मनुष्य बनने की आकुलता

March 1991

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लोगों की समझ में उसे उन्माद था। कोई स्वस्थ सबल पुरुष, किसी सुन्दर पुरुष या सुन्दर युवती को देखते ही वह जहाँ का तहाँ खड़ा हो जाता। दोनों हाथों से नेत्र ढक लेता और उसके पैर काँपने लगते। मुँह से कुछ बड़बड़ाहट शुरू हो जाती। बड़बड़ाने के अस्फुट स्वरों में सिर्फ दो ही शब्द पल्ले पड़ते -”हे ईश्वर”। इस रोग का परिणाम यह हुआ कि वह नगरों के भीड़ भरे मार्गों से भय खाने लगा। उसे अपने एकान्त कमरे में बन्दी रहना प्रिय था और यदि वहाँ से निकलना निहायत जरूरी हो, तो वह तब निकलता जब उसे रास्ते में किसी से मिलने की सम्भावना न हो।

मस्तिष्क को धक्का लगा है। मानसिक विकृति है धीरे-धीरे ठीक होगी। चिकित्सक-मनोवैज्ञानिक कोई कारगर सहायता नहीं कर पाए। सिर्फ अपनी सम्मति सुना कर रह गये। बेचारी पत्नी-वह तो उससे भी घबराता था। उसके सम्मुख भी उसकी आंखें बन्द हो जाती पैर काँपने लगते। “भागो! भागो जल्दी! तहखानों में जा छुपो।” कभी-कभी बड़बड़ाहट के शब्द साफ हो जाते। “पिशाच आ रहे हैं। वे पिशाच जो अपने बमों से संसार को भून देने पर तुले बैठे हैं।”

बेचारा उसे क्या पता-इन्सान की पूरी जमात इन्सानियत को कुचलते रौंदते शैतान बनने के लिए दौड़ पड़ी है। परमाणु बम, हाइड्रोजन बम तो बहुत पीछे छुट गए। अब तो इन्सान के भीतर बैठा शैतान कहीं अधिक घातक अस्त्रों की शोध में है, उसकी चाहत है कि दूर बैठा बटन दबा दे और एक भारी नगर, जिसे वह शत्रु नगर मानता है, अपने समस्त भवनों, लक्ष-लक्ष मानव प्राणियों, पशुओं एवं विपुल वस्तुओं के साथ आधे क्षण में इस प्रकार भस् से राख की ढेरी बने जैसे धुनी रुई की राशि पर प्रज्वलित अग्नि गिरी हो।

संहारक शस्त्रों की बात उसके लिए नई नहीं है। इन सब के बारे में उसे सुनना पड़ता था, जानना पड़ता था और उपयोग भी करने के लिए वह बाध्य था, क्योंकि वह एक हवाई सैनिक था। हिरोशिमा-नागासाकी के भस्म स्तूप बनने के तीन दिन पहले वह युद्ध मोर्चे से आया था या यों कहा जाय कि उसे आना पड़ा।

अब तो डाक्टरों के मतानुसार उसका उन्माद छटने लगा। चिल्लाहटें कम हो गईं। हाँ बड़बड़ाहट अभी भी है। अन्तर केवल इतना ही पड़ा है कि अब केवल उसके होठ हिलते हैं। मनोवैज्ञानिकों का कहना है, ‘यह अच्छे लक्षण हैं, उसका मन सावधान होने लगा है। उसमें इतनी समझ आ गई है कि सबके सामने चिल्लाना बुरी बात है। इसी तरह सोचना जारी रहेगा तो वह शीघ्र समझ जाएगा कि उसका भय अकारण है।

क्या सचमुच उसका भय अकारण है? क्या मानव, इसे मानव के ठेकेदारों, शक्ति सम्पन्न शब्दों के कर्णधारों ने अपनी पैशाचिकता का परित्याग कर दिया? क्या उन्होंने खुशहाली से भरे चहकते विश्व उपवन को श्मशान बनाने वाली अपनी योजनाओं को पूर्णतया समाप्त कर दिया।

