विचार क्रान्ति की वेला आ पहुँची

March 1991

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विश्व के इतिहास पर यदि हम दृष्टिपात करें, तो ज्ञात होगा कि परिवर्तन चक्र घूमता रहता है, लट्टू की तरह-काल चक्र की तरह। जिस प्रकार कालचक्र कभी थमता नहीं, निर्बाध गति से चलता ही रहता है, उसी प्रकार परिवर्तन का भी एक चक्र है, जो सदा धावमान है। जो कुछ आज दिखाई पड़ रहा है, वह कल नहीं रहेगा, यह सुनिश्चित है और जो समय कल आयेगा, वह भी शाश्वत नहीं रहेगा, यह भी सत्य है। तात्पर्य यह है कि समय की तरह परिवर्तन भी चक्रवत् है। वह घूमता रहता है।

“हम आज जिस उथल-पुथल और अराजकतावादी समय से गुजर रहें हैं, वह कल नहीं रहेगा, क्योंकि उसी के बीच एक नयी समाज-व्यवस्था, एक नई सृष्टि का जन्म हो रहा है। यह नई व्यवस्था आज भले ही हमें नहीं दिखाई पड़ रही हो, पर कुछ ही वर्षों में उसका मूर्तिमान स्वरूप सामने आने ही वाला है। यही परिवर्तन है- क्रान्ति है, विचारक्रान्ति है” यह उद्गार हैं मूर्धन्य मनीषी हरिभाऊ उपाध्याय के “युग धर्म” पुस्तक में।

क्रान्ति अनादि काल से चलती आ रही है और अनन्त काल तक चलती रहेगी। आरंभ में प्रस्तर युग था। तब लोग पत्थर के औजारों का प्रयोग करते और वनों में रहते थे। धीरे-धीरे उनमें विकास हुआ। वे कबीलों में रहने लगें एवं लोहे के आयुधों का प्रयोग आरंभ किया। फिर उनमें सभ्यता और समाज का विकास हुआ। वे सभ्य कहलाने लगे। इसके बाद राजतंत्र का सूत्रपात हुआ, किन्तु जब राजतंत्र ने तानाशाह का रुख अपना लिया, तो एकबार पुनः लोगों की चेतना जगी। उनका उनींदापन हटा, तो राजतंत्र की नींव हिल उठी। गुलामी की प्रथा का अन्त हुआ, प्रजातंत्र आया और स्वराज्य मिला। यह सब स्वयं में एक परिवर्तन था, क्रान्ति थी।

इटली के इतिहास को देखें तो ज्ञात होगा कि वहाँ की पराधीन जनता जब गुलामी की जंजीरों में फँसी त्राहि-त्राहि कर रही थी, तो मेजिनी ने उनमें प्राण फूँके और विदेशियों से लोहा लेने के लिए गैरी वाल्डी के नेतृत्व में खड़ा किया। बाद में जब स्वतंत्रता मिली, तो कैहूर के राष्ट्रपतित्व में वहाँ की सरकार बनी। फ्राँस की राज्य क्रान्ति, अमेरिका की दास प्रथा, रूस की बालशेविक और अक्टूबर क्रान्ति सभी उसी परिवर्तन के चिन्ह हैं, जो यह सिद्ध करते हैं कि कालचक्र की तरह परिवर्तन चक्र भी सदा गतिमान है। अब भी वह अपने प्रकार से चल रहा है।

उपरोक्त सभी क्रान्तियाँ न्यूनाधिक खूनी थीं। इनमें कमोबेश रक्तपात हुआ था, पर अब की बार जो क्रान्ति होने जा रही है, वह विशुद्धतः रक्तहीन क्रान्ति-विचार क्रान्ति होगी। इसमें न रक्त बहेगा, न समर-युद्ध होंगे। बिना कुछ होते हुए परिवर्तन होता चला जायेगा ओर लोग बदलते चलेंगे। इस आध्यात्मिक क्रान्ति की शुरुआत हो चुकी है। विश्व पटल पर यदि हम दृष्टिपात करें, तो इसका स्पष्ट संकेत मिलने लगता है। बर्लिन की दीवार का टूटना, दोनों जर्मनी का एकीकरण, नारी अभ्युदय की दिशा में विश्व भर में उभरता उत्साह, साम्यवाद का अन्त, सूडान और लीबिया की एकीकरण की दिशा में पहल। दोनों कोरिया का मिलकर एक होने की तैयारी, नेपाल बंगला देश में जनशक्ति की विजय, इसे विचार-क्रान्ति ही तो कहा जायेगा, अन्यथा वर्ष भर पूर्व लोगों ने जिसकी कल्पना तक नहीं की थी, वह अनायास सम्पन्न कैसे हो सकता था? नाम चाहे जो दे लें, पर यह परिवर्तन विचार क्रान्ति का ही एक रूप है।

जीवन जब सरल-स्वाभाविक ढंग से चलता-बढ़ता रहता है, तब उसे प्रगति कहते हैं, किन्तु जब माया, मोह, अज्ञान, अन्धकार के वशीभूत हो वह अवरुद्ध हो जाता है, उसकी गति थम जाती है, तो यही पतन कहलाने लगता है। इन समस्त गतिरोधों को सहता हुआ जब धैर्य पराकाष्ठा को पार कर जाता है, तो भीतर का उमड़ा-घुमड़ता प्राण बम की तरह धमाका करता है। यही क्रान्ति है। कार्लमार्क्स का साम्यवाद, रूसो का ‘समाजवाद’ एक–सी ही क्रान्ति के प्रतीक थे। पतन जब अपने अन्तिम चरण में पहुँचता है और उत्थान की शुरुआत होती है, तो दोनों की संक्रान्ति अवस्था को ही “क्रान्ति” नाम से अभिहित करते हैं।

