। देखने में वे कितने असली प्रतीत होते हैं, पर फिर भी उनका खोटापन प्रकट हो ही जाता है। भला हीरे का मुकाबला काँच कैसे करे? स्वर्ण के आगे रोल्डगोल्ड की क्या औकात? कहाँ राजा भोज कहाँ गंगू तेली। जहाँ इस विशाल अन्तर को पाटने का प्रयास किया गया हो, वहाँ निर्माण-कौशल और निर्माता की प्रशंसा ही करती होगी, जो पहली दृष्टि में खोटे के खरे होने का भ्रम पैदा करते हैं। कितनी ही लोग इसी भ्रान्ति में पड़कर आये दिन छले जाते हैं। वास्तव में झूठ को चलाने के लिए सत्य की प्रतीत खड़ी करनी पड़ती है, तब जाकर बात बनती है। बिजूके की भूमिका से कौन परिचित नहीं है? सभी जानते हैं कि कृषक लोग पशु-पक्षियों को धोखा देने और प्रहरी की उपस्थिति का झूठा एहसास करने के लिए निर्जीव और नकली रखवाले बनाकर खड़े करते हैं। कुर्ता , पाजामा , टोपी पहनाकर उन्हें असली छवि प्रदान करते हैं। पक्षियों को इससे यथार्थ रखवाले को भ्रम पैदा होता है और वे उससे दूर-दूर बने रहते हैं।यह भी इस बात को प्रमाणित करता है कि सत्य में अप्रतिम शक्ति है, भले ही खोटा होने के कारण उसका प्रभाव सामाजिक ही क्यों न हो, पर मनीषी इस तथ्य से सहमत हैं कि वह शक्तिवाला है और प्रभावित क्षमता है उसके विपरीत असत्य की शक्ति की पोल उस समय खुलती है जब उसकी वास्तविकता का पता सर्वसाधारण का लगता है, तब कैसी घोर जुगुप्सा उसके प्रति उत्पन्न होती है, यह भी सर्वविदित है।

मिलावटखोर अपनी वस्तुओं की शुद्धता के बारे में ऐसी-ऐसी कसमें खाते हैं, जैसे कलियुग में कोई सतयुगी सत्यानुरागी पैदा हो गया हो और असत्य जिसे स्पर्श तक न कर सका है। इसी आधार पर वे अपने माल खपाते और बाजार बनाते हैं। जब तक मिथ्या छुपी रहती, तब तक वे खूब पैसा कमाते हैं। असलियत के उजागर होते ही, दूसरे नाम और दूसरे लेबल से उन्हें पुनः बेचने लगते। इस बार भी एक से एक बढ़कर दवे , पड़ताल की घड़ी आते ही सब झूठ साबित होते हैं।

आध्यात्मिक सिद्धान्तों के प्रबल पक्षधर धर्मतंत्र के दावे भी अब सत्य और तथ्य पर कहाँ पक्के उतरते हैं? अधिकाँश मामलों में उसका आचरण दोहरे व्यक्तित्व का सा होता है। सामने उच्चादर्शों की बाते पीछे व्यक्तित्व का खोखलापन, पर पस आकर्षक मुखौटे के कारण धर्म अध्यात्म के प्रति अब भी लोगों का कुछ आकर्षण बना हुआ है। सही रास्ता सुझाने और उपयुक्त मार्ग में ले चलने वाले तो इक्के दुक्के संस्थान होते हैं, शेष तो दिग्भ्रम पैदा करते हैं। इसके बावजूद धर्म और धार्मिकता अब भी जीवित है। कारण एक ही सत्य का स्वाँग।

कहते हैं कि शासन-सत्ता अथवा राजनीति झूठ का सहारा लिये बिना चलती नहीं, पर इसमें सच्चाई का अल्पाँश भी नहीं है। यदि राजनीति के तत्वार्थ पर विचार किया जाय, तो हम पायेंगे कि राजसत्ता (अथवा शासनसत्ता) के संचालन के निमित्त जो नीति निर्धारित होती है, वास्तव में वही ‘राजनीति’ है । इसमें अनीति, कूटनीति जैसे शब्दों का लेशमात्र भी भाव नहीं। अतः यह कहना गलत होगा कि अन्याय का अवलम्ब लिये बिना कोई राजनेता नहीं बन सकता। यथार्थ में आज राजनीति जिस कदर पतित और भ्रष्ट हुई है कि जब कभी इसकी चर्चा होती है, तो ध्यान इसके शब्दार्थ की ओर न जाकर अनायास भावार्थ की ओर खिंच जाता है। वर्तमान में यह बुराई की पर्याय बनी हुई है। इसलिए शासनतंत्र से पृथक अन्य क्षेत्रों में भी लोग दूसरों के दाँव-पेंच भरे व्यवहार को इंगित करने के लिए उक्त शब्द का बहुतायत से प्रयोग करते हैं। राजनीति यदि वस्तुतः यही है, तो अब इसका उपनयन संस्कार होना ही चाहिए और अर्थबोध कराते हुए यह दीक्षा दी जानी चाहिए कि गरिमा के अनुरूप व्यवहार हो अन्यथा हेय अवस्था में पड़ी रहकर राजनेताओं को और ही न बनायेगी तथा राष्ट्र को घोर विपत्ति में धकेल कर जनता का अपार अहित करेगी। यों नीति का अर्थ सत्य, धर्म, सदाचार है। इस दृष्टि से राजनीति वह हुई जिसमें इन सभी तत्वों का समावेश हो। यही वह स्थिति है जिसमें वह अपने सम्पूर्ण भाव को प्रकट करती है। इस रीति से विचार करने पर यही विदित होगा कि राजनीति भी प्रकारान्तर से हमें सत्याचरण की ही प्रेरणा देती है। इसमें अन्याय को अपनाने अथवा अनीति को आश्रय देने जैसी कोई बात नहीं।


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