यदि नहीं तब तो भय है और तब तक बना रहेगा जब तक नियन्ता शैतानियत की राह पर बढ़ रहे इन्सान के कदमों को बलात् न मोड़ दे। वह यों ही नहीं भयभीत था। जो अपने समूह का नायक हो, पूरी स्क्वाडर्न का लीडर जिसने बहादुरी के बड़े-बड़े खिताब जीते हो। इस मानसिक उथल-पुथल के थोड़े ही दिन पहले अभी उस दिन वह अपने बाम्बर बी-उन्तीस पर जमा बैठा था। उसका बमवर्षक आज दिन में उड़ान ले रहा था। एक, दो, तीन बटन दब गया। बम पूरी तेजी से जा भागे। बड़ी शीघ्र गति से यान आगे बढ़ गया और पर्याप्त ऊपर उठ गया।

उसको कुछ नहीं हुआ उस समय। उल्टे वह प्रसन्न था। नीचे धुआँ और लपटों का अम्बार उठ रहा था। इसके हृदय में खुशी का ज्वार उमड़ रहा था। मन ही मन वह विचार कर रहा था, कितनी भाग्यशाली है जुलाई, 1945 की 27 तारीख जिसने उसे ‘ओकीनावा’ को ध्वस्त करने का श्रेय दिया। शत्रु जल रहा था- शत्रु! वह शत्रु जिससे उसको घृणा करना सिखलाया गया था। मजे की बात तो यह-यह सब मानवता की रक्षा के नाम पर हो रहा था और शत्रु-जिसके सम्बन्ध में कहा गया था कि वह नरक के कीड़ों से भी घृणित और शैतान से भी अधिक दुष्ट है।

आक्रमण सफल रहा। लौटने पर उसे समाचार मिला कि शत्रु को हटना पड़ा है। अग्रगामी सैनिकों ने शत्रु के मुख्य अड्डे को अधिकार में ले लिया है। मित्रों, सहयोगियों, अफसरों से कितनी प्रशंसा मिली उस दिन। द्वितीय विश्व युद्ध की सेनाओं के कमाण्डर इन चीफ जनरल मैक आर्थर ने स्वयं बधाई सन्देश भेजा था। वह उस महत्वपूर्ण बिन्दु को लक्ष्य बनाने में चूक गया होता। उसका यान गिर जाता या वह स्वयं जल जाता, तब...। परन्तु यह सब नहीं होना था, नहीं हुआ।

आप मुझे उस चौकी को खोलने की अनुमति देंगे। उसने उत्साहातिरेक में पूछा?

“अवश्य! अफसर बाधक नहीं बना। “यद्यपि अभी वहाँ खतरा है, किन्तु अपने एक अच्छे योद्धा का उत्साह हम नहीं तोड़ना चाहेंगे। हवाई जहाज वहाँ उतर नहीं सकेगा। तुम जीप से जा सकते हो।”

ओह! उसे मार्ग में ही मूर्छा सी आने लगी। उसके समीप से जो एम्बुलेन्स जा रही थीं, उनमें से दारुण चीत्कारें उठ रहीं थीं। जलते माँस की गन्ध से साँस घुट जाती थी। जलता माँस तो उसने जीते-जागते मनुष्यों को भून दिया है? हाँ यह उसी का कर्तृत्व है जो अपने को मनुष्य कहता है चार्ल्स ग्रोव। उसी का जिसे गर्व है कि सर्वम् प्रेम बाँटने वाले ईसा का अनुयायी है चीत्कार के करुण रव के बीच उसी के किसी अनजान क्षेत्र से उभरी ये ध्वनियाँ उसको धिक्कारने लगी।