आज हम ऐसी ही प्रभात वेला से गुजर रहे हैं, जब पराभव चरमोत्कर्ष पर है और उत्क्रान्ति का दिनमान निकलने वाला है, भोर का आभास देने वाले कुक्कुट बाँग लगाने वाले हैं। ज्वर जब चढ़ता है तो लोग यह सहज ही अनुमान लगा लेते हैं कि शरीर विकारग्रस्त है, पर विशेषज्ञ यह भी जान जाते हैं कि विकार मुक्ति का यही स्वाभाविक और प्राकृतिक तरीका है शरीर का, और रोगी अब विकार मुक्त होने ही वाला है। परिवर्तन के महान क्षणों को क्रिया रूप लेते देखते हुए यह आशा कि जा सकती है कि अब उज्ज्वल भविष्य सन्निकट है। विचार-क्रान्ति से ही विचार परिवर्तन होने वाला है। विश्व के महान मनीषियों और भविष्य द्रष्टाओं का भी ऐसा ही कथन है। “युगधर्म” पुस्तक के “क्रान्ति युग“ अध्याय में मूर्धन्य विचारक हरिभाऊ उपाध्याय आगे लिखते हैं कि “मुझे यह स्पष्ट दीख रहा है कि भारत के अन्दर और बाहर विश्व भर में एक अदृश्य और किन्तु प्रबल और महान समुद्र-मंथन चल रहा है एवं फलश्रुति के रूप में रत्न-राशि अगले दिनों निकलने ही वाली है। यह मंथन इतना सशक्त और शक्तिशाली है कि संसार की कोई शक्ति उसे रोक नहीं सकती।”

“उसका वेग इतना दुर्धर्ष है कि जो कोई उसे रोकना चाहेगा, या तो वह खुद समाप्त हो जायेगा अथवा थक कर स्वयं को उसके अनुकूल बना लेगा।” आगे वे लिखते हैं कि “अब समाज में न धनपति कहलाने वाले लोग रहेंगे, न दरिद्र-कंगाल, वरन् दोनों की आर्थिक स्थिति एक समान होगी। कोई बात सिर्फ इसलिए मान्य न होगी कि उसे किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति ने कहा, वरन् व्यक्ति, देश और समाज को ऊंचा उठाने वाली बात ही अच्छी और उपयोगी समझी जायेगी। लोग उसे ही अंगीकार भी करेंगे, जो कल्याणकारी और लोकोपयोगी जानी जायेगी तथा नीति ओर न्याय के मानदण्डों के अनुरूप होगी। जन्म के आधार पर कोई बड़ा-छोटा, ऊंच-नीच नहीं होगा, अपितु योग्यता ही इसका आधारभूत मापदण्ड होगा। नर-नारी को समानता मिलेगी और हर क्षेत्र में एकता समता के उदाहरण दृष्टिगोचर होंगे। नये भगवान और नये इंसान की रचना होगी। पुराण, कुराण, इंजील में सही बातें स्वीकार्य होंगी, जो समय, समाज और परिस्थिति की कसौटी पर नीति और बुद्धि सम्मत साबित होंगी। पुस्तकें अब सस्ती लोकप्रियता और वाहवाही के लिए नहीं लिखी जायेंगी अपितु उनका एक मात्र लक्ष्य पाठक का आत्म-विकास होगा, उन्हीं की पुस्तकें जीवित रह सकेंगी, जिनमें तपस्या, विद्या और सेवा की त्रिवेणी का संगम होगा”।

प्रिंस कोपाटकिन ने भी भविष्य का दर्शन किया था। वे अपनी पुस्तक “क्रान्ति की भावना” में लिखते हैं कि “सामाजिक जीवन में ऐसे अवसर आ जाते हैं, जब क्रान्ति एक अनिवार्य आवश्यकता बन जाती है। वह चीख-चीख कर कहती है कि अब आगे इसके बिना किसी कदर काम चलने वाला नहीं। चहुँ ओर संव्याप्त पुराने, सड़े-गले विचारों की जगह नवीन और न्याय संगत विचार आन्दोलित होने एवं लोगों के जीवन में बलात् अपना स्थान बना लेने के लिए उमड़ने-घुमड़ने लगते हैं।” आज हम ऐसे ही क्षणों से गुजर रहे हैं, जब हमें पुराने व प्रतिगामी विचारों को त्याग कर युगानुकूल नूतन विचारधारा को हृदयंगम करना चाहिए, जो स्वयं हमारे लिए और इस गुण के लिए कल्याणकारी हो। वास्तविक विचार-क्रान्ति तभी आ सकती है एवं तभी वर्तमान युग के उस युगद्रष्टा महामानव का वह स्वप्न साकार हो सकता है, जिसमें उन्होंने “नया भगवान बनायेंगे, नया इंसान रचायेंगे, नया संसार बनायेंगे” का स्पष्ट उद्घोष किया है। अच्छा हो, हम अपने को स्वयं ही बदल लें, अन्यथा महाकाल की प्रत्यावर्तन प्रक्रिया प्रताड़ित करके हमें विचार परिवर्तन के लिए बाधित करने ही वाली है।


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