दोनों पड़ोसियों के बालक आपस में उलझ पड़े, खेल-खेल में छीना-झपटी मारा-मारी हो गई। दोनों ने अपने माता-पिता से फरियाद की। उनकी शिकायत पर दोनों के अभिभावक भी लड़ पड़े। वर्षों पुरानी मित्रता में दरार पड़ गई। बोल-चाल, मिलना जुलना एक दूसरे के यहाँ आना जाना बन्द हो गया।
किन्तु दूसरे ही दिन देखा कि दोनों बालक पुनः आपस में मिलकर साथ-साथ खेलने में लगे हैं। न उनमें कोई मनोमालिन्य है, न शिकवा-गिला।
दोनों के अभिभावकों ने अपनी भूल सुधारते हुए परस्पर क्षमा-याचना की और स्वीकार किया कि बड़ों से तो बालक अच्छे जो लड़कर भी साथ रहते हैं और हम साथ रहते हुए भी लड़े हैं।
इन्हीं लक्षणों का वर्णन कर उन्हें न्यूरोटिक, साइकोटिक साइकोसोमेटिक, डेमन्टीक, मेण्टली रिटार्डेड आदि नामों से समझाती रही है। मूल तत्वदर्शन एक ही है कि मनुष्य अनगढ़ है, भटका हुआ है किन्तु सुगढ़ बनने की व प्रगति के मार्ग पर चल पड़ने की अनन्त संभावनाएँ इनमें विद्यमान हैं। कालीदास व वरदराज जैसे मूढ़ जब प्रतिभा सम्पन्न बन सकते हैं तो क्यों नहीं हर व्यक्ति उस दिशा में अध्यवसाय करता है। कुसंस्कारों की मलिन पर्त का अनावरण कर व्यक्ति यदि अन्तर्क्षेत्र को जगा सके तो प्रतिभा के चरम शिखर पर पहुँच सकने का पथ निश्चित ही प्रशस्त हो सकता है।