जीप से उतरा वह, सामने ही एक शव पड़ा था। कोई आठ दस वर्ष का बालक रहा होगा। उसके शरीर के वस्त्रों का क्या पता चलता, चमड़ा व माँस की परत तक जल गई थी। उसका रंग काला, झुलसा, स्थान-स्थान से फटा और उसमें से बाहर आया माँस... ग्रोव ने नेत्रों पर हाथ धर लिये।

किन्तु कहाँ तक आँखें बन्द किये रहता। कुछ स्त्रियाँ चीखती-चिल्लाती उसी की ओर दौड़ी आ रही थीं। सैनिकों ने उन्हें थोड़ी दूर पर रोक लिया। कई गिर पड़ी वहीं। वे उन्मत्त हो चुकी थीं। सब के सिर के बाल जल गए थे। मुख ही नहीं सारा शरीर काला पड़ गया था। झुलस कर फट गया था। स्थान-स्थान से जब शरीर ही फटा था, तब वस्त्रों की बात कौन कहे? कभी ये भी सौंदर्य की जीवन्त प्रतिमाएँ रही होंगी। किसने दिया आज उन्हें यह रूप...?

“उफ।” वह वहीं बैठ गया धरती पर। उसको चक्कर आ रहा था। ‘शत्रु’-’शत्रु’। कोई उसके सिर के भीतर चिल्ला रहा था समूचे अस्तित्व से चिल्लाहटें उमग रहीं थीं। “ये अबोध बच्चे, ये सुकुमारी युवतियाँ, ये सब तुम्हारे शत्रु हैं। तुम ने इन्हें जला डाला। पिशाच कहीं के।”

पिशाच ... तो क्या वह पिशाच है नहीं वह तो मनुष्य है। क्या तुम अभी भी अपने को मनुष्य समझते हो? अन्तरात्मा के शब्द गूँज उठे। तब...त..ब..व..ह यही वह दिन था जब उसे युद्धस्थल से लौटना पड़ा। उसका प्रभाव दूसरे सैनिकों पर प्रतिकूल पड़ने का भय है। वे भी भयभीत है इन क्षणों में भी उसके उन्माद भरे ठहाके की गूँज बिखर गई।

वह स्वदेश लौट आया। चिकित्सकों के प्रयत्न कहा जाय या उसके अन्तरतम का सँभलता संतुलन एक-एक कर नब्बे दिनों में, या पूरे तीन महीने यह समतुलन सिद्ध हुआ सम, तुलन अन्तः और बाह्य जगत के बीच। अब उसे एक ही धुन हो गई वह मनुष्य बनेगा, मनुष्य अर्थात्- दो पावों पर चलने वाला जानवर नहीं। दो पांवों पर तो वन मानुष भी चलता है। मदारी के हाथ-बन्दर को वस्त्राभूषणों से सजा देते हैं। “तब क्या है मनुष्य?” अमेरिका से दक्षिण अफ्रीका जाते समय किसी ने उससे सवाल किया “हड्डी,खून, माँस, विष्ठा के ढेर को मनुष्य नाम मत दो। यह तो अन्तःकरण में छलछलाती उस संवेदना का नाम है जो मानवता की कराहटें सुन बेचैन हो सके। अपना सर्वस्व दे डालने के लिए विकल हो जाए।” कभी का स्क्वाडर्न लीडर वार्ल्स ग्रोव अफ्रीका के जूलू निवासियों का फादर ग्रोव हो गया। वहाँ उसने द्वितीय विश्वयुद्ध के अनुभवों को “ग्रोन्स आँव इन्ज्योर्ड ह्यूमैनिटी” (आहत मानवता की कराहटों) के नाम से सँजोया।

ग्रोव के यह अनुभव स्वर क्या आहत, मीत मानवता की करुण पुकार नहीं हैं? क्या ये कराहटें-हमें मनुष्य बनने के लिए विकल नहीं करतीं, ठीक वैसे ही मनुष्य जैसा ग्रोव बन सका।


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